पहले की तरह इन्कम्बेंसी-एंटी इन्कम्बेंसी के भरोसे बैठे रह कर विपक्षी दल भाजपा को हराने की आशा नहीं रख सकते। भाजपा ने गुजरे नौ साल में लोगों की राजनीतिक पसंद को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी के सवालों से अलग करने में कामयाबी पा ली है।
उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों से एक बार फिर भारतीय राजनीति के बदले संदर्भ बिंदु की पुष्टि हुई है। विपक्ष को कम से कम अब इस नए रुझान से संदेश ग्रहण करना चाहिए। संदेश यह है कि पहले की तरह इन्कम्बेंसी-एंटी इन्कम्बेंसी के भरोसे बैठे रह कर वह भारतीय जनता पार्टी को हराने की आशा नहीं रख सकते। भाजपा ने गुजरे नौ साल में लोगों की राजनीतिक पसंद को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी के सवालों से अलग करने में कामयाबी पा ली है। ऐसा उसने अपने खास राजनीतिक एजेंडे के आधार पर किया है, जिसके साथ देश के शासक वर्ग का तारतम्य बन गया है। इस वर्ग के साथ होने के कारण भाजपा के पास तमाम तरह के असीमित संसाधन उपलब्ध हैँ। राजनीति में अक्सर पैसा और प्रचार की ताकत निर्णायक होते रहे हैं। आज इन मोर्चों पर विपक्षी पार्टियां भाजपा के सामने कहीं खड़ी नहीं हैं। जिन संवैधानिक संस्थाओं पर बहुत भरोसा किया जाता है, चूंकि उनके संचालक भी मुख्य रूप से समाज के ऊपरी तबकों से ही आते हैं, इसलिए उन संस्थाओं और भाजपा के राजनीतिक प्रोजेक्ट में आज एक खास तरह की समानता नजर आती है।
यह ऐसी स्थिति है, जिसे नजरअंदाज कर किसी चुनाव नतीजे को नहीं समझा जा सकता। इस परिस्थिति में विपक्ष राजनीति की समझ और शैली बदल कर ही अपनी भूमिका बना सकता है। इस दिशा में प्रयास होने के अभी तक सीमित संकेत ही मिले हैं। राहुल गांधी ने जरूर भारत जोड़ो यात्रा करके इस ओर पहल की, लेकिन अभी यह महज एक शुरुआत ही है। यह दरअसल, बहुत लंबी यात्रा होगी, जिसमें लोगों के साथ लगातार संवाद और संपर्क में रहना होगा। परिश्रम साध्य चुनौती को स्वीकार करने वाली राजनीतिक ताकत ही अपने विचारों को लेकर ऐसा जन समर्थन बना पाएगी, जिसका प्रभाव देश की राजनीति पर पड़ सके। फिलहाल चूंकि विपक्ष का पूरा ध्यान एक से दूसरे चुनाव पर टिका रहता है, इसलिए उसे बार-बार मायूसी हाथ लग रही है। इस कहानी के निकट भविष्य में बदलने के अभी तो कोई संकेत सामने नहीं हैं।