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ताकि हिंदू मूल (मूल ढांचा) गंवा एनिमल फार्म की भेड़-बकरी बने!

इन दिनों भारत (हिंदुओं) को जानवरों का बाड़ा बनाने के कई प्रयास हैं! सर्वोपरि नंबर एक कोशिश मनुष्य दिमाग को ठूंठ बनाना है। दिमाग से बुद्धि, विचार, संस्कार और सत्य का सफाया करके उसकी जगह झूठ और अंधकार का उसे ऐसा आदी बना डालना है कि वह न तो मानव बनाम पशु का फर्क सोच सके और न बूझ पाए कि क्या सत्य और क्या झूठ! दूसरी कोशिश, लोगों को भयाकुल बना कर उन्हें आश्रित बनाने की है। तीसरी कोशिश अंधविश्वासों, मूर्खताओं के घर-घर संस्कार बनवा कर हिंदुओं को उस भक्तिकाल में लौटाना है, जब वे दिन-रात अवतारी राजा के ख्याल में आश्रित, गुलाम, नियतिवादी जीवन जीते थे। चौथी कोशिश, 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के मूल, उस बेसिक ढांचे पर सवाल खड़े करके, उसे खत्म कराना है, जिसे सैकड़ों सालों की गुलामी से निकले हिंदुओं ने बहुत मुश्किल से पाया है।

चौथी कोशिश बुनियादी और गहरी है। मोटे तौर पर यह कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट को गुलाम बनाने, संसद के बहाने प्रधानमंत्री को सर्वशक्तिमान ईश्वर अवतार बनवाने की एक फूहड़ शर्मनाक कोशिश है। एक तरह से हिंदुओं को उस मध्यकाल में लौटाना है, जब लाल किले का बादशाह जुल्म करता था तो वही किले के बाहर घंटा लटकाए जनता की फरियाद सुनने की नौटंकी भी बनवाए होता था।

इस मामले में ‘नया इंडिया’ में ही अपने डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने पिछले सप्ताह लिखा है। पूरे लिखे में उनका निर्णायक सवाल है कि भारतीय संविधान का ‘मूल ढांचा’ क्या है? ‘मूल ढांचे’ को संविधान की किस धारा में अमिट, अटल, और अपरिवर्तनीय लिखा है? और इसे सिर्फ अदालत को तय करने का अधिकार किसने दिया है?

कई लोग मानते हैं और मैं भी कुछ मामलों में मानता हूं कि सन् 1947 के बाद भारत का जो ढांचा, संविधान बना वह बिना मौलिकता के है। सनातनी हिंदू धर्म की बिना घुट्टी के है। इसलिए संविधान, व्यवस्था, व्यवस्थाओं के परस्पर संबंधों का पुनर्निर्धारण हो। ऐसे ही संसद क्योंकि जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था है तो वह कुछ भी करे उसके बनाए कानूनों को मानने के लिए न्यायपालिका बाध्य हो। यदि जनता की इच्छाओं-आकांक्षाओं के हवाले संसद के बहुसंख्यक भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करें तो ऐसा करना उनका अधिकार। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदू राष्ट्र का आधुनिक राजाधिराज हिंदू महाराणा घोषित करें तो यह भी संसद का अधिकार। यदि संसद बहुमत से मुसलमानों को विदेशी करार देकर उनका मताधिकार खत्म करे तो वह भी सही। मोटा मोटी न्यायपालिका द्वारा विधायका-कार्यपालिका के फैसलों में टांग अड़ाना, उन पर सुनवाई करना गलत है। बार-बार ‘मूल ढांचे’ के हवाले सरकार के फैसलों को गलत ठहराना अनुचित है तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने ही जजों की नियुक्ति भी गलत। जनता की प्रतिनिधि संसद और प्रधानमंत्री व उनके कैबिनेट को ही जजों की नियुक्ति का अंतिम अधिकार होना चाहिए।

