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बुद्धिहीन-अशक्तकौम का दुकान सत्य!

क्या हम हिंदुओं का जीवन इतिहास दुकान आश्रित नहीं है? आप देश के कोने-कोने में घूम जाएं, जिधर देखो-उधर दुकान! जीवन जीने का व्यवहार खरीद-फरोख्त, लालच, धंधे की वृत्ति-प्रवृत्ति लिए हुए मिलेगा? हां, भारत में सत्ताऔर उसकी राजनीति भी खरीद-फरोख्त की भदेस दुकान है और उसमें सबकुछ बिकता है। धर्म-अध्यात्म के कर्मकांड लेन-देन हैं। शिक्षा दुकान है। चिकित्सा दुकान है। तमाम तरह की सेवाएं दुकान हैं। पूरी आर्थिकी का संचालन दुकान जैसा है। जाति और समाज की बुनावट वर्ग-वर्ण की गुमटियां है। बुद्धि, मीडिया, विचार, संस्थाओं और सुरक्षा याकि जीवन दिनचर्या की हर वह जरूरत उस दुकानी ताने-बाने पर आश्रित है, जिसके आगे आम जीवन बेचारा लाचारी, दीनता में या तो गिड़गिड़ाएगा या रिश्वत देता और जुगाड़ बैठाता मिलेगा।

ऐसा कोई दो हजार वर्षों से होता हुआ है। इक्कीसवीं सदी के वर्तमान में हिंदू जनमानस की सच्चाई को जाति व्यवस्था याकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के मनोविज्ञान से बूझें तो सभी अपनी-अपनी दुकानों की जिद्द लिए मिलेंगे। ऐसी जिद्द18-19 सौ साल पहले भी थी। मतलब सन् 300-400 में भी।जैसे आज पैसा, व्यापार, वैश्य-दुकान वृत्ति घमंड में खनकती हुई है वैसा पूर्व मध्यकाल में भी था। उस वक्त वह उथल-पुथल थी, जिससेसभी सामाजिक वर्ग या वर्ण अपने-अपने धर्म यानी निर्धारित कर्तव्यों से विमुख होने लगे थे। बकौल इतिहासकार रामशरण शर्मा- तीसरी चौथी सदियों के पुराण यह विलाप करते हैं कि निम्न वर्णों के लोगों ने उच्च वर्णों (ब्राह्मण-क्षत्रिय) का स्थान प्राप्त कर लिया। उन्होंने अपने कर्तव्य को त्याग दिया है। दूसरे शब्दों में उन्होंने टैक्स और श्रम के रूप में सेवा करना बंद कर दिया। इससे वर्णशंकर की स्थिति उत्पन्न हुई। जातियों के नए-नए मिक्स बने।

मान सकते हैं कि सन् 300-400 का भारत समय जहांपुराणों की कलियुग धारणा है वही ज्ञात इतिहास की सच्चाई में वह पूर्व मध्यकाल या अंध युग (Dark age) भी है। इस काल मेंही जाति व्यवस्था ने तनावों के कारणधर्म याकि मनुस्मृति से एक नई शक्ल पाई। सामाजिक अव्यवस्था के उस काल में सब अपने कर्म छोड़ बैठे। ब्राह्मण कर्मकांडी या राजा की कृपा से मंदिर के नाम पर भूस्वामी हुआ अन्यथा इधर-उधर भागा। वही क्षत्रिय की क्षत्रियता वर्णशंकर परिवर्तनों से तथा क्षत्रिय की जगह राजपुत्रों याकि राजपूतों के प्रतिष्ठित होनेसे लुप्त होने लगी। राजपूत स्वभाव कर्तव्यविमुख हो पीढ़ियों की विरासत में सत्ताभोगी हुआ। उधर वैश्यों-शिल्पकारों-किसानों-शुद्रों ने मौर्य काल के बाद के बिखराव, अव्यवस्था, अराजकता में न केवल ब्राह्मण-क्षत्रिय की अवज्ञा की, बल्कि टैक्स-लगान और दान-दक्षिणा देने की व्यवस्था को अंगूठा दिखाया।

नतीजतन बकौल इतिहासकार रामशरण शर्मा- इस संकट से उबरने के लिए कई उपाय किए गए। लगभग इसी काल की कृति मनुस्मृति में परामर्श है कि वैश्यों तथा शूद्रों को अपने-अपने धर्म से विमुख नहीं होने देना चाहिए।… उपाय यह भी था कि पुरोहितों तथा राज्याधिकारियों को दान-दक्षिणा तथा वेतन-पारिश्रमिक पैसे या जिंस के रूप में नहीं दिया जाएं, बल्कि भूधान द्वारा किया जाएं। मतलब इन्हें भूमि दी जाए ताकि भूपति फिर लोगों को अपने लेवल पर अनुशासित करें। ब्राह्मण-क्षत्रिय जमीन संभालते हुए लोगों को राजा की आज्ञा का पालन करने तथा करों की अदायगी का धर्म सिखाएं। हिसाब से यह नई व्यवस्था बुद्धि और शक्ति के काम से ब्राह्मणों व क्षत्रियों को भटकाना भी था। उन्हें भूमि की दुकानदारी की और धकेलना था।

