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तो कांग्रेस ही राजनीति का मानदंड है!

हर छोटे, बड़े मुद्दे पर अपनी कैफियत देने के बदले कांग्रेस के उदाहरणों के पीछे छिपना इसी का एक लज्जाजनक रूप है। संघ-भाजपा अपने विचारों को ‘यूज एंड थ्रो’ की शैली में थोक भाव में कूड़े में डाल रहे हैं। इस के लिए अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक, पुस्तिकाएं तक थोकभाव में हटा रहे है। भाजपा की ई-लाइब्रेरी में हजारों पुस्तकें हैं। पर उस में डॉ. हेडगेवार, गुरू गोलवलकर, नाना पालकर, एच. वी. शेषाद्रि, गुरूदत्त, या आचार्य रघुवीर की एक भी पुस्तक नहीं है। यानी अपने सब से महत्वपूर्ण, विचारशील नेताओं, संस्थापकों, पार्टी अध्यक्षों, विद्वानों के लेखन को ही अपदस्थ कर दिया। वे मामूली पुस्तकें नहीं थीं।…

बरसों से विचित्र दृश्य है कि भाजपा एक ओर ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की बात करती है, लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस ही उस के सिर पर चढ़ी हुई आदर्श प्रतीत होती है। मानो भाजपा को हर हाल में, हर चीज में, कांग्रेस की ही नकल करनी हो! न केवल विचारों, कामों में बल्कि तेवर, प्रतीक, बहानेबाजी, आदि हर चीज में।

अभी अडानी पर चर्चा में पहली दलील यही सुनने को मिली कि अंबानी के साथ कांग्रेस का क्या था? चीन के प्रति नीति पर प्रश्न उठने पर ‘नेहरू ने क्या किया था?’ का हल्ला  होता है। इसी प्रकार, दलित-प्रेम; कोष-लुटावन वोट-पटावन योजनाएं; पार्टी नेताओं के नाम सार्वजनिक बिल्डिंगों, सड़कों, संस्थानों, योजनाओं, आदि पर छापना; राजकीय धन का दुरूपयोग कर पार्टी प्रचार; अंध-नेताभक्ति; पार्टी चंदे का हिसाब देने से इंकार यानी संगठित भ्रष्टाचार; नियमित दलबदल करवाना; संस्थाओं का  दुरुपयोग; चुन-चुन कर विरोधी नेताओं को लपेटना रपेटना सताना; महत्वपूर्ण पदों पर पार्टीपरस्त नियुक्तियाँ; आदि। इन में कौन सी चीज है जिस में कांग्रेस की नकल नहीं है?

भाजपा नेताओं पर किसी कुनीति, बदजुबानी, तानाशाही, परिवारवाद, आदि के जो भी आरोप लगते हैं सब पर थोक उत्तर आता है कि ‘कांग्रेस ने क्या किया था’। अभी किसी ने लेख लिखा है, “राहुल गाँधी यह शिकायत बार-बार कर रहे हैं कि लोकतंत्र की सभी संस्थाओं पर भाजपा और आरएसएस के लोगों का कब्जा हो गया है। वह यह भूल रहे हैं कि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब इन संस्थाओं में उस के लोगों का कब्जा होता था। जैसे कांग्रेस ने सत्ता में रहते समय अपने लोगों को विभिन्न संस्थाओं में बैठाया, वैसे ही भाजपा कर रही है तो इस में गलत क्या है?”