सोचें, ईमानदारी से दिल पर हाथ रख कर सोचें, इस सबके पीछे की मंशा क्या है? वही जो हिंदू इतिहास में बारह सौ साल गुलाम बनाए रखने वाली सत्ताओं का चरित्र था। दिल्ली के तख्त पर जो बैठा, फिर भले वह राजा, बादशाह हो गवर्नर-जनरल सभी हिंदुओं पर राज करते सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ। फिर ऐसा होना धर्म, धर्माज्ञा या ब्रितानी संसद-सरकार के किसी भी फैसले से हो। असली मकसद और सूत्र यह कि प्रजापालक, लोकसेवक के नाम पर बादशाह और प्रधानमंत्री को जनता को गुलाम बनाए रखने, मनमानी के लिए सब कुछ मिला होना चाहिए। वह चाहे जो करे, उससे कोई जवाब नहीं मांगे। वह जवाबदेह नहीं होगा।

भारत के कई प्रधानमंत्रियों को यह चुभता रहा है कि भला संविधान के ‘मूल ढांचे’ की क्या बला, जिसके हवाले अदालत जवाब तलब करती है। नागरिक के प्रॉप्रर्टी अधिकार से लेकर बोलने की आजादी के फैसले लेती है। मेरा मानना है कि आजाद भारत के 75 वर्षों में रियल ‘अमृत’ तुल्य यदि कोई प्राप्ति है तो वह सन् 1973 के केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है। सुप्रीम कोर्ट के सात बनाम छह जजों के विचार मंथन के इस फैसले में इंदिरा गांधी ने कठपुतली संसद से नागरिक अधिकार की जो ऐसी-तैसी की थी, उसे सुप्रीम कोर्ट ने बहादुरी के साथ पलटा। वह भी तब जब बांग्लादेश युद्ध में जीत के बाद जनता और संसद इंदिरा गांधी को देवी दुर्गा करार दे रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला संविधान के ‘मूल ढांचे’ की स्थापना का था। इसके बाद फिर असंख्य बार सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता याकि कार्यपालिका-विधायिका की मनमानी के खिलाफ फैसले दिए। उन दिनों भाजपा नेता विशेषकर सुप्रीम कोर्ट की इस सक्रियता की तारीफ में बयान छपवाते घूमते थे। इस बात को इस तरह भी समझें कि कांग्रेस सरकार और उनके कोतवालों ने जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर जांच चलवाई तो बतौर उनके नागरिक, मानवाधिकारों के नाते अदालत-सुप्रीम कोर्ट ही था, जिसने ‘मूल ढांचे’ मूल आत्मा में मानव की गरिमा, मान-सम्मान का ख्याल किया। कल्पना करें, नरेंद्र मोदी, अमित शाह का यदि किसी राजा-बादशाह से पाला पड़ा होता तो क्या होता!

बहरहाल, 15 अगस्त 1947 की आजादी से हिंदुओं के दिमाग-बुद्धि में मानव चेतना, आजादी के भावों से उपजा बेसिक स्ट्रक्चर याकि ‘मूल ढांचा’ ही वह भारत ‘अमृत’ है जो सत्ता जहर का एंटीडोट है, जिसके कारण बारह सौ वर्षों की गुलामी के बाद हिंदुओं को आजादी के ‘मूल’ की जीवंतता का कुछ भान हुआ।

मेरा मानना है कि हिंदू क्योंकि अतीत, वर्तमान व भविष्य की रियलिटी में भारत का मूल है तो विचार हिंदू केंद्रित होना चाहिए। हां, 15 अगस्त 1947 के दिन हिंदू ही थे जो सपने लिए हुए थे! सपना था आजाद जीवन का! आधुनिक जीवन का! सवाल है हिंदू के आजाद-आधुनिक जीवन के सपने से क्या तात्पर्य? मेरा जवाब है- गुलाम, पशु, भेड़-बकरी जीवन से हिंदू की मुक्ति और मानव माफिक जीवन प्रारंभ! कोई माने या न माने पर हर हिंदू को मानना व समझना चाहिए कि हम हिंदुओं ने हजार साल गुलामी का वही जीवन जीया है जो भेड़-बकरी जीवन होता है। विदेशियों के लिए हिंदुस्तान चारागाह, शिकारगाह था। बाड़े में हिंदू बुद्धि उतनी ही काम करती थी, जितनी भयाकुल भेड़-बकरियों की करती है। तभी 15 अगस्त 1947 की भारत (हिंदू) आजादी पृथ्वी का इसलिए अपूर्व वक्त था क्योंकि इतने विशाल (सदियों पुराने) गुलाम बाड़े के आजाद होने की विश्व इतिहास में कोई दूसरी घटना नहीं है।

