चुनाव आयोग ने शिव सेना विवाद का जिस अंदाज में निपटारा किया है उसे सरल शब्दों में कहें तो उसका मतलब है कि सांसद और विधायक ही पार्टी होते हैं, संगठन का कोई मतलब नहीं होता है। आयोग का यह फैसला पार्टी आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था को सिर के बल खड़ा कर देने वाला है। लोकतंत्र में चुनाव लड़ने वाली पार्टी महत्वपूर्ण होती है। कोई भी नेता पार्टी से ऊपर या उससे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता है। पार्टी से सांसद और विधायक बनते हैं न कि सांसदों और विधायकों से पार्टी बनती है। व्यवहार में भले न हो लेकिन सिद्धांत यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष पार्टी की व्यवस्था में प्रधानमंत्री से ऊपर होगा। सरकारी प्रोटोकॉल में भले उसका स्थान कहीं भी न हो लेकिन पार्टी में वह प्रधानमंत्री से बड़ा होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पार्टी आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था में पार्टी के शीर्ष नेता और संगठन को सर्वोच्च माना गया है। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में मनमोहन सिंह, एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल जैसे कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रधानमंत्री हमेशा पार्टी से बड़े हो जाते हैं। अब भी वही स्थिति है। इस अघोषित व्यवस्था को चुनाव आयोग ने सैद्धांतिक रूप दे दिया है।
महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट को असली शिव सेना मान कर चुनाव आयोग ने साफ कर दिया है कि पार्टी की व्यवस्था में संगठन का कोई मतलब नहीं है। भले संगठन के सारे नेता एक तरफ हों, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और तमाम पदाधिकारी एक तरफ हों लेकिन अगर चुने गए सांसद और विधायकों में से दो-तिहाई एक तरफ हो गए तो असली पार्टी उन्हीं को माना जाएगा। पिछले साल जून में जब शिव सेना में टूट हुई तब उद्धव ठाकरे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उनके बेटे आदित्य ठाकरे युवा सेना के अध्यक्ष थे। पार्टी मुख्यालय उनके पास था और पार्टी का फंड भी उनके नियंत्रण में ही था। पार्टी के जितने भी अनुषंगी संगठन थे, उनकी निष्ठा भी उद्धव के साथ थी। यहां तक कि जुलाई 2022 में एकनाथ शिंदे ने एकतरफा तरीके से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गठन किया तब भी उन्होंने उद्धव ठाकरे को ही अध्यक्ष बनाए रखा। इस साल जनवरी में उद्धव का राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल खत्म हुआ है। उसके बाद चुनाव आयोग ने उनको पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक करने और नए अध्यक्ष का चुनाव कराने की अनुमति नहीं दी।
इससे पहले चुनाव आयोग ने उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे गुट को अलग अलग नाम और अलग अलग चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया था। उसके बाद दोनों के दावों पर सुनवाई हो रही थी। इस सुनवाई में ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग ने सिर्फ इस तथ्य के आधार पर फैसला किया कि शिव सेना के 54 में से 40 एमएलए एकनाथ शिंदे के साथ हैं और पार्टी के 18 लोकसभा सांसदों में से 12 सांसद शिंदे के साथ हैं। दलबदल कानून में यह प्रावधान है कि अगर किसी पार्टी को दो तिहाई चुने गए प्रतिनिधि एक साथ अलग हो जाते हैं तो उन पर दलबदल कानून लागू नहीं होगा। वे अलग गुट बना कर अपने गुट का विलय किसी दूसरी पार्टी में कर सकते हैं। दसवीं अनुसूची में शामिल दलबदल कानून के आठ पैराग्राफ हैं, जिनमें चौथे पैराग्राफ के मुताबिक चुने हुए प्रतिनिधियों की दो तिहाई संख्या के किसी पार्टी में विलय की स्थिति में भी दलबदल कानून लागू नहीं होता है।
