सत्य लुटियन दिल्ली से उद्घादित है। वह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एक मीडिया प्रमुख अरूण पुरी की जुबानी। गौर करें लुटियन दिल्ली के श्रेष्ठिजन की सत्तावान राजा से यह करबद्धता कि- सर, दुकान नहीं चल रही है। जवाब में राजा नरेंद्र मोदी का यह सत्य वचन- चलिए, आज आपकी दुकान चला देता हूं। ये वाक्य क्या भारत की दुकान सच्चाई के पर्याय नहीं हैं? मेरा मानना है कि जैसे हर देश, कौम के अतीत व वर्तमान का एक सत्य होता है वैसे हिंदुओं का भी स्थायी सत्य है। हमारा शासन चरित्र कुल आबादी के तिनके जितने श्रेष्ठि वर्ग के परस्पर व्यापारी रिश्तों की दुकान है। मेरे लिए तुने क्या किया तो तुझसे मुझे क्या मिला इसके सौदों का कुल सत्ता चरित्र! वक्त भले दिल्ली में चेहरे बदले मगर सत्ता का दुकान चरित्र नहीं बदलता।
कभी भारत दिल्ली के लाल किले, चांदनी चौक और दरियागंज के एलिट वर्ग (दरबारियों-कोतवालों-व्यापारियों) से चलता था। फिर अंग्रेज आए तो रायसीना हिल से नई दिल्ली बसा कर नए एलिट, मतलब नए मनसबदार, आईसीएस अफसरों, रायबहादुर लोगों की अंग्रेजीदां दुकान बनवाई। 1947 में भारत ने आजादी पाई तो अंग्रेजों की छोड़ी लुटियन दिल्ली में नेताओं, अफसरों, व्यापारियों, ठेकेदारों, लाइसेंसधारियों, संस्थाओं के कलपुर्जों का वह नया सभ्रांत वर्ग पैदा हुआ जो कसम लोकतंत्र, लोकसेवा, स्वदेशी तथा स्वतंत्रता की खाता है लेकिन चरित्र वही जो मुगलों, अंग्रेजों की लेन-देन में था। प्रधानमंत्री, उसकी सरकार सर्वशक्तिमान, कृपानिधान, मालिक, माई-बाप और उसकी होलसेल कृपाओं की दुकान के संचालनकर्ता कारिंदे-अफसर, दलाल, सौदेबाजी में पारंगत व्यापारियों का श्रेष्ठि वर्ग। हर फरमान, हर फाइल स्वार्थ, लेन-देन की तराजू पर तुलता हुआ।
यों सभ्यताओं, नस्लों का शासक वर्ग-एलिट एक सा मिजाज लिए होता है। फिर भले वह लोकतंत्र, साम्यवाद, तानाशाही के अलग-अलग रंग-रोगन में क्यों न रंगा हुआ हो। मगर हम हिंदुओं की समाज रचना, और जात व्यवस्था के साथ दो हजार सालों के अनुभवों, खास कर बारह सौ सालों की विदेशी आक्रमणों की आंधी व गुलामी ने दिल्ली सल्तनत की एलिट दुकान का हल्का सा अलग मिजाज बनाया है।
हां, भारत की खूबी है गुलाम स्वभाव। इससे नस्ल में वह भूख, वह भय, वह भक्ति बनी की सत्ता और उसे भोगने वाला सत्ता वर्ग-एलिट सबके लिए सत्ता हर मामले में कृपानिधान है। सत्ता भगवान और शासक उसका अवतार। शासन का तरीका लाठी और कोतवाल। शासन व्यवस्था मतलब व्यापार, सौदा। तुम मेरी भक्ति करो, मुझे वोट दो मैं तुम्हे अच्छे दिन दूंगा। आजादी दूंगा। राशन दूंगा। पैसा दूंगा। समाजवाद दूंगा। लाइसेंस दूंगा। सरंक्षण दूंगा। तुम्हारी दुकान चला दूंगा।
तभी दिल्ली का राजा-महाराजा, बादशाह, वायसराय और प्रधानमंत्री युग-युगांतर से हिंदुओं के लिए कृपाओं का अधिष्ठाता, रेविड़यों का मालिक और नियामक है। सत्तावान भगवान पर कोई शर्त, मर्यादा, नियम-कानून लागू नहीं है। वह लाठी लिए हुए हिंदुओं का भाग्यविधाता है। ज्ञात इतिहास में क्योंकि विदेशी शासकों की निरंतरता रही तो उससे गुलामी की वास्तविकता में दुकान का चरित्र भी बहुत क्रूर, भदेस, शर्मनाक, बासी और नियतिगत होता गया। प्रजा में विद्रोह, बगावत या अवज्ञा तो दूर की बात राजा, बादशाह, प्रधानमंत्री के आगे सिर भी उठा सकना, खुद्दारी बता सकना असंभव सी बात। हिंदू एलिट और श्रेष्ठि वर्ग हमेशा हुकुम मेरे आका की अनुशासनबद्धता का पालनहार रहा।
