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140-170 करोड़ लोगों में कमाने वाले और खाने वाले!

भारत में पिछले पच्चीस वर्षों में नौजवान आबादी तेजी से बढ़ी है। अगले चालीस सालों में और बढ़ेगी। मतलब काम कर सकने की उम्र की वर्कफोर्स का बढ़ना! सोचें यदि आबादी में 60-65 प्रतिशत नौजवान हुए और बाकी 60-65 साल से ऊपर के बूढ़े तो भारतीयों का आगे जीवन कैसा होगा? अनुमान लगाएं कि अप्रैल 2023 के 140 करोड़ लोगों में 100 करोड़ नौजवान वर्किंग आबादी व रोजगार कर सकने की कगार पर पंहुचे नौजवानों की है तो पहली बात क्या इतने रोजगार हैं? दूसरी बात ये नौजवान इतना कमाते हुए होंगे कि अपने बूढ़ों के खाने-पीने, रखरखाव, इलाज का बंदोबस्त कर सकें? नरेद्र मोदी-अरविंद केजरीवाल-राहुल गांधी याकि भारत की राजनीति और शासन को धर्मादा, रेवड़ियों से बिजली-पानी-राशन-इलाज-पेंशन जैसे झुनझुनों में बांध दिया है। अवसर और रोजगार नहीं, बल्कि पांच सौ-हजार-दो हजार, छह हजार रुपए सालाना पैसा खातों में डलवाने, इंदिरा कैंटिन, आयुष्मान जैसे धर्मादा-झुनझनों, मनरेगा जैसी बेगारी से इन्होंने देहात-झुग्गी झोपड़ियों में लोगों का रहना संभव बना रखा है। लेकिन इससे न वर्कफोर्स की कमाई और न बूढ़ी आबादी के जीने की सामाजिक गारंटी बनती है।

भारत की मूर्खताओं और खासकर नौकरशाही को समझें जो ओल्ड पेंशन स्कीम लौटा कर चालीस-पचास हजार रुपए मासिक पेंशन का फैसले करवाते हुए है वहीं वर्किंग नौजवान आबादी को छह हजार, दस-बीस हजार रुपए की चार-चार साल की अग्निवीर जैसी नौकरी और विधवा-बूढ़ों को पांच सौ रुपए पेंशन दिलाते हुए है। जाहिर है सरकार और राजनीति में हर स्तर पर तात्कालिक स्वार्थों, अल्पकालिक सोच में दुनिया की नंबर एक भीड़ को पूरी तरह बेगार, भूखा, गरीब बनाए रखने का रोडमैप है। तभी भीड़ के कारण आर्थिकी भले दुनिया की तीसरी-चौथी बने लेकिन उसमें क्या तो जवान और क्या बूढ़ा, हर कोई बेगारी, धर्मादे में टाइमपास जीवन जीते हुए होगा। नौकरशाही, नेता-राजनीतिबाजों, रूलिंग क्लास, व्यापारियों या धर्म व्यवस्थापकों, प्रवचकों व कोचिंग, चिकित्सा, शिक्षा की दुकान लगाए पेशेवरों-व्यापारियों की दस-बारह करोड़ लोगों की क्रीमी आबादी के टॉप के नाते भारत की 95 प्रतिशत आबादी (मतलब स्विगी, उबर, कुरियर, ड्राइवरी, जैसे 10-15 हजार रुपए की नौकरियों) बेगारी के कथित अच्छे दिनों में इक्कीसवीं सदी काटते हुए होगी।

सो, इक्कीसवी सदी का भारत अर्थ होगा, दुनिया का सबसे बड़ा देश, नंबर तीन-चार की आर्थिकी वाला देश और से लोग बेगारी व टाइमपास में करते हुए। जो नौजवान इन दशाओं की छननी में सचमुच पढ़-लिख कर बुद्धिमता से विदेश जाएंगे, वे जरूर विकसित देशों में जा सम्मानजनक, गरिमापूर्ण नौकरी से अपने बूढ़ो का सहारा होंगे। अन्यथा भारत अपनी वर्कफोर्स की नई परिभाषा बनाएगा। न भारत को कुछ मिलना है और न दुनिया को!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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