ध्यान रहे इस कानून में सिर्फ दलबदल की चर्चा है और यह प्रावधान है किन स्थितियों में इस कानून के जरिए सदस्यता समाप्त हो सकती है और किन स्थितियों में नहीं होगी। इस बारे में कानून अस्पष्ट है कि विभाजन की स्थिति में किस गुट को असली पार्टी माना जाएगा। वह विधायकों, सांसदों की संख्या के साथ साथ पार्टी के राष्ट्रीय संगठन, राष्ट्रीय पदाधिकारी और प्रदेश व जिला संगठनों के पदाधिकारियों की प्रतिबद्धता के आधार पर तय होगा। इसका वस्तुनिष्ठ तरीके से आकलन करके चुनाव आयोग को फैसला करना होता है। आयोग ने अपने फैसले में संगठन पर भी विचार किया लेकिन प्राथमिकता विधायकों, सांसदों की संख्या को दी। संगठन की उद्धव ठाकरे के लिए प्रतिबद्धता को उसने इस आधार पर खारिज कर दिया कि ठाकरे गुट ने बिना चुनाव के लोगों को पार्टी का पदाधिकारी बनाया, जो संविधान के अनुरूप नहीं है। अब सवाल है कि क्या एकनाथ शिंदे गुट ने अपनी पार्टी का जो संगठन बनाया है उसमें सारे पदाधिकारी चुने हुए हैं? उससे भी बड़ा सवाल है कि किस पार्टी के पदाधिकारी और सदस्य चुनाव के जरिए नियुक्त होते हैं? पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी मनोनीत ही होते हैं। लंबे समय के बाद कांग्रेस में एक अध्यक्ष का चुनाव हुआ है। लेकिन भाजपा के अध्यक्ष भी मनोनीत हुए थे और अभी उनका कार्यकाल बढ़ाया गया है। सो, न राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाते हैं और न प्रदेश अध्यक्ष चुने जाते हैं और न पदाधिकारियों का चुनाव होता है। हर पार्टी में पदाधिकारी सर्वोच्च नेतृत्व की मर्जी से नियुक्त होते हैं और उसकी मर्जी तक अपने पद पर बने रहते हैं।
अपने फैसले से चुनाव आयोग ने एक झटके में पार्टी संगठन का महत्व शून्य कर दिया है। शिव सेना जब टूटी और उसके विधायक व सांसद अलग होकर एकनाथ शिंदे के साथ गए तब पूरी पार्टी उद्धव ठाकरे के साथ थी। संगठन के इक्का दुक्का पदाधिकारियों को छोड़ दें तो लगभग सारे पदाधिकारी, प्रदेश ईकाई और जिला ईकाई उनके साथ थी। पार्टी का राष्ट्रीय कार्यालय और प्रदेश व जिला कार्यालय उद्धव ठाकरे गुट के नियंत्रण में थे। लेकिन आयोग ने इसे फैसले का आधार नहीं बनाया। इससे आयोग ने बहुत गलत मिसाल कायम की है। सोचें, 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सिर्फ 17 विधानसभा सीटों पर जीती थी और उस समय उसका एक भी लोकसभा सांसद नहीं था। अगर 17 विधायकों में से 12 विधायक अलग हो जाते तो क्या चुनाव आयोग मायावती की बजाय 12 विधायकों के गुट को असली बहुजन समाज पार्टी का दर्जा दे देता? कई बार पार्टियां को अच्छा खासा वोट मिलने के बावजूद ज्यादा विधायक और सांसद नहीं जीत पाते हैं। जैसे 2009 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के सिर्फ पांच सांसद जीते थे और 2010 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 22 विधायक जीते थे। अगर उसके पांच में से तीन सांसद और 22 में से 15 विधायक एक तरफ हो जाते तो क्या लालू प्रसाद से छीन कर चुनाव आयोग दूसरे गुट को असली पार्टी का दर्जा दे देता?
दलबदल अलग मामला है और पार्टी पर नियंत्रण का मामला बिल्कुल अलग होता है। वह इस बात से तय नहीं हो सकता है कि पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ कितने विधायक और सांसद हैं। बसपा का अभी सिर्फ एक विधायक है तो क्या वह विधायक अलग गुट बना ले तो असली बसपा हो जाएगा? या अकाली दल के सिर्फ दो विधायक हैं और वे अलग हो जाएं तो चुनाव आयोग उनको असली अकाली दल की मान्यता दे देगा? चुनाव आयोग ने इस फैसले से एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। उद्धव ठाकरे ने कहा है कि वे इस फैसले को चुनौती देंगे और सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। उम्मीद करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर वस्तुनिष्ठ तरीके से सुनवाई करेगा। साथ ही नबाम रेबिया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को भी इसकी रोशनी में देख कर बड़ी बेंच को भेजेगा। क्योंकि नबाम रेबिया मामले के फैसले का कैसा दुरुपयोग हो सकता है, वह महाराष्ट्र में देखने को मिला है। इस कानून के रहते कोई भी स्पीकर या डिप्टी स्पीकर को हटाने का नोटिस दे देगा और उसके बाद आसानी से दलबदल कर देगा क्योंकि इस कानून के तहत नोटिस पाया हुआ पीठासीन अधिकारी विधायकों की अयोग्यता पर फैसला नहीं कर सकता है।