लेकिन समाधान क्या है? आखिर आधुनिक विकास और इससे मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग हर जगह और हर वर्ग की आबादी की चाहत है। इसलिए समस्या पर उसकी पूरी जटिलता में जाकर विचार करना होगा।
उत्तराखंड में जोशीमठ के बाद खबर है कि कर्णप्रयाग में भी कई मकानों में दरार आ गई है। जोशीमठ में उन इमारतों को गिरा देने का फैसला किया जा चुका है, जिनमें दरारें आ गई हैं। हिमालय में बसे इस कस्बे से दर्जनों परिवारों को निकालकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है। लेकिन यह सिर्फ अस्थायी समाधान है। किसी को अचानक अपने घर से वंचित हो जाने की भरपाई संभव नहीं है। कुल सूरत यह है कि यह समस्या कहीं अधिक गंभीर और व्यापक है। विशेषज्ञों ने कहा है कि जोशीमठ की ढलानें भूस्खलन से निकले मलबे से बनी हैं। लिहाजा कस्बा एक हद तक ही इमारतों का वजन सहन कर सकता है। पिछले साल मई में ही एक घर के नीचे से पानी बहने की आवाज सुनी गई थी। सितंबर में घर के फर्श में छोटी सी दरार देखी। दिसंबर में यह चौड़ी हो गई और बाशिंदों घर खाली करना पड़ा। यही कहानी सैकड़ों और घरों की भी है। पिछले कुछ समय से इन मकानों में दरारें आनी शुरू हो गईं। करीब 700 घरों में दरारें पाई गईं, जिसके बाद 400 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है।
प्रशासन के मुताबिक कई इमारतों को रहने के लिए असुरक्षित पाया गया है। आम चर्चा में इस बात पर जोर दिया गया है कि यह स्थिति विकास परियोजनाओं के कारण इकॉल़ॉजी को पहुंचे नुकसान का परिणाम है। जिन कंपनियों की परियोजनाएं इस इलाके में सक्रिय हैं, उनमें सरकारी थर्मल पावर कंपनी एनटीपीसी भी शामिल है। देश की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कंपनी एनटीपीसी का कहना है कि उसके द्वारा बनाई जा रहीं सुरंगें और अन्य प्रॉजेक्ट जोशीमठ के संकट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। इसके बावजूद पर्यावरणवादी कार्यकर्ता ऐसी परियोजनाओं को खलनायक के रूप में पेश कर रहे हैँ। लेकिन समाधान क्या है? आखिर आधुनिक विकास और इससे मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग हर जगह और हर वर्ग की आबादी की चाहत है। इसलिए समस्या पर उसकी पूरी जटिलता में जाकर विचार करना होगा। देखना होगा कि आखिर क्या एहतियाती उपाय हो सकते हैं, जिनसे परियोजनाएं अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित साबित हों।