यह मानव सभ्यता का इक्कीसवीं सदी का सवाल है। इसलिए क्योंकि मानव चेतना, उसके अक्षरब्रह्म का मशीन हरण करते हुए है। सोशल मीडिया और कृत्रिम बुद्धि दोनों इंसान के दिमाग का स्थानापन्न याकि रिप्लेसमेंट है। सोचें, क्या है मनुष्य होने का अर्थ? जानवर से उसकी क्या भिन्नता है? मोटा-मोटी अक्षर, शब्द और भाषा। यदि मनुष्य चेतना, उसकी खोपड़ी अपने शरीर की अनुभूति, सुख-दुख और स्मृतियों को शब्द, भाषा से व्यक्त, जाहिर नहीं कर पाए तो वह जैविक शरीर फिर किस काम का? यदि मनुष्य दिमाग अपनी तह सोचना बंद कर दे। कुंद, मंद, ठूंठ हो जाए और उसकी जगह एक-दूसरे की देखा-देखी व्यवहार में भेड़-बकरी जैसे स्वभावी हो जाए तब वैसा होना क्या मनुष्य का जानवर में कन्वर्जन नहीं होगा? क्या इंसान बिना बुद्धि, दिमाग, चेतना, संवेदनाओं और ज्ञान के मशीनीकृत व्यवहार में ढला हुआ तब नहीं माना जाएगा? सवाल है चेतना के मायने क्या? अपनी राय में वह बोध, वह अक्षरब्रह्म, जो मानव उत्पत्ति और सभ्यता के जन्मदाता है, जिसकी वजह से वह पशु, यांत्रिक और मशीनी नहीं है! यही मानव सभ्यता का सत्व-तत्व। जानवर और मनुष्य में आधारभूत फर्क का बिंदु। इससे मानव मष्तिष्क की तंत्रिकाओं की वह आत्मा, वह कुंडलिनी, वह चैतन्यता है जिसकी तरंगों और ताने-बाने का ऑपरेटिंग सिस्टम शरीर में जब चलता होता है तो अनुभूतियां दिमाग को शब्द बोध से कमांड देती हैं। स्मृतियां एक्टिव होती है और फिर भाषागत कोडिंग से वाणी और वीणा याकि अक्षर, ध्वनि और छवि की झंकार बनती है। वही दिमाग में विचार, चिंतन-मनन और सत्य शोधन व कर्म है!
और इस सबका इक्कीसवीं सदी में मनुष्य द्वारा ही निर्मित कृत्रिम बुद्धि से टेकओवर होना है!
जाहिर है ऐसा हुआ तो मनुष्य दिमाग बेसुध, अचेतन बनेगा।मशीनी कमांड से ऑटो मोड में वह ढलता हुआ हुआ होगा? मनुष्य खत्म और उसकी जगह मशीन मनुष्य को चलाती और कंट्रोल करती हुई।
हां, मनुष्य और मनुष्यता, मानव सभ्यता और संस्कृति सबके आधारभूत में तत्व है दिमाग की चैतनता का है। दिमाग का वह जैविक ऑपरेटिग सिस्टम, जिसका ताना-बाना, कोडिंग ध्वनि, शब्द और दृश्यों से क्रिया-प्रतिक्रिया में धड़कता है, जिसमें मेमोरी है। मन और मनन है। विचार है, एक्शन है। परिणाम है।
यह सब संभव हुआ आदि मानव, होमो सेपियन के उस जैविक जन्म से, जिसे अक्षर ब्रह्म की घुटी प्राप्त थी। यह भी कह सकते हैं कि सहस्त्राब्दियों पहले चिम्पांजी, होमो सेपियन की शरीर रचना में वह कोई बिजली कड़की होगी, जिससे दिमाग चैतन्य हुआ। किलकारी फूटी। शब्द बोध और भाषा के फूल खिले। दिल-दिमाग की चेतना और फीलिंग अक्षर ब्रह्म से अभिव्यक्त होने लगी। मनुष्य की स्मृति-श्रुति बनी। प्रकृति की सुध हुई। दिमाग खोजी और समझदार होने लगा। शब्द और भाषा में वेद रचा, श्रुति परंपरा बनी। ईश्वर की कल्पना हुई। जाहिर है यही मानव सभ्यता के अज्ञात-ज्ञात इतिहास का निचोड़ है। शब्द बोध से बनी मनुष्य की कहानियों से जनित ईश्वर, धर्म, ज्ञान, सत्य और विकास के सफर से आज की मंजिल है। इस सफर में देवताओं जैसी उपलब्धियां हैं, तो दानवी व्यवहार भी। राम है तो रावण भी। मगर सभी प्राप्तियां भाषा और शब्दों की माया! क्या गजब बात जो शब्द-भाषा की माया से बना मायावी जगत और उसमें देवता तथा असुर दोनों!
