लोकतंत्र में वैसे तो हर चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है और कई बार सबसे छोटे चुनाव से भी बड़ी राजनीति प्रभावित होती है। हाल में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में चुनाव हुए और तीनों जगह यथास्थिति कायम रही। त्रिपुरा में भाजपा की पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी हुई तो मेघालय में पहले से ज्यादा सीटें लेकर कोनरेड संगमा की पार्टी एनपीपी सत्ता में लौटी। नगालैंड में भाजपा की सीटें तो नहीं बढ़ी लेकिन सरकार का नेतृत्व कर रही एनडीपीपी की सीटें बढ़ीं और गठबंधन फिर से सत्ता में लौटा। ये तीनों चुनाव नतीजे कई मायने में बेहद अहम हैं। जैसे- तीनों राज्यों में विपक्ष के तमाम शोर शराबे के बावजूद कोई एंटी इन्कम्बैंसी नहीं थी, तीनों राज्यों में विपक्ष एकजुट नहीं हुआ, विपक्ष के बिखरे होने का फायदा सत्तारूढ़ दलों को मिला, तीनों राज्यों में विपक्ष बहुत दमदार तरीके से चुनाव नहीं लड़ सका आदि आदि।
इन तीन राज्यों के बाद अब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव आयोग की घोषणा के मुताबिक 10 मई को मतदान होगा और 13 मई को नतीजे आएंगे। इस चुनाव में भी उन तमाम चीजों की परीक्षा होनी है, जिनकी पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों में हुई है। चार साल से राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल है या नहीं? अगर है तो विपक्ष उसका फायदा उठा पाएगा या नहीं? विपक्ष के बिखरे होने का फायदा सत्तारूढ़ दल को मिलेगा या नहीं? और विपक्षी पार्टियां दमदार तरीके से चुनाव लड़ पाएंगी या नहीं? इन चारों सवालों का जवाब एक साथ चुनाव नतीजों से मिलेगा। अगर भाजपा फिर जीत जाती है तो उसका एक मतलब तो यह होगा कि भाजपा भले कुछ राज्यों में चुनाव हार जाती है लेकिन आमतौर पर उसकी सरकारों के खिलाफ आसानी से एंटी इन्कम्बैंसी नहीं होती है या वह गवर्नेंस से इतर भावनात्मक मुद्दों से सत्ता विरोधी लहर को काट देती है। एक मतलब यह होगा कि भाजपा को नरेंद्र मोदी के रहते किसी प्रादेशिक क्षत्रप की जरूरत नहीं है। उसका एक मतलब यह भी होगा कि अगर इतनी अनुकूल स्थितियों में भी विपक्ष भाजपा को नहीं हरा पाए तो उसके लिए भाजपा को हराना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है।
कर्नाटक में स्थितियां विपक्ष के बहुत अनुकूल हैं। इसके कई कारण हैं। पहला, राज्य में 38 साल के इतिहास में कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में वापस नहीं लौटी है। आखिरी बार 1985 में रामकृष्ण हेगड़े की सरकार लगातार दूसरी बार जीती थी। सो, अगर राज बदलने का यह रिवाज जारी रहता है तो स्वाभाविक रूप से भाजपा सत्ता से बाहर होगी और कांग्रेस की वापसी होगी। दूसरा, भाजपा को कभी भी कर्नाटक में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। पहली बार 2008 में उसने निर्दलीय विधायकों के साथ मिल कर सरकार बनाई थी और बाद में विपक्षी पार्टियों के विधायकों के इस्तीफे करा कर उनको भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़वाया था। दूसरी बार 2019 में भाजपा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से इस्तीफा करा कर उनकी साझा सरकार गिरवाई और अपनी सरकार बनाई। तीसरा, भाजपा अब भी पूरे कर्नाटक की पार्टी नहीं है। उत्तरी व तटीय कर्नाटक में उसका मजबूत आधार है और बीएस येदियुरप्पा की मेहनत से लिंगायत उसका सबसे मजबूत कोर वोट बना है। इसके अलावा भाजपा किसी दूसरे बड़े जातीय समूह को अपने साथ नहीं जोड़ पाई है।
