बीते हफ्ते एक दिलचस्प बात हुई। अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी और लिबरल रुझान वाले टीवी न्यूज चैनल सीएनएन ने de-dollarization पर एक विशेष सेगमेंट प्रसारित किया। इस प्रसारण के ठीक एक दिन बाद रिपब्लिकन पार्टी समर्थक कंजरवेटिव न्यूज चैनल फॉक्स टीवी ने भी इसी विषय पर एक विशेष कार्यक्रम प्रसारित किया। इसमें दिलचस्प यह है कि दोनों चैनल इस चर्चा में समान निष्कर्ष पर थे। जबकि अमेरिका में ये दोनों चैनल परस्पर विरोधी मतों का प्रतिनिधित्व करते हैँ। उनमें किसी एक बात पर सहमति या समानता हो, ऐसा अक्सर नहीं होता।
बहरहाल, सीएनएन के कार्यक्रम में उसके जाने-माने टीकाकार फरीद जकरिया ने अपने दर्शकों को बताया कि विश्व कारोबार की व्यवस्था में de-dollarization यानी डॉलर का वर्चस्व खत्म हो गया, तो उसके कैसे बुरे नतीजे अमेरिका और वहां के लोगों को भुगतने होंगे। फॉक्स टीवी के कार्यक्रम में अमेरिका की पूर्व एसिस्टैंट ट्रेजरी सेक्रेटरी मॉनिका क्रॉवले ने बताया कि डॉलर का वर्चस्व खत्म होते ही मौद्रिक और वित्तीय मामलों में अमेरिका को दशकों से प्राप्त विशेष सुविधाएं खत्म हो जाएंगी। उन्होंने बताया कि उस स्थिति में महंगाई बेकाबू हो जाएगी, दुनिया पर अमेरिका का आर्थिक वर्चस्व खत्म हो जाएगा, और अमेरिका महाशक्ति की अपनी हैसियत खो देगा।
उसके बाद 30 मार्च को मशहूर ब्रिटिश अखबार द फाइनेंशियल टाइम्स ने एक विश्लेषण प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक थाः बहु-ध्रुवीय मुद्रा वाली दुनिया के लिए तैयार रहें। उसके पहले अमेरिकी टीवी चैनल सीएनबीसी पर बाजार विश्लेषक और रॉकफेलर इंटरनेशनल के चेयरमैन रुचिर शर्मा ने यह कह चुके थे कि ‘हम डॉलर के बाद की दुनिया की तरफ आगे बढ़ रहे हैं।’
ये सारी बातें दुनिया में आ रहे एक बड़े बदलाव का संकेत हैं, जिनके बारे में अनुमान तो काफी समय से था, लेकिन ये सारी घटना इतनी तेजी से होगी, इसका अंदाजा शायद किसी को नहीं था। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के समय तक जो लोग de-dollarization की बात करते थे, वे post dollar age (यानी डॉलर के बाद का दौर) आने में 20 से 30 साल तक के समय का अनुमान लगाते थे। लेकिन 2022 में यूक्रेन युद्ध के बाद जब पश्चिमी देशों- खासकर अमेरिका ने रूस की विदेशी मुद्रा में रखी गई 300 बिलियन डॉलर की रकम जब्त कर ली और रूस पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए, तो अचानक de-dollarization एक ऐसी परिघटना बन गया, जो 2023 आते-आते ठोस रूप ग्रहण कर चुका है।
पिछले साल एशिया से लेकर यूरोप और लैटिन अमेरिका तक में ये चर्चा तेजी से आगे बढ़ी कि अमेरिका ने अपनी मुद्रा डॉलर को रणनीतिक और सामरिक हितों को साधने का हथियार बना लिया है। जो देश उसके मनमाफिक आचरण नहीं करते, वह ना सिर्फ उन्हें डॉलर में भुगतान की विश्व व्यवस्था (स्विफ्ट) से बाहर कर देता है, बल्कि उसके डॉलर मुद्रा में किए गए निवेश पर भी डाका डाल देता है। रूस के पहले ईरान, वेनेजुएला और अफगानिस्तान इस अमेरिकी हथियार का शिकार बन चुके थे।