जाहिर है भूमि अनुदानप्रथा आगे सामंती अर्थव्यवस्था का आधार बनी। नगर बाहर कुटिया, आश्रम बना कर चंद्रगुप्त को राजधर्म सिखाने वाले चाणक्य के वंशज भूमिदानपत्र ले कर बतौर खेतिहर पुरोहित, मंदिर अधिष्ठाता, महंत खेती और कर्मकांड कराने लगे। वैदिक युग में जो दार्शनिक, विचारक, अध्ययन-अध्यापन की वृत्ति ब्राह्मण मिजाज के लोगों के लिए सोची गई वह जमीन, धर्म-कर्म कांडों कीव्यापारी वृत्ति में कन्वर्ट हुई। उधर क्षत्रिय धर्म भी विदेशी हमलों की अनदेखी करते हुए अपने जमींदारे, रजवाड़ों की सीमाओं में स्वार्थों की छोटी-छोटी परस्पर कंपीटिटिव दुकानें लिए हुए था।

नई व्यवस्था, समाज परिवर्तनों का सर्वाधिक निश्चित फायदा वैश्य-शुद्र को हुआ। क्योंकि मंदिर-मठ-महल-किले के निर्माण-रखरखाव के काम हो या रेवेन्यू रिकॉर्ड, ऐशो-इशरत, जरूरत में बड़े-बड़े वणिकों तथा शिल्पियों पर निर्भरताबननी ही थी। उत्पादन-वितरण-सेवाओं सहित सभी आर्थिक गतिविधियों मेंवैश्य-किसान-शुद्र पर निर्भरता से एलिट वर्ग जहां परजीवी-शोषक बना,वही वह मूल कर्तव्य धर्म से भी भटका। ज्ञान की गंगोत्री छोटे-छोटे पोखरों में बदल गई और धर्म कर्मकांडी हो गया।

मेरा मानना है सन् 200 से लेकर सन् 800 के छह सौ सालों में भारत बुरी तरह जर्जर हुआ। इसकी पुराणों में कलियुग और इतिहासकारों में बतौर डार्कएज व्याख्या है। मौर्य राज्यव्यवस्था से गुप्तकाल की राज्यव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में वेपरिवर्तन हुए थे, जिससे समाज कर्तव्यों की व्यवस्थाओं से भटककर स्वार्थ, परस्पर सौदों और लेन-देन के व्यवहार में ढला। हिंदू की राज्यव्यवस्थाएं बिखरीं और वे छोटी-छोटी सीमाएं लिए हुए थी। राज की कोई धमक नहीं। सो राज्याज्ञाओं की पालना में अनुशासन की भी कोई चिंता नहीं। इतिहासकार रमेशचंद्र हाजरा के अनुसार कूर्म पुराण में कलि याकि कलियुग को लेकर जो लिखा है वह सन् 700-800 के लक्षणों को बतलाता है। इसमें लिखा है तब विदेशी हमलों, अस्थिरता, सामाजिक तनावों, संघर्षों तथा पाखंडी संप्रदायों और शिक्षाओं का बोलबाला था। कुषाण और सातवाहन राज्यों के पतन के बाद भारत में पुराने शहर मिटते हुए थे। सामाजिक उथलपुथल थी। तीसरी और चौथी सदी के आरंभिक वर्षों के पौराणिक लेखन में समाज के वर्गगत तनाव दो टूक उल्लेखित हैं। इनमें ब्राह्मण बनाम शुद्र का वैर लिखा हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति धार्मिक शब्दावली, सामाजिक तथा राजनीतिक मुहावरों में हुई है। सो, समाज में एक तरफ ब्राह्मणों-क्षत्रियों का वैश्व से तनाव तो ब्राह्मण व शूद्र आपस में टकराते हुए। हरिवंश पुराण का एक श्लोक है कि ब्राह्मण अपनी जीविका के लिए शुद्रों पर निर्भर थे। जाहिर है इतिहास के उस अंधकाल में ऐसा कुछ हुआ जो शूद्रों की स्थिति में भारी परिवर्तन हुआ। शूद्र भी संस्कार कराते थे और उनकी दान-दक्षिणा पर ब्राह्मण जीते थे।

सो, इन बातों का अर्थ नहीं है कि भारत की सामाजिक व्यवस्था में जातियों के सांचे और उनके परस्पर रिश्ते शुरू से अब तक लौह सांचों में जकड़े, जड़ रहे। ज्ञात इतिहास में पिछड़ी जातियों के राजाओं की हिंदू धर्म में अधिकता है। जैन-बुद्ध के वक्त से वैश्य हमेशा राजव्यवस्था के खजाने, देशी-विदेशी व्यापार, देशी-विदेशी शासकों और कंपनियों के कोषाध्यक्ष या उनके शौक, इच्छाओं, विलासिताओं की जीवन गंगा थे। अकबर महान का वित्त मंत्री टोडरमल पंजाबी वैश्य खत्री था तो राणा प्रताप के यहां भी भामाशाह पैसा लिए हुए थे। मुगल दरबार हो या अंग्रेज सभी विदेशी शासको के वक्त में हिंदुओं में से यदि किसी वर्ण ने न्यूनतम दीन-हीन जीवन जीया है और पैसे की ताकत से अपना जलवा बनाए रखा है तो वे वैश्य हैं।

