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संविधान ब्रह्मवाक्य नहीं है

उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान पर हमारे विपक्षी नेता बुरी तरह से बिफर पड़े हैं। कांग्रेसी नेता उन्हें भाजपा सरकार का भौंपू बता रहे हैं और उन्हें उपराष्ट्रपति पद की प्राप्ति ममता-विरोध के फलस्वरूप बता रहे हैं और कुछ विपक्षी नेता उन्हें आपातकाल की जननी इंदिरा गांधी का वारिस बता रहे हैं। जैसे इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत को 1975 में तहस-नहस कर दिया था, वैसा ही आरोप धनखड़ पर लगाया जा रहा है।

इस तरह के आरोप लगानेवाले यह बताएं कि इंदिरा गांधी की तरह धनखड़ को क्या किसी अदालत ने कटघरे में खड़ा कर दिया है? वे अपना कोई मुकदमा तो सर्वोच्च न्यायालय में नहीं लड़ रहे हैं। वे स्वयं प्रतिभाशाली वकील रहे हैं। वे प्रखर वक्ता भी हैं। उन्होंने यदि संसदीय अध्यक्ष सम्मेलन में संसद की सर्वोच्चता पर अपने दो-टूक विचार व्यक्त कर दिए तो यह उनका हक है। यदि वे गलत हैं तो आप अपनी बात सिद्ध करने के लिए जोरदार तर्क क्यों नहीं देते? आप तर्क देने की बजाय शब्दों की तलवार क्यों चला रहे हैं?

संविधान की पवित्रता और मान्यता पर धनखड़ ने प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है। उन्होंने जो मूल प्रश्न उठाया है, वह यह है कि सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है या संसद सर्वोच्च है? देश के सारे न्यायालयों में तो सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है। इसमें किसी को कोई शक नहीं है। लेकिन वह संसद से भी ऊँचा कैसे हो गया? संसद चाहे तो एक ही झटके में सारे जजों को महाभियोग चलाकर पदमुक्त कर सकती है। संविधान ने ही उसे यह अधिकार दिया हुआ है। जहां तक संविधान के ‘मूल ढांचे’ का प्रश्न है, किस धारा में उसे अमिट, अटल, और अपरिवर्तनीय लिखा है?

श्री वसंत साठे और मैंने तो लगभग 30 साल पहले देश में अध्यक्षीय शासन लाने का अभियान भी चलाया था। मैं तो आजकल चुनाव पद्धति का भी विकल्प ढूंढ रहा हूं। आप मूल ढांचे पर आंसू बहा रहे हैं, संसद चाहे तो पूरे संविधान को ही रद्द करके नया संविधान बना सकती है। क्या हमारा संविधान सर्वोच्च न्यायालय ने बनाकर संसद को थमाया है? सर्वोच्च न्यायालय तो अपने न्यायालयों के और अपने ही कई फैसले रद्द करता रहता है। उसके अपने फैसलों में सारे जजों की सर्वानुमति नहीं होती है।

‘मूल ढांचे’ के फैसले में भी सात जज एक तरफ और छह जज दूसरी तरफ थे। भारतीय संविधान का मूल ढांचा क्या है, इसे सिर्फ अदालत को तय करने का अधिकार किसने दिया है? यदि संसद चाहे तो वह एकदम नया संविधान ला सकती है, जैसा कि हमारे कई पड़ौसी राष्ट्रों में हुआ है। हिटलर के मरने के बाद जर्मनी ने डर के मारे जो प्रावधान अपने संविधान के लिए किया था, उसकी अंधी नकल हमारे नेता और न्यायाधीश क्यों करें? हमारे देश में हिटलरी चल ही नहीं सकती और हमारा संविधान इतना लचीला है कि पिछले सात दशकों में उसमें लगभग सवा सौ संशोधन हो चुके हैं। इसीलिए इतने उत्थान-पतन के बावजूद वह अभी तक टिका हुआ है लेकिन संविधान संविधान है, कोई ब्रह्मवाक्य नहीं है।

By वेद प्रताप वैदिक

हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।

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