तभी भारत की शासन व्यवस्था और सत्ता चरित्र हमेशा उन देशों से अलग रहा जो ज्ञान-विज्ञान और भौतिक उपलब्धियों के सिरमौर हैं। दिल्ली की सत्ता, उसके चरित्र में दृष्टि, विजन, लक्ष्य, संकल्प, विकास, पारदर्शिता, नैतिक मूल्यों, जीवन गुणवत्ताओं, बुद्धि-ज्ञान, बाहरी प्रगति के अनुभवों को आत्मसात करने जैसी कोई बात नहीं है। सब ढर्रे में रूढ़िबद्ध हैं। जागरण, पुनर्जागरण, समझदारी जैसी कोई बात नहीं। ले दे कर सत्य एक कि तुझसे मुझे, मुझसे तुझे क्या? पैसा दो, फरमान लो और धंधा करो।
मुगलों, अंग्रेजों ने धंधा किया-कराया और भरपूर मात्रा में लोगों को लूटा। इक्कीसवीं सदी का आधुनिक काल है और लोकतंत्र से बने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ सालों से लुटियन दिल्ली के मालिक हैं। क्या किया इन नौ सालों में? दुकानें बंद कराईं और दुकानें चलवाईं। साथ ही दिन-रात अपनी सत्ता की चिंता में और उस पर बैठे रहने के बंदोबस्तों की गवर्नेंस। अपनी कीर्ति, अपने नाम और अपनी महिमा के वे तमाम तौर-तरीके जिन्हें इतिहास में तुगलक, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब आदि सभी बादशाहों ने अपनाए। मनमाने फरमान, उत्सवों-जलसों की झांकियां, इमारतों के निर्माण और जगत के सर्वज्ञ राजा!
क्या मैं गलत हूं? क्या इतिहास लगातार रिपीट नहीं है? बादशाह अपने कोतवालों, मुंशियों से लाठी व गाजर के तौर-तरीकों से लाल किले-चांदनी चौक-दरियागंज के एलिट वर्ग को मैनेज करते थे तो नरेंद्र मोदी या उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री भी ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स, बैकों आदि से डंडा चलाते, गाजर बांटते देश नहीं चला रहे हैं? भारत की गवर्नेंस में है क्या? प्रजा के लिए लंगर, खैरात खुली हुई है। खरबपति और लाभार्थी पैदा किए जा रहे हैं। 140 करोड़ लोगों का लोकतंत्र मानों कल्पवृक्ष! लूट सके तो लूट। लोकतंत्र होते हुए भी निरंकुशता है। व्यवस्था होते हुए भी मनचाहापना है। सशक्तिकरण के बावजूद बेबस, लाचार व भक्तिमान प्रजा है। शिक्षा होते हुए भी अशिक्षित प्रजा। आधुनिक होते हुए भी अंधविश्वासी मानस। शक्ति होते हुए भी भय है। विकास की वैश्विक तकनीक, ज्ञान-विज्ञान, पूंजी होते हुए जुगाड़ और नकल है और सबका पुरुषार्थ इस जुगाड़ में बरबाद की दुकान चलती रहे। घटिया परफॉरमेंस, सेवा के बावजूद धंधा, मुनाफा और लूट चलती रहे। मुफ्त खाते रहे।
हां, ईमानदारी से सोचें आजाद भारत के दिल्ली और प्रदेश के सत्ता-प्रभु वर्ग के 75 साला शासकीय-एलिट व्यवहार पर गौर करें। सोचें कि वाशिंगटन, मास्को, बीजिंग, बर्लिन, लंदन, टोक्यो के शासक-एलिट-प्रभु वर्ग ने अपने मिजाज व क्षमताओं से देश को क्या शक्ल दी? वही पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी और इनके सत्तावान प्रभु वर्ग के लुटियन मिजाज से भारत की क्या शक्ल है? राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य, कला, शासन, शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिकी सब में क्या दुकानें नहीं खुली हुई हैं? खरीद-फरोख्त और धंधेबाजी नहीं है?