कल्पना करें अब मनुष्य का दिमाग, उसकी भाषा, भाषा से बनी कहानियों का काम मशीन करने लगे तो क्या होगा? कंप्यूटर मशीन, उसमें संग्रहित आर्टिफिशियल इंटेलींजेस याकि कृत्रिम बुद्धि वाला सॉफ्टवेयर यदि जैविक मनुष्य दिमाग के ऑपरेटिंग सिस्टम का रिप्लेसमेंट हो गया तब मानव समाज का क्या होगा? कल्पना डराने वाली है।
विकास की इस दिशा से दुनिया में मोटा मोटी लोग या तो लोग अनजान है या इसका मजा लेते हुए है। इंसान की चैतन्यता में यह पुरानी फितरत है जो वह जैविक शरीर की आवश्यकताओं में मशीनें बनाता जा रहा है। वह यह चाहता हुआ रहा है कि दिमाग के बोझ को हल्का, काम को आसान बनाने के लिए मशीनें बनाए। व्यवस्थाएं बनाए। वह सब करे, जिससे मनुष्य जात सामूहिक तौर पर ऑटो मोड में जिंदगी गुजारे। सब आसान होता जाए। पढ़ने-लिखने, ज्ञान-बुद्धि, सत्य जानने-खोजने के विद्यार्जन की मेहनत नही करने पड़े। वह मशीनों से ताकत पाए और आराम, मौजमस्ती तथा समद्धि से जीवन गुजारे।
इस चाहना, भूख और लालसा ने जहां विकास को उत्तरोत्तर बढ़ाया है तो विनाश को भी न्योता है। ज्ञात इतिहास में मनुष्य ने अपनी चेतन अवस्था में भी गुलामी, अत्याचारों वाला जो पशु जीवन जीया है और जितने युद्ध व नरसंहार झेले हैं वे सब विकास के बाई प्रोडक्ट हैं।
बहरहाल, पृथ्वी के आठ अरब लोगों का मौजूदा मुकाम बीसवीं सदी के मध्य तक अकल्पनीय था। मानव सभ्यता इन दिनों पांचवीं क्रांति या तकनीकी क्रांतियों के जिस कगार पर है उसमें इंसान अपने हाथों अपने अक्षरब्रह्म, अपनी चेतना, अपने दिमाग के कामों को यांत्रिक मशीन के हवाले करते हुए है। ताकि रेडिमेड दिमागी सॉल्यूशन मिले। सब कुछ मशीनी अंदाज में। संवाद, भाषा, शब्द और निर्णय आदि सभी पहलुओं में वह यांत्रिकता बन रही है, जिसके न प्रभावों की सुध है और न अंत परिणाम पर विचार या चिंता है।
तभी लोगों का सोचना-विचारना, सत्य जानना और खोजना कुछ ही चैतन्य मनुष्यों में सिमटता हुआ है। और ये चंद लोग निज भूख, लालसा में मनुष्यों को भीड़ और भेड़चाल में कनर्वट करने के नए तरीके बनाते हुए हैं। इससे मनुष्य प्रकृति, चेतना और मनोदशा में ठसपना आ रहा है। या तो दिमाग खाली होता हुआ है या खाली दिमाग शैतान का! व्यक्ति की वैयक्तिकता खत्म होती हुई है और वह भीड़, समूह में विलुप्त हो कर असंवेदक होता हुआ है। जिन समाजों और देशों में व्यक्तिगत आजादी, निजता का महत्व नहीं है और धर्म की समाज व्यवस्था का भेड़पना है वहां मनुष्य प्रकृति और चेतना संवेदनहीनता के साथ सोशल तकाजे में चौबीसों घंटे अज्ञान, अहंकार और पागलपन के मशीनी व्यवहार में ढलते हुए है।
हिसाब से मैं आज कृत्रिम बुद्धि याकि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर लिखने बैठा था। मैंने चैटजीपीटी लांच होने के बाद 140 करोड़ भारतीयों पर उसके भावी असर पर जो लिखा था उसी क्रम में मुझे आगे लिखना था। लेकिन भीड़ और सोशल तकाजे के प्रसंग में भारत के लोग क्योंकि सोशल मीडिया के सर्वाधिक आदी हैं तो भावी मशीनी बुद्धि के प्रभाव की झांकी भारत अनुभव में सप्रमाण समझ सकते है। पिछले सप्ताह अजीत द्विवेदी ने अपने कॉलम (राक्षस है भारत में सोशल मीडिया!- 5 मई 2023) में भारत की भीड़ के व्यवहार के जो उदाहरण दिए थे तो उसमें बताए दो उदाहरण के सार संक्षेप पर जरा गौर करें। -केजरीवाल ने 26 अप्रैल को एक ट्विट कर बताया- अभी सीमा भाभी (मनीष जी की पत्नी) से अस्पताल में मिलकर आ रहा हूं। उन्हें मल्टीपल सोरायसिस बीमारी है। उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूं।..