सोशल मीडिया में तो यही दलील चंडूखाने की चीख-पुकार की तरह है। हर बात में कांग्रेस, इंदिरा, राजीव के हवाले देना अपने आप में संपूर्ण माना जाता है। लेकिन यदि कांग्रेस ही हर कार्य, नीति-अनीति का मानदंड है, तब स्पष्टत – १. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ एक फूहड़ नारा था, २. संघ-परिवार की पिछले दशकों की सारी राजनीति एक धोखा थी।

क्योंकि जनसंघ के समय से लेकर भाजपा के आरंभिक पंद्रह वर्ष तक, उन के नेताओं का मुख्य प्रचार मुस्लिम-तुष्टीकरण का विरोध, स्वदेशी-भारतीयता, तथा राजनीति में पारदर्शिता की माँग था। अडवाणी के  ‘पार्टी विथ ए डिफरेंस’ के दावे ने काफी मध्यवर्गीय लोगों को प्रभावित किया था। लेकिन आज भाजपा ठीक तुष्टिकरण, विदेशी-उन्मुखता, और गोपनीयता में कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ चुकी है। गर्व से कहती भी है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को ठगा था, जबकि संघ-भाजपा उन को भरपूर मालमत्ता, संसाधन आदि दे रहे हैं।

वस्तुतः कोई पार्टी अपने मूल नारों और उद्देश्यों से ऐसी नहीं पलटी है, जैसे कि भाजपा और आरएसएस। इस की चर्चा नहीं होती क्योंकि भाजपा ने ठीक कांग्रेसी-वामपंथी-जातिवादी विचार अपना लिए हैं। चूँकि यही तीनों धाराएं राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक चुनौती दे सकती हैं, इसलिए वे नहीं कहतीं कि भाजपा ने उन के ही विचार अपना लिए हैं! वे आज भी भाजपा को वही पुराने ‘हिन्दू-सांप्रदायिक’, ‘मुस्लिम-विरोधी’, आदि कहकर निंदित कर रहे हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में वही घिसा-पिटा प्रचार हुआ, जिस में अनेक सेक्यूलर, वामपंथी  महानुभाव शामिल थे।

विडंबना यह है कि यह झूठा प्रचार उलटे भाजपा को फायदा पँहुचाता है। इस से उस की हिन्दूवादी छवि बनी रहती है। जबकि वह हिन्दू-हितों को घूरे पर छोड़ कर मुस्लिमों, क्रिश्चियनों, और जातिवादी दलों के आधार में घुसने के लिए बेतहाशा संसाधन लगा रही है। इस तरह, भाजपा ने हिन्दू समाज के साथ जो विश्वासघात किया, वह आरोप रखने वाला भी कोई दल नहीं है।

बहरहाल, कांग्रेस, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, डीएमके, आदि कोई भी अपने मूल विचार, सिद्धांत, आदि पर ऐसे नहीं पलटे हैं। कांग्रेस तो बिल्कुल नहीं। तब भी जब उस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की ‘मुस्लिम-परस्त’ छवि सुधारने की जरूरत बताई। उलटे कांग्रेस ने अपने वरिष्ठतम नेताओं को भी सार्वजनिक फटकारा, जब वे कांग्रेस के पारंपरिक दृष्टिकोण से हटकर कुछ भी करते या कहते हैं। राष्ट्रपति रह चुके प्रणव मुखर्जी तक की कांग्रेस ने आलोचना की जब वे एक आरएसएस कार्यक्रम में चले गए थे। अर्थात्, कांग्रेस अपने मूल विचारों पर, नेतृत्व परंपरा तक पर डटी रही है। चाहे उस पर जितना भी मजाक उड़ता रहे।

किन्तु संघ परिवार ने अपने संस्थापकों, पूर्व सरसंघचालकों, अध्यक्षों तक के विचारों, भावनाओं को दरकिनार कर उन्हीं प्रणव मुखर्जी को अपना मार्गदर्शक बता दिया। उसी तरह, जिन मुलायम सिंह को कोस-कोस कर तीस बरस तक वोट लिया, अब उन्हीं को राष्ट्रीय आदर्श दिखाने में कोई संकोच नहीं है। यह सब कोई अपवाद उदाहरण नहीं हैं। संघ-भाजपा के नेता कितना भी अप्रत्याशित बयान क्यों न दें, कैसी भी हैरतअंगेज घोषणाएं और काम क्यों न कर डालें, इन का नेतृत्व बिलकुल ठस बना रहता है। उन्हें कोई ठेस नहीं लगती, जब दिखता है कि उन के नेता अपने संगठन या पार्टी की बुनियादी मान्यताओं, घोषित प्रतिज्ञाओं से कितनी दूर चले आए हैं।

