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अदानी भी सरकार हैं!

यह बात क्या आज लोगों के दिल-दिमाग में नहीं है? यदि नरेंद्र मोदी का नाम बतौर सरकार घर-घर में है तो अदानी भी भारत के घर-घर पहुंच गए है। राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और खुद नरेंद्र मोदी ने उन्हे घर-घर पहुंचाया है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री और खरबपति बतौर एक-दूसरे के पर्याय घर-घर चर्चित हैं। जब ऐसा है तो देश की राजनीति, सत्ता और विपक्ष के शक्ति परीक्षण के केंद्र में भी अदानी हैं।जैसे नरेंद्र मोदी के लिए 2024 का चुनाव जिंदगी-मौत का सवाल है वैसे ही गौतम अदानी के लिए भी है। एक क्षण के लिए कल्पना करें कि मई 2024 में नरेंद्र मोदी चुनाव हार जाएं, सरकार नहीं बना पाएं तबक्या होगी मोदी व अदानी की दशा?

उफ! सोचना भी दहला देने वाला है। तभी शक्ति और पैसे, लाठी और गाजर, नगर कोतवाल और नगर सेठ की साझा ताकत से भारत को जीतने का अगला चुनावी अश्वमेध है। वह कैसा होना है,इसकी कल्पना संभव नहीं है। साम, दाम, दंड, भेद के तमाम तरीकों और देश की कीमत तक पर लड़ाई लड़ कर उसे जीता जाएगा।

तभी इस सप्ताह की शरद पवार की सनसनी का खास अर्थ नहीं है। हैरान नहीं होना चाहिए कि शरद पवार ने क्यों अदानी की तरफदारी की? उन्होंने कांग्रेस, आप और राहुल-केजरीवाल से अलग सुर में क्यों बोला? और नतीजतनअब महाराष्ट्र में कैसे शरद पवार,उद्धव ठाकरे और कांग्रेस इकट्ठे लोकसभा चुनाव लड़ सकेंगे?

बेतुकी चिंता है। यह अदानी सरकार द्वारा लोगों का ध्यान भटकाने का वैसा ही फितूर प्रायोजन है जैसे मोदी सरकार आए-दिन हेडलाइन मैनेजमेंट से ध्यान हटवाने की सुर्खियां बनवाती है। बेसिक तथ्य है कि शरद पवार की कही बातें उस इंटरव्यू में हैं, जिसका इंटरव्यूकर्ता अदानी ग्रुप का नौकर है और उस एनडीटीवी से वह प्रसारित है, जिसे अदानी ने खरीदा है। सोचें, अदानी और अंबानी सेठों ने क्यों मीडिया और चैनल खरीदे हुए हैं? इसलिए ताकि वे वैसे ही अपने हित में प्रोपेगेंडा बनवाएं जैसे सरकार बनवाती है। मोदी सरकार और अदानी सरकार दोनों की दुकानों का साझा मकसद विरोध को खत्म करना है। यह बात निश्चित ही शरद पवार भी जानते हैं। बावजूद इसके उन्होंने अदानी के मीडिया को इंटरव्यू दे कर जेपीसी की मांग, हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर अपनी अलग राय रखी तो जाहिर है भारत की दुकानी राजनीति में शरद पवार का भी अपना मकसद होगा। सवाल है नेता का क्या मकसद होता है?सपाट जवाब है अपनी दुकान की वैल्यू बनाना। लोकसभा चुनाव के लिए जुगाड़ बनाना। कल्पना कर सकते हैं कि अदानी पर अपना सुर निकाल कर मोदी-अदानी की निगाह में, राहुल-उद्धव और पूरे विपक्ष में जैसा जो विचार है तो उस सबसे शरद पवार कीकैसी स्वार्थ सिद्धि होगी!

इसलिए शरद पवार का मामला झाग है। शरद पवार गुरू हैं। मोदी-अदानी गुजराती व्यापारी हैं तो शरद पवार पुराने खांटी मराठा। शरद पवार और उनके कुनबे ने इतनी गांठें बांधी हुई हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद वे शिखंडी बनें, यह असंभव है। मोदी सरकार और अदानी सरकार यदि आजाद भारत के इतिहास में अनहोने बनते हुए हैं तो वजह कुल मिलाकर वह कौरव चरित्र है, जिसमें एक इंच जगह किसी और के लिए नहीं है। जिन्होंने उद्धव ठाकरे या अंबानी के लिए भी जगह नहीं रहने दी तो भला कैसे संभव जो सामान्य मानविकी वाली राजनीति के लोग भविष्य के व्यवहार में मोदी सरकार, अदानी सरकार को बख्शने का ख्याल रखें। ये कितनी ही बड़ी सेना बना लें, कितना ही कुबेर बना लें, कितने ही साल राज कर लें, महाभारत का अंत नतीजा तो वही होगा जो अहंकार का हुआ था।

