खुद अमेरिकी विशेषज्ञों ने कहा है कि बीजिंग में हुआ यह समझौता खेल का रुख बदल देने वाली घटना है। इससे अब तक अमेरिका में गहरी बैठी रही इस राय पर अब निर्णायक प्रहार हुआ है कि अमेरिका पश्चिम एशिया और पूरी दुनिया के लिए अपरिहार्य है।
चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता हो जाने से अमेरिका के रणनीतिक हलके हतप्रभ हैँ। पश्चिम एशिया के जिस क्षेत्र को अमेरिका का प्रभाव क्षेत्र माना जाता था, वहां चीन की इतनी गहरी पैठ बन चुकी है, इसका अंदाजा वहां के नीति निर्माताओं को संभवतः नहीं था। खुद अमेरिकी विशेषज्ञों ने कहा है कि बीजिंग में हुआ यह समझौता खेल का रुख बदल देने वाली घटना है। कहा गया है कि अब तक अमेरिका में गहरी बैठी रही इस राय पर अब निर्णायक प्रहार हुआ है कि अमेरिका पश्चिम एशिया और पूरी दुनिया के लिए अपरिहार्य है। हालांकि ईरान और सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक रिश्ते 2016 में टूटे थे, लेकिन दोनों देशों के संबंध हमेशा से टकरावपूर्ण रहे हैँ। ईरान शिया देश है, जबकि सऊदी अरब सुन्नी मुस्लिम दुनिया का नेता समझा जाता है। इस्लाम के भीतर शिया और सुन्नी के टकराव की ऐतिहासिक वजहें रही हैँ। हाल के दशकों में इन दोनों देशों के टकराव ने इस्लामी दुनिया को बांटे रखा है। सीरिया, लेबनान, फिलस्तीन से लेकर इराक तक फैली अशांति में इन दोनों देशों के हाथ का पहलू शामिल है। अब अगर सचमुच दोनों देशों में मेलमिलाप होता है, तो उसका असर इन सभी देशों- बल्कि पूरे पश्चिम एशिया पर होगा।
दोनों देशों ने चीन की इस राय का समर्थन किया है कि बिना आर्थिक विकास के शांति कायम नहीं हो सकती। जाहिर है, इसी बिंदु पर अपनी ताकत से चीन ने दोनों को प्रभावित किया। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, 5-जी, सोलर एनर्जी आदि से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर तक के विकास से जुड़ी संपन्नता का सपना उसने इन देशों को दिखाया है। दोनों देश चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का भी हिस्सा हैं। दरअसल, अगर कुछ आगे बढ़ कर देखें, तो तुर्किये, कतर, यूएई जैसे देश भी चीन के प्रभाव में आते नजर आते हैँ। यह पश्चिम एशिया में सचमुच एक बड़े बदलाव का संकेत है। भारत जैसे देशों को, जिनके संबंध चीन से बेहतर नहीं हैं, उन्हें अपनी रणनीति बनाते समय अब इस पहलू को भी ध्यान में रखना होगा।