हर छोटे, बड़े मुद्दे पर अपनी कैफियत देने के बदले कांग्रेस के उदाहरणों के पीछे छिपना इसी का एक लज्जाजनक रूप है। संघ-भाजपा अपने विचारों को ‘यूज एंड थ्रो’ की शैली में थोक भाव में कूड़े में डाल रहे हैं। इस के लिए अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक, पुस्तिकाएं तक थोकभाव में हटा रहे है। भाजपा की ई-लाइब्रेरी में हजारों पुस्तकें हैं। पर उस में डॉ. हेडगेवार, गुरू गोलवलकर, नाना पालकर, एच. वी. शेषाद्रि, गुरूदत्त, या आचार्य रघुवीर की एक भी पुस्तक नहीं है। यानी अपने सब से महत्वपूर्ण, विचारशील नेताओं, संस्थापकों, पार्टी अध्यक्षों, विद्वानों के लेखन को ही अपदस्थ कर दिया। वे मामूली पुस्तकें नहीं थीं। पहले उन्हें कई भाषाओं में अनुवादित कर प्रकाशित किया गया था। अब अधिकांश पुस्तकें लुप्त हो रही हैं। संघ-भाजपा की वर्तमान सामर्थ्य को देख साफ लगता है कि यह जानबूझ कर हो रहा है। भारत में किसी अन्य संगठन या पार्टी ने अपनी सैद्धांतिक निष्ठा से ऐसे मुँह नहीं फेरा है।

भाजपा-परिवार अपने मूल सिद्धांतों से पल्ला झाड़ कर कांग्रेस के ‘सेक्यूलरिज्म’ और ‘विकास’ पर काबिज होना चाह रहा है। उन के सर्वोच्च नेता कांग्रेसी, वामपंथी, जातिवादी विचारों और नेताओं से भी लिपट-चिपट रहे हैं। कभी किसी कांग्रेसी को अपना ‘संरक्षक’ कहते हैं, कभी किसी के लिए संसद में आँसू बहाने लगते हैं, तो कइयों को पुरस्कार देकर, यानी आदर्श बताकर, उन जैसा होने का संदेश दे रहे हैं।

क्या इस घोर अवसरवाद की समझ धीरे-धीरे खासी संख्या में विवेकशील लोगों को नहीं हो जाएगी?  यह कब तक छिपाया जा सकेगा कि जब कांग्रेस ही मॉडल है, तब नकली के बजाए असली में क्या बुराई थी या है? क्या इसीलिए संघ-भाजपा के नेता खुले प्रेस-कांफ्रेंस का सामना नहीं करते? जिस में देश-विदेश के पत्रकारों को स्वेच्छा से प्रश्न करने की छूट हो? शायद यही डर है कि एक ही बार में, चार-छः मुक्त प्रश्नों के उत्तरों और निरुत्तरों से ही सारा आडंबर उतर जाएगा।

अभी चुनावी और चौतरफा ‘मैनेजमेंट’ में भाजपा बहुत आगे दिख रही है। प्रचार का डंका बजा रही है। पर क्या इस से सैद्धांतिक गिरावट की भरपाई सदैव होती रह सकती है? क्या उन का संगठन केवल जुमलेबाजी, नाटक, तथा लोभ-लाभ व भय के लस्से से जुड़ा रहेगा? प्रायः विचार ही वह सीमेंट होता है, जिस से संगठन और संस्थाएं जुड़ी रहती हैं। संघ-परिवार अपने मूल विचारों को त्यागकर और कांग्रेसी तौर-तरीकों  से, यानी केवल सत्ता की गोंद से कब तक सीमेंट का काम ले सकता है, यह देखने की बात होगी।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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