राष्ट्र निर्माण नहीं है, बल्कि गुलामी पूर्व का दुकान चरित्र अब सुपर बाजार, खरीद मॉल के विशाल फैलाव में परिवर्तित है। नीचे पंचायत स्तर तक दुकानों का स्तर है। अतीत नए रूप में साबुत है। सूरत, खंभात के गुजराती सेठों, पंजाब के खत्री सेठों, कोलकत्ता के मारवाड़ी सेठों, बंगाल-बिहार के जगत सेठों ने मुगल बादशाहों के साथ लूटने का जो व्यापारिक कौशल बनाया था वह अब देशी-विदेशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साझा दुकानों से 140 करोड़ लोगों का लूटता हुआ है। असंख्य ईस्ट इंडिया कंपनियां बनी हुई हैं, जो भारतीयों का सब कुछ खाते, चुराते हुए हैं। निजता से लेकर पैसा तक।
यह सब कैसे हुआ? धंधे व व्यापारी तासीर के कारण। पचहतर वर्षों में भारत के विकास के पर्याय बिड़ला-टाटा, अंबानी, अदानी जैसे खरबपति रहे हैं? ये सब क्या हैं सौ टका व्यापारी। कपड़ा-तांबा-स्टील उत्पादक हों या बंदरगाह-एयरपोर्ट चलाने वाले, रिफाइनरी से तेल निकालने वाले या फोन-इंटरनेट जैसी सेवाएं देने वाले तमाम खरबपति मुनाफे के धंधे से प्रेरित व्यापारी- कारोबारी-बिजनेसमैन हैं। अमेरिका ऐसे व्यापारियों से नहीं बना। अमेरिका बना उद्यमशीलता से। व्यापारी और उद्यमी में फर्क होता है। व्यापार तो धंधा, सूदखोरी, साहूकारी और मुनाफाखोरी की दुकान है। वह दुकान जो गुलामी काल में गांव-शहर-कस्बों में सूदखोरी व मुनाफाखोरी में लोगों को लूटने का माध्यम थी। इतिहास का सत्य है तुर्कों, मुगलों-अंग्रेजों की लूट का नंबर एक जरिया सामंत थे तो बादशाह से लेकर सूबेदार-सामंत सब का जरिया दुकानदार-व्यापारी मानिकचंद (जगत सेठ) जैसे सेठ थे।
भारत के 16-17 वीं सदी के मुगल दरबार और ईस्ट इंडिया कंपनी के कारोबार का यदि इतिहास पढ़ें तो समझ आएगा कि भारत के व्यापारियों ने बादशाहों के फरमानों से वैसे ही अपने एंपायर बनाए थे जैसे आजाद भारत में लुटियन दिल्ली की सत्ता को खुश करके अंबानी-अदानी खरबपति बने हैं। कोई फर्क नहीं है आगरा के शाहजंहा और लुटियन दिल्ली के नरेंद्र मोदी के दरबार में! शाहजहां के वक्त सूरत का एक महासेठ वीरजी वोहरा (VirjiVorah) था तो नरेंद्र मोदी के आधुनिक सत्ता बाजार से निर्मित गौतम अदानी खरबपति हैं। वीरजी वोहरा और उनके समवर्ती तमाम जगत सेठों का एंग्लो-बनिया गठजोड़ ही वह कारण था, जिससे लंदन की व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी दिल्ली की शासक बनी। इतिहास का वह सत्य रिपीट होता हुआ है जो आधुनिक रूप में भारत की व्यापारी कंपनियों के जरिए भारत का बाजार चाइनीज वर्चस्व का बंधुआ है।
भला क्यों नरेंद्र मोदी ने शी जिनफिंग को इतने झूले झुलाए? क्यों अदानी, अंबानियों या कि गुजराती व्यापारियों के इंफ्रास्ट्रक्चर, मशीनरी-पूंजीगत बंदोबस्तों, साजो-सामान और व्यापार में आयातित चाइनीज सामान पर सर्वाधिक निर्भरता है? इसलिए क्योंकि जैसे आगरा के शाहजंहा और उनके दरबारियों को समझ नहीं थी वैसे लुटियन दिल्ली के गुलाम हिंदू श्रेष्ठिजनों को यह समझ नहीं थी और है कि सत्ता का माई-बाप याकि दुकान चरित्र से राष्ट्र निर्माण नहीं होता है, बल्कि वह कौम की निर्भरता और गुलामी बनवाना है। मामले की गहराई में समाज के वर्णों और वृत्तियों का रोल भी है। इस पर कल। (जारी)