इसलिए धन और सत्ता की साझेदारी का संस्कार, उससे होने वाले फायदे की हिंदू-वैश्य लालसा सामाजिक इतिहास का बाई-प्रोडक्ट है। मौर्य-गुप्तकाल सहित कुछ इलाकों के प्रतापी हिंदू राजाओं के वक्त के छोटे से आजाद हिंदू जीवन के वक्त को छोड़ें तो दो हजार वर्षों का कुल हिंदू जीवन गुलामी-दीनता की रियलिटी में गुजरा है, जिसमें अपवाद के वर्ण-वर्ग में वे मनसबदार और वैश्य याकि सामंत और नगरसेठ का श्रेष्ठि वर्ग था। वे शेष आबादी के लिए अनुकरण और ईर्ष्या दोनों के केंद्र में थे। इस बात की पुष्टि में कई इतिहास ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। यदि मौजूदा अनुभव को ही बतौर प्रमाण जांचे तो समाज की वर्तमान मनोवृत्तियों की बुनावट से सबकुछ झलकेगा। जातीय मनोविज्ञान को भी दरकिनार करें। सीधा-सपाट हिसाब लगाएं कि सन् 1947 के बाद लोगों ने भारत को क्या बनाया या उससे क्या चाहा? वह लोक मनोविज्ञान में कल्पवृक्ष और कामधेनु है। माईबाप सरकार। सब उस पर आश्रित। खाओ-खिलाओ। दुहो-दुहाओ। सौदों का एक एक्सचेंज। एक ऐसी लोकतंत्र रचना जिसमें लोकसेवा, चिकित्सा सेवा, शिक्षा सेवा, धर्म सेवा सब में खैरात, लूटो और खाओ-खिलाओ! फरमान, फाइल हो या सेवा सब दुकान वृत्ति में। सोचें, क्या राज्यव्यवस्था के तमाम अंग और कर्तव्य पैसे के लेन-देन, देने-लेने के सौदों से होते हुए नहीं हैं? क्या राजनीति खरीद-फरोख्त की दुकानदारी नहीं है? क्या धर्मऔर आस्था की दुकानें नहीं हैं? क्या अध्ययन-अध्यापन का काम दुकानों से होता हुआ नहीं है? इतना सब इसलिए कि इससे आसान हिंदुओं में जीविकोपार्जन का कोई दूसरा अनुभव व तरीका नहीं है। नदी किनारे घाट पर बोर्ड लगा कर ही बैठ जाओ, लहरे गिन कर और पांच मंत्र बोलने पर भी कमाई हो जाएगी।

सन् 200-300 से आरंभ हुए सामाजिक परिवर्तनों, वर्णशंकरता और कलियुग ने जहां जाति व्यवस्था केमकड़जाल बनाएवही राजनीतिक बिखराव और गुलामी, भूख और खौफ का वह मनोभाव भी बनाया, जिसके आगे पैसा रामबाण दवा की तरह था। तभी भूख, भय और भक्ति तीनों की वृत्तियों में अपने आप धन और वैश्य धर्म की महिमा स्थापित हुई। बाकी सब गौण। सेवा, स्वतंत्रता, स्वाभिमान, चरित्र, नैतिकता, बुद्धि-शक्ति, क्षत्रियता सब हाशिए में। प्रथम और सर्वप्रथम सिर्फ लक्ष्मीजी! क्योंकि पैसा है तो सब प्राप्त। पैसे से सत्ता, पैसे से धर्म और मोक्ष है तो कौम का धर्मात्मा होना भी। पैसे से वह सब संभव है जिसकी ताकत से मुगलों-अंग्रेजों के वक्त में जगत सेठ, राजा टोडरमल, भावजी वोहरा सहित तमाम तरह के रायजादे, रायबहादुर जैसे श्रेष्ठिजनों के लिए मलाई खाना लगातार आसान रहा। तभी अपनी जगह सत्य है कि सदियों की गुलामी में भी हिंदुओं के अमीर वैश्यों, दुकानदारों के वर्ग-वर्ण ने सर्वाधिक मलाई भोगी। वे ही दरबार में दखल रखने वाले और फैसलों-फरमानों को बनवाने वाले। प्रजा के लिए और विदेशियों के लिए भी। यह इतिहास और मनोविकास है तब भला आज की लुटियन दिल्ली की सत्ता औरश्रेष्ठि वर्ग का चरित्र दुकान से इतर कैसे हो सकता है!

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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