असम की हिमंता बिस्वा सरमा की सरकार बेटी बचाओ अभियान में लगी है और मुख्यमंत्री ने ऐलान किया है कि यह अभियान 2026 के विधानसभा चुनाव तक चलता रहेगा। सोचें, क्या किसी ने समाज सुधार की ऐसी किसी योजना के बारे में सुना है, जो इस तरह से सीधे चुनाव से जुड़ी हो! बहरहाल, बेटी बचाने का असम सरकार का अपना मॉडल है। इस मॉडल के तहत उन लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं, जिन लोगों ने 18 साल से कम उम्र की अपनी बेटियों की शादी की है और उन लोगों के खिलाफ भी मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, जिन लोगों ने 18 साल से कम उम्र की लड़कियों से शादी की है। शादी की कानूनी उम्र पूरी होने से पहले अपनी बेटियों की शादी करने वाले पिताओं के ऊपर जमानती धारा में मुकदमे हो रहे हैं और नाबालिग से शादी करने वाले लोग गैर जमानती धाराओं में गिरफ्तार किए जा रहे हैं। राज्य के अलग अलग इलाकों में 4,074 मुकदमे दर्ज हुए हैं और गिरफ्तार लोगों की संख्या बढ़ कर 2,278 हो गई है। सरकार के इस अभियान का ऐसा असर है कि दक्षिण असम की बराक घाटी और पश्चिमी असम के धुबरी जिले में करीब एक सौ ऐसी शादियां स्थगित हो गई हैं, जिनमें दुल्हन की उम्र 18 साल से कम थी। उन तमाम सरकारी दफ्तरों के आगे भीड़ बढ़ गई है, जहां उम्र प्रमाणपत्र बनता है या पुराने प्रमाणपत्र में तब्दीलियां होती हैं।
बाल विवाह रोकने या बेटी बचाने का हिमंता बिस्वा सरमा का यह मॉडल समाज में एक नए तरह का संकट खड़ा कर रहा है। खुशबू नाम की युवा विधवा, जिसके पति की मौत कोरोना महामारी के दौरान हो गई थी, उसने राज्य सरकार के इस अभियान से घबरा कर खुदकुशी कर ली क्योंकि 2012 में जब उसकी शादी हुई थी तब उसकी उम्र 18 साल से कम थी और इस आरोप में पुलिस ने उसके पिता के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया था। पिता 11 साल पहले जाने अनजाने में किए गए एक कथित अपराध में गिरफ्तार न हो जाएं, इसलिए खुशबू ने आत्महत्या कर ली। यह एक प्रतिनिधि घटना है, जो इस अभियान की कमियों की ओर इशारा करती है। हजारों अन्य युवतियां ऐसी ही मानसिक स्थिति से गुजर रही होंगी, जिनके पति और पिता इस अभियान का शिकार हो रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में बाल विवाह एक बड़ी सामाजिक समस्या है, जिसे रोकना बहुत जरूरी है। कम उम्र में शादी लड़कियों को कई तरह के बुनियादी अधिकारों से वंचित करती है। इससे उनकी शिक्षा प्रभावित होती है। कौशल विकास की संभावना प्रभावित होती है और उनके आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की संभावना पर नकारात्मक असर होता है। कम उम्र में शादी और उसके बाद कम उम्र में गर्भवती होने और बच्चा पैदा करने से मां और बच्चे दोनों की सेहत पर भी बुरा असर होता है। कम उम्र में लड़कियों की शादी करने और उन्हें शिक्षा व कौशल विकास से दूर करने का नतीजा है कि भारत की आधी आबादी का बड़ा हिस्सा मुख्यधारा की आर्थिक गतिविधियों से दूर हो जाता है। इसका बड़ा आर्थिक नुकसान देश को होता है। यह अगर एक बड़ी सामाजिक समस्या है तो साथ साथ बड़ी आर्थिक समस्या भी है। पीढ़ी दर पीढ़ी भारत में चलती आ रही गरीबी का एक बड़ा कारण लड़कियों की कम उम्र में शादी है। इस लिहाज से अगर कोई राज्य सरकार इस समस्या से निपटने के उपाय करती है तो उसका स्वागत होना चाहिए लेकिन वह उपाय हजारों लोगों का जीवन संकट में डालने वाला नहीं होना चाहिए।
असम सरकार ने जो तरीका निकाला है वह हजारों लोगों का जीवन संकट में डालने वाला है। परिवार और समाज के दबाव में जिन लड़कियों की शादी कम उम्र में हो गई है अगर पुलिस उनके पति को गिरफ्तार कर लेती है और पिता के ऊपर भी मुकदमा होता है तो फिर उन ब्याहता लड़कियों का क्या होगा? उनका जीवन कैसे चलेगा? उनके सामने जो आर्थिक संकट खड़ा होगा, उसका समाधान कौन करेगा? यह समझने के लिए बड़ा ज्ञानी होना जरूरी नहीं है कि आमतौर पर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में ही कम उम्र में लड़कियों की शादी होती है। उन्हें पालने, पढ़ाने और खर्च चलाने के बोझ से बचने के लिए माता-पिता कम उम्र में उनकी शादी कर देते हैं। उनका जीवन पूरी तरह से पति के ऊपर निर्भर होता है। अगर पति जेल चला जाएगा तो उनके लिए जीवन चलाना मुश्किल होगा। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार को इस पहलू का अंदाजा नहीं होगा लेकिन राजनीतिक कारणों से सरकार इसकी अनदेखी कर रही है।