नोट रखें कि 15 अगस्त 1947 की हिंदू व मुस्लिम आजादी समतुल्य नहीं है। मुसलमान भी भारत में, हिंदुओं पर राज करते हुए अपनी मनमानी, आजादी में जीया है। उस नाते 15 अगस्त 1947 के बाद का भारत जीवन इसलिए भी हिंदुओं का ‘अमृत’ है क्योंकि ज्ञात इतिहास में पहली बार तो वह यह अनुभव करने, समझने में समर्थ है कि मनुष्य और पशु में क्या फर्क है। आजादी और गुलामी में क्या फर्क है? मनुष्य इसलिए जानवर नहीं होता क्योंकि वह अपना मालिक खुद होता है।

हां, मानव का मूल उसका स्वंयभू मालिकाना है। उसका निज सार्वभौम अस्तित्व है। यदि कोई मनुष्य बुद्धि-दिमाग के गुण, अस्तित्व, उसकी खुद्दारी, स्वतंत्रता, सार्वभौमता को गिरवी रखता है, गुलाम आचरण में जीता है तो वह मूल गंवाए हुए पराधीनता के दसियों भंवर में पशुगत जीवन लिए होता है।

इसलिए मनुष्य होने का मूल क्या? पशुओं से उसके अलग होने का मूल क्या? उसकी आजादी! इस आजादी ने ही मानव को आधुनिक काल में इतना समर्थवान बनाया जो वह अंतरिक्ष में बस्ती बसाने की उड़ान भरता हुआ है! किसी मनुष्य विशेष की एकल आजादी फल-फूल कर सुरक्षित तभी हो सकती है जब वह इसका ढांचा, परिवेश, बेसिक स्ट्रक्चर लिए हुए हो। अब यह अपने आप तो होने से रहा। न ही अकेले एक व्यक्ति के बूते की बात है। ऐसा होना सामूहिक चेतना के फैसलों से संभव होता है। मोटा मोटी मानव होना, इसकी पहचान उसकी आजादी में अंतर्निहित है। इसलिए आधुनिक इंसान के लिए बड़ी चुनौती है कि कैसे ऐसी व्यवस्था बने, जिससे उसे गुलाम, पशु जैसे न रहना पड़े। देश पशुओं का बाड़ा न बने। एनिमल फार्म न बने। उस पर गड़ेरियों का राज नहीं हो। लोक सेवा के नाम पर सत्तावान सत्ता से दमन न करे, मनमानी न हो, वह अकांउटेबल रहे। हर मनुष्य वह हथियार, वे अधिकार, वह हौसला, वह व्यवस्था लिए हुए हो जिससे सत्ता पर चेक हो तो वह उत्तरदायी-जवाबदेह भी हो।

याद करें, सैकड़ों सालों के गुलाम (फिर भले विदेशी आक्रांताओं, देशी सामंतशाही, राजे-रजवाड़ों की हो) हिंदू अस्तित्व में क्या कभी हिंदुस्तान के मूल बाशिदों को ऐसा मूल मानव जीवन प्राप्त हुआ, जिसकी व्यवस्था का बेसिक स्ट्रक्चर सत्ता को कभी उत्तरदायी बनाने वाला था? उस पर किसी और का भी याकि अदालत का चेक, अंकुश था?

तभी 15 अगस्त 1947 की आजादी के बाद संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर, ‘मूल ढांचे’, भारतीय संविधान की आत्मा की जो बात है वह दरअसल गुलाम हिंदुओं के आजाद होने से बनी मानव चेतना का रसायन है। हिंदुओं में पहली बार मानव गरिमा और अधिकारों के साथ उत्तरदायीपूर्ण व्यवस्था की चाहना बनी। उस नातेन्यायपालिका कम ही सही कुछ खरा उतरते हुए है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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