सो मोटी बात शरद पवार महाराष्ट्र की अपनी किलेबंदी में ढीले नहीं पड़ने हैं। वे उद्धव ठाकरे, कांग्रेस और एनसीपी से साझे में चुनाव लड़ने की रणनीति में डटे रहेंगे। यों दुकान में वह हर संभव कोशिश है, जिससे शरद पवार, उद्धव ठाकरे और राहुल गांधी में परस्पर अविश्वास बने। हिसाब से प्रायोजित इंटरव्यू में शरद पवार का यह कहना गलत नहीं था कि जेपीसी की जांच से होना क्या है? जेपीसी से ज्यादा कोर्ट की जांच ठीक या हिंडनबर्ग का क्या मतलब है? इससे कोई अदानी के पुराने दिन लौटेगें? कतई नहीं। असलियत में शेयर बाजार, वैश्विक प्रतिक्रिया और राहुल गांधी के लोकसभा तथा अरविंद केजरीवाल के दिल्ली विधानसभा में दिए भाषण से अदानी सरकार पर कालिख पुत गईहै। सोचें, क्यों भला दुनिया ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर विश्वास किया? अदानी ग्रुप के बाजे बचाए? ऐसे बाजे कि अब पता ही नहीं है कि गौतम अदानी दुनिया के खरबपतियों में कहां हैं! जेपीसी, अदालत जांच, सीबीआई-ईडी जैसी भारत की जांचों का अर्थ बचा हीनहीं है जब वैश्विक वित्तीय बाजार ने अपनी तह खुद सबकुछ समझ कर दुनिया के नंबर दो खरबपति को बदनामी-गुमनामी में धकेलदिया है। वही सच भारत में भी घर-घर अदानी के नाम के साथ पहुंचा हुआ है। लोग अपने आप महंगाई, बरबादी-बेहाली में उस अदानी का नाम लेते हैं, जिसके विवाद के साइड इफेक्ट में घर-घर नरेंद्र मोदी की डिग्री तक चर्चा अब है तो यह नैरेटिव भी कि यदि पढ़ा-लिखा प्रधानमंत्री होता तो क्या यह सब होता जो हुआ हैं!

मेरा मानना है नरेंद्र मोदी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि उनकी सरकार के नौवें साल में गौतम अदानी सरकार की वे प्रतिछाया बनेंगे। और उन्हे क्या-क्या करना पड़ेगा!मतलब राहुल गांधी का लोकसभा में दिया भाषण रिकॉर्ड से हटवाना पड़ेगा! संसद का पूरा बजट सत्र बरबाद! राहुल गांधी की सदस्यता खत्म। अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उन्हें झूठी डिग्री का बेपढ़ा बताएंगी तो दिल्ली विधानसभा में वह केजरीवाल का वह भाषण अंकितजो न केवल इतिहास का साक्ष्य होगा बल्कि जिसे झुठलाने के लिए किसी तरह की जांच करवा सकनाभी संभव नहीं।

क्या यह सब अदानी सरकार का मोदी सरकार पर बोझ नहीं है? वह बोझ जिसके भार में नरेंद्र मोदी की पूरी राजनीति अब राहुल, केजरीवाल, आप, कांग्रेस याकि विपक्ष को गालियां देने वाली हो गई है। 140 करोड़ लोगों के लोकतंत्र में अब एक भी वह मंच नहीं है जहां पक्ष-विपक्ष में तनिक भी संवाद संभव।

हिंडनबर्ग रिपोर्ट से पहले गौतम अदानी सिर्फ एक खरबपति थे। दुनिया के खरबपतियों की लिस्ट का एक सेठ। मगर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद वे क्याहैं? वह धनपति सरकार, जिसने अपनी दादागिरी, अपने जादू-मंतर से वह एपांयर रचा, जिसे हिंडनबर्ग ने जरा सी सुई चुभाई तो सारा वैश्विक जलवा हवा हवाई!

इस अनुभव नेही घर-घर में अदानी का रूतबा या बदनामी सरकार जैसी बनाई है। अदानी पर लोगों का सोचना ललित मोदी, नीरव मोदी या मेहुल चौकसी जैसे नहीं है, बल्कि उस सरकार जैसे है, जिसका बाल बांका नहीं होगा। जो कुछ भी करने-कराने में समर्थ।

हां,राहुल गांधी को सूरत की अदालत से मिली सजा तथा लोकसभा की सदस्यता खत्म होने, घर खाली कराने के नोटिस, संसद सत्र की दशा से लेकर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नैरेटिव ने घर-घर न केवल मोदी-अदानी की साझा तस्वीर लोगों के दिमाग में उतारी है, बल्कि यह भी धारणा है कि न मोदी हारने वाले हैं और न अदानी का बाल बांका होगा।

इसलिए स्वाभाविक जो मोदी सरकार व अदानी सरकार काएक सा निश्चय, एक से लक्ष्य आगे दिखते जाए।मोदी सरकार के साथ अदानी सरकार भी विपक्ष को मारने, खरीदने में एक और एक ग्यारह की ताकत से दिन-रात एक किए रहेंगे।उस नाते तय मानें कि सन् 2024 की 18वीं लोकसभा का चुनाव मतदाताओं को खरीदने का सर्वाधिक महंगा चुनाव हो। नाममुकिन नहीं जो2024 के महाभारत में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल दोनों उस अभिमन्यु की तरह हों जो चुनाव से पहले ही चक्रव्यूह में दम तोड़ दें। जेल में सड़ें।

मगर खतरा कैच-22 का भी है। मुमकिन है मोदी-अदानी जितनी कोशिश करेंगे उतनी ही घर-घर चर्चा बने। विपक्ष एकजुट होता जाए। यदि राहुल गांधी व केजरीवाल ने कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र से जनता को यह वायदा कर दिया कि चुनाव जीतने पर वे अदानी-अंबानी जैसे क्रोनी एंपायरों का राष्ट्रीयकरण करके हर नागरिक के खाते में बीस-बीस हजार रुपए जमा करेंगे तो वह माहौल भी बन सकता है जो 2014 में नरेंद्र मोदी ने15-15 लाख रुपए खातों में जमा कराने जैसे वादों से बनाया था! जब भारत का लोकतंत्र लेन-देन की दुकान हो ही गया है तो अदानी के पैसों को बांटने का सौदा जनता को लुभाने वाला भी निश्चित होगा।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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