प्रतिबंधों के कारण रूस डॉलर से हट कर कारोबार करने पर मजबूर हुआ। उधर अन्य देशों ने संदेश ग्रहण किया कि समय रहते उन्हें भी अंतरराष्ट्रीय भुगतान वैकल्पिक व्यवस्था को ढूंढ लेना चाहिए। स्वाभाविक रूप से इसमें सबसे आगे चीन रहा है, जिसे घेरना और जिसकी ताकत को नियंत्रित करना पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका/पश्चिम की प्राथमिकता बनी हुई है। चीन के लिए यह संदेश ग्रहण करना अस्वाभाविक नहीं था कि जो सलूक आज रूस के साथ हुआ है, वह दिन दूर नहीं जब उसके साथ भी वैसा ही किया जाएगा। तो चीन भी de-dollarization को आगे बढ़ाने में सायास ढंग से जुट गया।
पिछला साल इस चर्चा में गुजरा कि डॉलर की जगह कौन-सी मुद्रा लेगी? चीन वैसे तो अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन अगर वस्तुओं के कारोबार की मात्रा पर गौर करें, तो वह इसमें नंबर वन है। लगभग 130 देशों का वह सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। ऐसे में चीन की मुद्रा युवान को रखना ठीक उसी तरह देशों को मुफीद लग सकता है, जैसा 1971 के बाद से अमेरिकी मुद्रा को रखना रहा है। ऐसे में युवान का अंतरराष्ट्रीय कारोबार की मुद्रा बनने का दावा सबसे मजबूत माना जाना चाहिए था।लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार के कर्ता-धर्ताओं की शिकायत है कि चीन में पूंजी नियंत्रण की सख्त नीति लागू है। ऐसे में वहां से अमेरिका की तरह मुद्रा का मुक्त प्रवाह संभव नहीं है। इसे युवान के विश्व मुद्रा बनने की राह में सबसे बड़ी रुकावट बताया जाता था।
लेकिन नई बनती दुनिया में ऐसा लगता है कि यह तर्क अप्रासंगिक हो गया है। पांच अर्थशास्त्रियों ने अपने एक ताजा शोधपत्र में कहा है कि पूंजी नियंत्रण की नीति युवान के रास्ते में बाधक नहीं है- बल्कि युवान एक बिल्कुल दूसरे रास्ते से सफर तय करते हुए विश्व कारोबार की मुद्रा बन सकता है। असल में विभिन्न देश इस कथित रुकावट के बावजूद युवान को अपनाने के लिए तैयार होते दिख रहे हैं।
इस दिशा में एक बेहद अहम घोषणा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पिछले महीने हुई रूस यात्रा (20-22 मार्च) के दौरान हुई। उनकी उपस्थिति में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन एलान किया कि अब रूस एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों के साथ अपना सारा कारोबार युवान में करेगा। चीन के साथ उसका सारा भुगतान पहले से इसी मुद्रा में हो रहा है। यह घोषणा इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि इसके पहले रूस अपनी मुद्रा रुबल में भुगतान की मांग विभिन्न देशों से कर रहा था। स्पष्ट है कि मार्च के तीसरे हफ्ते तक पुतिन इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि रूसी अर्थव्यवस्था और मुद्रा की वैसी हैसियत नहीं है कि अन्य देश उसे कारोबार की मुद्रा के रूप में स्वीकार कर लें। तो उन्होंने युवान को अपनाने का एलान किया।
इस घोषणा ने सारी तस्वीर बदल दी है। अब सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ब्राजील आपसी युवान को अपनाने पर राजी हो चुके हैं। लेकिन सबसे हैरतअंगेज खबर तो यह आई कि फ्रांस की ऊर्जा कंपनी टोटलएनर्जीज ने चीन के साथ अपने व्यापार में युवान में अपना पहला भुगतान किया है। इस तरह यह साफ होता जा रहा है कि जब तक आम सहमति से तैयार कोई नई विश्व मुद्रा अस्तित्व में नहीं आती, दुनिया के बहुत से देश युवान को वही हैसियत देने जा रहे हैं, जो अब तक डॉलर की रही है।