इस ट्विट पर 7,495 कमेंट हुए। अपवाद के लिए एकाध को छोड़ दें तो सब के सब न्यूनतम मर्यादित मानवीय व्यवहार से गिरे हुए थे। एक बीमार महिला से मिलने गए एक पारिवारिक दोस्त को लेकर ऐसी अभद्र टिप्पणियां और ऐसे अश्लील मीम्स लोगों ने कमेंट में डाले हैं, जिसकी किसी भी सभ्य समाज में कल्पना नहीं की जा सकती है।……इसी तरह 26 अप्रैल को ही फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने एक ट्विट करके ‘इंटरनेट के अच्छे लोगों’ से मदद मांगी। पूछा कि यदि एक दो दिन में कोई अमेरिका के अटलांटा जा रहा हो तो बताए उन्हें एक छोटा सा पैकेट भेजना है, जो बहुत अर्जेंट है। लेख लिखते समय तक इस पर 1,306 टिप्पणियां आई। और अपवाद के लिए एकाध को छोड़ कर सबके सब स्वरा भास्कर के प्रति राजनीतिक और वैचारिक दुर्भावना से प्रेरित थीं। मदद ऑफर करने वाली एक या दो टिप्पणी थी बाकी सारी यह बताने वाली थीं कि छोटा पैकेट नशीले पदार्थों का हो सकता है, इसलिए कोई स्वरा पर भरोसा न करे।
सोचे, भारत के कथित पढ़े-लिखे, सोशल मीडिया की अभ्यस्त भीड़ की बुद्धि के शब्द, भाषा का यह प्रकटीकरण क्या मनुष्य प्रकृति के राक्षसी कन्वर्जन का प्रमाण नहीं है? व्यक्तियों की वैयक्तिक चेतना भीड़ का हिस्सा बन कर उससे संचालित, उसके अधीन है। व्यक्ति का मष्तिष्क याकि उसका ऑपरेटिंग सिस्टम भीड़ के नेटवर्क का महज एक एक्सटेंशन, खाली खोखा हो गया है। भीड़ के नेटवर्कों ने मनुष्य के अक्षरब्रह्म का टेकओवर कर लिया है। तभी वैयक्तिक टिप्पणी में भी न संवेदना है, न विवेक है और न मानव प्रकृति का सवेंदक सत्व। सो मनुष्य अपनी बुद्धि, बुद्धि के परिश्रम, ज्ञान-सत्य-विवेक को खत्म करते हुए है। संवेदनशीलता पर भीड़, सूमहों का रोडरोलर चला है। संभव ही नहीं व्यक्ति अपनी तह सत्य जाने, बूझे और अपना सत्य प्रगट करे। यह पुराना सत्य है कि भीड़ संवेदनशीलता को निगल लेती है। व्यक्ति के रिश्ते-संबंध स्वचालित-मशीनी बन जाते हैं। भीड़ यदि मशीन रूपी हो या किसी नेता, धर्मगुरू, तानाशाह, विचार से संचालित हो तब उसमें शामिल मनुष्य जाने-अनजाने या मजबूरी वश ऑटो मोड में ठूंठ, गंवार और संवेदनहीन होंगे।
तभी सोशल मीडिया मनुष्य चेतना और बुद्धि को ऑटोमोड में डालने वाला अंहम चरण है। ध्यान रहे सोशल मीडिया भी मशीनी बॉट्स औजार लिए हुए हैं, जिसके जरिए भीड़ का नेता या सूत्रधार प्रतिद्वंद्वी का चरित्रहनन करने के लिए नीच टिप्पणियां ऑटो मोड में डलवाता जाता है। सो, कुल मिलाकर बुनियादी सत्य आधुनिक तकनीक ने संवाद के सोशल मीडिया जरिए से भी मनुष्य प्रकृति, मानव व्यवहार को राक्षसी और भेड़चाल में बदला है। व्यक्ति चेतना की आत्मा अब बॉट्स की मशीनी शब्दावली से लिखी जाती हुई है। इस विकास के आगे अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मशीन के नए उभरते रूप है। तभी अब चिंतक, दार्शनिक और खुद वैज्ञानिक भी मनुष्य के राक्षसी बनने से ज्यादा मानव सभ्यता के खत्म होने का खतरा बूझ रहे हैं। इस सदी में मनुष्य अपने दिमाग को ताक पर रख कर मशीनी दिमाग पर आश्रित होगा। दिमाग काम करना बंद कर देगा। वह बिना सोचे-विचारे वैसे ही जीवन गुजारेगा जैसे मशीन कहेगी। जैसे मशीन के चंद मालिक चाहेंगे। वैयक्तिक और सामूहिक दोनों में व्यक्ति अपने आप, बिना जाने ठूंठ दिमाग और लुप्त चेतना का जानवर बनेगा। इस पर फिर कभी।