राजनीतिक कारण यह है कि असम में कम उम्र में लड़कियों की शादी का रिवाज मुस्लिम परिवारों में बहुत प्रचलित है। तभी समाज सुधार का ऐसा जोश राज्य सरकार में दिख रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक असम में 44 फीसदी महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र पूरी करने से पहले हो गई थी। यह बड़ा आंकड़ा है लेकिन इससे भी बड़ा आंकड़ा राजस्थान का है, जहां 47 फीसदी महिलाओं की शादी 18 की उम्र से पहले हुई थी। आखिरी जनगणना यानी 2011 के आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में 46 फीसदी और बिहार में 43 फीसदी महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र पूरी करने से पहले हो गई थी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में ज्यादातर हिंदू परिवारों की लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले होती है। वहां भाजपा की सरकार होती है तब भी ऐसा कोई अभियान नहीं चलता है। लेकिन असम में ऐसा अभियान चल रहा है और अगले चुनाव तक चलता रहेगा। यह समाज सुधार नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज में सुधार का अभियान है। ध्यान रहे इसी तरह का समाज सुधार तीन तलाक के मामले में भी केंद्र सरकार ने किया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया पर उसके बाद केंद्र सरकार ने कानून बना कर तीन तलाक को अपराध बनाया। उस समय भी यह सवाल उठा था कि तीन तलाक अवैध हो जाने के बाद उसे अपराध बनाने का क्या मतलब है? अगर तीन तलाक बोलने के आरोप में किसी को गिरफ्तार कर लिया जाए तो फिर उसकी पत्नी और बच्चों का क्या होगा? लेकिन तब केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया था और अब असम सरकार ध्यान नहीं दे रही है।
यह इसके बावजूद हो रहा है कि भले कानूनी तौर पर लड़कियों की शादी की उम्र 18 साल तय कर दी गई है पर सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं बिल्कुल अलग हैं। हिंदू और मुस्लिम दोनों की धार्मिक मान्यताओं में यह उम्र सीमा तय नहीं की गई है। कानूनी रूप से भी शादी की उम्र और सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र में अंतर है। कई अदालती फैसलों में 18 साल से कम उम्र में शादी को मान्यता दी गई है। इस साल 11 जनवरी 2023 को कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक नाबालिग लड़की की शादी को हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के तहत अवैध घोषित करने की याचिका को खारिज कर दिया है। अगर धार्मिक नजरिए से देखें तो ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि मासिक चक्र शुरू होने के तीन साल के अंदर कोई पिता अगर अपनी पुत्री की शादी नहीं करता है तो लड़की को अधिकार होगा कि वह अपने लिए वर खोज कर खुद शादी कर ले। यह जानना दिलचस्प है कि 1891 में जब सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र सीमा 10 से बढ़ा कर 12 साल की गई थी तो व्यापक हिंदू समाज ने इसका बड़ा विरोध किया था और हिंदू धार्मिक व सामाजिक परंपराओं में दखल करार दिया था। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो 18 साल की उम्र सीमा को जबरदस्ती लागू कराए जाने के खिलाफ हैं।
तभी कहा जा सकता है कि अगर कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं होता तो असम की सरकार सामाजिक जागरूकता फैलाने का अभियान चलाती। लड़कियों की पढ़ाई पर ध्यान देती। उनके कौशल विकास की योजनाएं बनाती और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करती। यह प्रमाणित सत्य है कि शिक्षा ने लड़कियों को अनेक सामाजिक कुरीतियों से बाहर निकलने में मदद की है। वर्ष 2000 से 2010 के बीच असम सरकार ने लड़कियों की शिक्षा और किशोर उम्र की लड़कियों की जागरूकता बढ़ाने का अभियान चलाया और इस पर निवेश किया तो बाल विवाह की दर 47 फीसदी से घट कर 30 फीसदी हो गई। सरकार को इसी रास्ते पर चलना चाहिए। जोर जबरदस्ती का रास्ता कारगर होने की संभावना कम रहती है और पहले हुई घटनाओं में कार्रवाई करना तो और भी बुरा है।