इनमें सऊदी अरब का रुख भी खास है। सऊदी अरब ने 1973 में एलान किया था कि वह सिर्फ डॉलर में कच्चा तेल बेचेगा। इसके साथ पेट्रो-डॉलर के चलन की शुरुआत हुई। जब दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादक देश ने सिर्फ डॉलर स्वीकार करने की शर्त लगा दी, तो बाकी सभी देशों के लिए अपने मुद्रा भंडार में डॉलर को रखना अनिवार्य हो गया। अब वही सऊदी अरब युवान में भी भुगतान स्वीकार करने की ओर आगे बढ़ चुका है।
इस बीच उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों का समूह ब्रिक्स (ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका) अपनी करेंसी तैयार करने की प्रक्रिया में जुटा हुआ है। रूस की ससंद ड्यूमा के उपाध्यक्ष अलेक्सांद्र बाबाकोव ने 30 मार्च को बताया कि ‘मौलिक रूप से एक बिल्कुल अलग मुद्रा’ तैयार करने की कोशिश की जा रही है। इसके ढांचे को ब्रिक्स के अगले शिखर सम्मेलन में पेश किया जाएगा। यह शिखर सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका के डरबन में इस वर्ष अगस्त में होगा। संभव है कि इस प्रस्तावित मुद्रा की कीमत सोना और अन्य महत्त्वपूर्ण खनिजों की साझा कीमत से जोड़ दी जाए- ठीक उसी तरह जैसे 1971 तक डॉलर की कीमत अमेरिका के भंडार में मौजूद सोने की मात्रा से तय होती थी। उस व्यवस्था को गोल्ड स्टैंडर्ड कहा जाता था।
बहरहाल, यहां असल बात यह नहीं है कि कौन-सी मुद्रा अपनाई जाएगी। महत्त्वपूर्ण यह है कि डॉलर से मुक्ति पाने की परिघटना ठोस और अधिक मजबूत होती जा रही है। इस परिघटना को गोल्डमैन शैक्स गुर्प के पूर्व अर्थशास्त्री जिम ओ’नील के एक ताजा शोधपत्र ने और बल प्रदान किया है। जिम ओ’नील की शोहरत ब्रिक (जो बाद में ब्रिक्स बना) की अवधारणा पेश करने वाला अर्थशास्त्री होने के नाते हैं। ओ’नील ने ही इसी की शुरुआत में सबसे पहले यह कहा था कि ब्राजील, रूस, भारत और चीन अब विश्व अर्थव्यवस्था इंजन होंग। अब उन्हीं जिम ओ’नील ने ही कहा है कि ब्रिक्स के सदस्य देशों को डॉलर का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि डॉलर की कीमत यथार्थ से कहीं अधिक बनी हुई है।
इसके अलावा भी कई प्रस्ताव चर्चा में हैं। इस प्रक्रिया की व्याख्या जिन बाजार अर्थशास्त्रियों ने की है, उनमें क्रेडिट सुइस बैंक के अर्थशास्त्री जोलटान भी शामिल हैं। उन्होंने अपने एक ताजा पेपर में कहा है- हम एक नई मौद्रिक विश्व व्यवस्था को जन्म लेते देख रहे हैं, जिसमें पूरब की कोमोडिटी आधारित मुद्राएं यूरो-डॉलर सिस्टम को कमजोर कर देंगी और उसका परिणाम पश्चिम में ऊंची महंगाई के रूप में सामने आएगा।
दरअसल, यह बात तो काफी समय से जाहिर हो रही थी कि डॉलर का वर्चस्व टिकाऊ नहीं है और आने वाले समय में दुनिया बहु-मुद्राओं में कारोबार करेगी। लेकिन अब ताजा घटना यह हुई है कि इस सच को पश्चिम में भी स्वीकार किया जाने लगा है। शी जिनपिंग की मास्को यात्रा के बाद तो अमेरिकी मीडिया में यह खबर छायी हुई-सी है। वहां इसके परिणामों पर चर्चा होने लगी है। जाहिरा तौर पर अमेरिका के नजरिए से सोचें तो इसके नतीजे भयानक होंगे।