चौथा कारण भाजपा के अंदर की गुटबाजी है। 2019 में येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस की साझा सरकार गिरा कर भाजपा की सरकार बनवाई थी और मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन दो साल बाद उनको हटा दिया गया और बसवराज बोम्मई मुख्यमंत्री बने। वे भी लिंगायत समुदाय के हैं लेकिन उनकी पकड़ येदियुरप्पा जैसी नहीं है। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही पार्टी के अलग अलग खेमे खुल कर सामने आ गए। मुख्यमंत्री बोम्मई, पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा, राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष और केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी के समर्थकों के गुट हैं। पांचवां कारण यह है कि येदियुरप्पा पर भाजपा की रणनीति स्पष्ट नहीं है। उनको मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद किनारे कर दिया गया था। लेकिन हार मान कर घर बैठने की बजाय वे पूरे प्रदेश में घूमने लगे। इस क्रम में उनको ऐसा समर्थन मिला कि पार्टी आलाकमान को मजबूर होकर उनको संसदीय बोर्ड में शामिल करना पड़ा। जब इससे यह मैसेज हुआ कि येदियुरप्पा ही सबसे बड़े नेता हैं और वे ही पार्टी को चुनाव लड़ाएंगे तो फिर उनको काटने का अभियान शुरू हो गया। सो, चुनाव आने तक यह तय नही हो पाया कि वे कितने महत्वपूर्ण हैं और उनकी क्या भूमिका है।
छठा कारण भ्रष्टाचार का है। राज्य सरकार के ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। किसी न किसी तरह से मुख्य विपक्षी कांग्रेस राज्य की बोम्मई सरकार के ऊपर 40 फीसदी कमीशन वाली सरकार का ठप्पा लगाने में कामयाब हुई है। ठेकेदारों की समूह की ओर से यह आरोप लगाया गया था और एक बड़े ठेकेदार ने इस वजह से आत्महत्या कर ली थी। भाजपा के दिग्गज नेता केएस ईश्वरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोप में सरकार से हटाए गए थे और तमाम दबावों के बावजूद उनकी सरकार में वापसी नहीं हुई। हालांकि भाजपा ने भ्रष्टाचार के नैरेटिव को बदलने के लिए बड़ी कार्रवाई की है। लोकायुक्त ने राज्य के भाजपा विधायक मदल विरूपक्षपा और उनके बेटे को पकड़ा है। उनका बेटा रिश्वत लेते पकड़ा गया था और विरूपक्षपा के घर से आठ करोड़ रुपए मिले थे। भाजपा इस घटना का प्रचार करके बता रही है कि वह भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टालरेंस रखती है।
सातवां कारण यह है कि मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने तमाम गुटबाजी के बावजूद लक्ष्मण रेखा पार नहीं की है। पार्टी के बड़े नेता एक साथ मिल कर चुनाव लड़ रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के बीच परफेक्ट तालमेल नहीं है लेकिन दोनों में कामचलाऊ रिश्ते बन गए हैं और दोनों ने यह जरूरत समझी है कि पहले कांग्रेस की सरकार बने वह ज्यादा जरूरी है। तुरुप के इक्का के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। कर्नाटक उनका गृह प्रदेश है और कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि इसका फायदा उसे मिलेगा। इस तरह ओबीसी समुदाय से आने वाले सिद्धरमैया, वोक्कालिगा समुदाय के डीके शिवकुमार और दलित समुदाय के खड़गे का परफेक्ट कॉम्बिनेशन कांग्रेस के पास है। इसमें मुस्लिम वोट जुड़ जाता है तो यह 65 फीसदी से ज्यादा वोट बनता है। जहां तक दमदार तरीके से चुनाव लड़ने की बात है तो कर्नाटक एकमात्र प्रदेश है, जहां कहा जा सकता है कि पार्टी का संगठन भाजपा के अंदाज में और उसी दम से चुनाव लड़ने में सक्षम है।
ऐसा नहीं है कि स्थितियां कांग्रेस के अनुकूल हैं तो भाजपा ने सरेंडर कर दिया है। भाजपा उसी अंदाज में चुनाव लड़ रही है, जैसे वह कहीं भी लड़ती है। चुनाव की घोषणा से पहले दो महीने में प्रधानमंत्री ने सात बार कर्नाटक का दौरा किया। अमित शाह और जेपी नड्डा के दौरों की गिनती नहीं है। हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास हुए। एंटी इन्कम्बैंसी को कम करने के लिए हिंदुत्व का भावनात्मक मुद्दा उठाया गया। हिजाब से लेकर हलाल मीट तक के विवाद हुए। टीपू सुल्तान को भी चुनाव का मुद्दा बनाया गया। कुल मिला कर भाजपा ने कोई प्रयास उठा नहीं रखा है। तभी इस चुनाव का जो भी नतीजा निकलेगा उसका दूरगामी असर होगा।