फ्रांस के राष्ट्रपति द गॉल के शासनकाल में वहां के वित्त मंत्री जिस्कार दे’स्तां ने डॉलर के वर्चस्व को अमेरिका के लिए exorbitant privilege (असाधारण विशेषाधिकार) बताया था हैं। दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री इस बात का हवाला तब से देते रहे हैं। यह असाधारण लाभ यह रहा है कि अमेरिका बिना चिंता किए नोटों की छपाई करते रहने की स्थिति में रहा है। इसकी वजह यह रही है कि दुनिया के तमाम देशों की मजबूरी अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर को रखने की रही है। डॉलर की चाहत में वे अपने कहां उत्पादित मूल्य का एक हिस्सा डॉलर अमेरिका ट्रांसफर करते रहे हैं। तो अमेरिका सरकार 31.5 ट्रिलियन डॉलर के कर्ज और लगभग 95 ट्रिलियन डॉलर की अनफंडेड (जो धन उपलब्ध नहीं है) देनदारियों के बावजूद और नोट छाप कर अपनी अर्थव्यवस्था चलाने में सक्षम बनी रही है। दूसरी तरफ वह जब चाहे ब्याज दर बढ़ा या घटा कर सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल मचा देने में सक्षम रही है। यह सुविधा किसी और अन्य देश पास नहीं है।
यही exorbitant privilege अब खत्म होने के करीब है। जब यह हो जाएगा, तब अमेरिका को भी अपने हर खर्च का उसी तरह हिसाब-किताब रखना होगा, जैसा अभी बाकी देशों को रखना पड़ता है। तब उसके लिए संभव नहीं रह जाएगा कि वह यूक्रेन जैसे अपने प्रॉक्सी को जितना चाहे, उतने अरब या खरब डॉलर की सहायता देता चला जाए। दुनिया के लगभग 80 देशों में अमेरिका के तकरीबन 750 सैनिक अड्डे हैं। अभी उन अड्डों का खर्च चलाने के लिए अमेरिका डॉलर छाप कर उन देशों को भेज देता है। वे देश खर्च अपनी मुद्रा में करते हैं, जबकि डॉलर का वापस निवेश अमेरिकी ट्रेजरी बिल या बॉन्ड में कर देते हैं। इस तरह अमेरिका व्यवहार में बिना कोई खर्च किए उन अड्डों को बनाए रखने में सक्षम रहा है। लेकिन आगे यह मुश्किल हो जाएगा।
यह सारा घटनाक्रम उस समय हो रहा है, जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था महंगाई, घरेलू उपभोक्ताओं पर ब्याज दर बढ़ने के दुष्प्रभावों और अब बैंकिंग संकट के कारण मुद्रा पर बने दबाव के कारण मुसीबत में फंसती दिख रही है। उसी समय डॉलर के भविष्य को लेकर भी चिंता गहरा गई है। यही वह संदर्भ है, जिसमें फरीद जकरिया से लेकर फॉक्स न्यूज और रुचिर शर्मा तक अमेरिका की महाशक्ति की हैसियत खत्म होने का अंदेशा जता रहे हैं। फरीद जकरिया ने तो यहां तक कहा है कि (सैनिक और आर्थिक रूप से अमेरिका महाशक्ति का दर्जा खत्म हो चुकने के बाद) अब अमेरिका के विश्व वर्चस्व का एकमात्र आधार डॉलर की हैसियत है। लेकिन अब इसके अब टूटने के संकेत मिल रहे हैं।
अमेरिका और पश्चिम के लिए यह घटनाक्रम चिंता का विषय है। लेकिन बाकी दुनिया के लिए यह एक विशेष अवसर है। पिछले लगभग पांच सौ साल से पश्चिम के उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का शिकार रहे देशों के लिए इससे अपनी अर्थव्यवस्था को अपनी जरूरतों के मुताबिक ढालने का अनुपम मौका मिलेगा। जो संसाधन उन्हें साम्राज्यवादी सिस्टम को भेंट चढ़ाने पड़ते रहे हैं, वो जब उनके पास ही रहेंगे, तो जाहिर है कि अपने विकास और अपनी जनता की खुशहाली को सुनिश्चित करने के अवसर उन्हें मिलेंगे। वैसे, किस हद तक वो उस अवसर लाभ उठा पाएंगे, यह उनकी अपनी राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप और नेतृत्व के रुझान पर निर्भर करेगा।