आम आदमी पार्टी के विस्तार के रास्ते में एक बार फिर बाधा आती दिख रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद आम आदमी पार्टी की मुश्किलें बढ़ेंगी और किसी नए राज्य में उसके विस्तार का रास्ता बंद होगा या कम से कम उसकी रफ्तार धीमी होगी। ऐसा होने के कई कारण हैं। सबसे पहले तो आम आदमी पार्टी के छोटे से राजनीतिक इतिहास को देखें तब भी समझ में आएगा कि पहले चुनाव से ही जिन राज्यों में उसका राजनीतिक असर बना और दिखा था उन्हीं राज्यों में वह आगे बढ़ पाई और नए राज्यों में राजनीतिक जमीन हासिल करने का उसका हर प्रयास विफल रहा। पार्टी बनने के बाद पहले चुनाव में यानी 2013 के दिल्ली विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे सिर्फ दिल्ली और पंजाब में कामयाबी मिली थी और हैरानी नहीं है कि पार्टी उसके 10 साल बाद भी सिर्फ इन्हीं दोनों राज्यों में सफल हो पाई है। गुजरात में जरूर उसको 13 फीसदी वोट मिले हैं लेकिन वह एक तरह का भटकाव या एबेरेशन है, जिसका असर अब खत्म हो गया है और हैरानी नहीं होगी अगर आने वाले चुनावों में कांग्रेस का वोट उसके पास वापस लौट जाए।
ध्यान रहे आम आदमी पार्टी के गठन के बाद उसने दिसंबर 2013 में पहली बार दिल्ली में विधानसभा का चुनाव लड़ा था और उसको 28 सीटें मिली थीं। तब 32 सीट के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। भाजपा की सरकार बनने देने की बजाय कांग्रेस ने अपने आठ विधायकों का समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवाया था। उसका खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को सिर्फ चार सीटें मिली थीं और वह भी पंजाब में। वहीं पर फिर उसे 2017 के विधानसभा चुनाव में आंशिक कामयाबी मिली और 2022 के चुनाव में पूर्ण कामयाबी मिली। सो, ये दो राज्य ऐसे हैं, जहां आम आदमी पार्टी के पैर जम गए हैं। इसके अलावा किसी नए राज्य में किसी भी चुनाव में उसे कामयाबी नहीं मिली।
इस भूमिका के बाद अब कर्नाटक की बात करते हैं। कर्नाटक में आम आदमी पार्टी ने 168 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। उस पार्टी की राजनीति को समझने वाले किसी भी व्यक्ति को नतीजों से हैरानी नहीं होनी चाहिए। उसके सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। आम आदमी पार्टी को सिर्फ 0.58 फीसदी वोट मिले, जबकि नोटा को 0.69 फीसदी वोट मिले। यह सही है कि चुनाव प्रचार में अरविंद केजरीवाल नहीं गए थे लेकिन उससे पहले उन्होंने खूब जोर लगाया था। वे पंजाब के अपने मुख्यमंत्री भगवंत मान को लेकर कर्नाटक गए थे और बेंगलुरू में सभा और रोड शो किया था। बेंगलुरू महानगर है और उसका चरित्र काफी हद तक दिल्ली से मिलता जुलता है लेकिन वहां भी पार्टी को कोई कामयाबी नहीं मिली। पिछले साल के अंत में गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश के भी चुनाव हुए थे, जहां आम आदमी पार्टी 67 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। राजधानी शिमला सहित सभी सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई थी। उसको सिर्फ 1.10 फीसदी वोट मिले थे। वहां उसका प्रदर्शन नोटा से थोड़ा बेहतर था। पिछले ही साल उत्तराखंड में पार्टी सभी 70 सीटों पर लड़ी थी। हर सीट पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुए थी और पार्टी को महज 3.31 फीसदी वोट मिला था।
आम आदमी पार्टी की राजनीति का एक दूसरा फीचर यह है कि वह सिर्फ उन्हीं राज्यों में लड़ने जाती है, जहां कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई है। पंजाब इसका अपवाद है लेकिन चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में इस राज्य में उसको सफलता मिल गई थी इसलिए उसने वहां फोकस किया। उसके अलावा उसका ध्यान कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई वाले राज्यों पर होता है। इसका कारण यह है कि भाजपा से ज्यादा आम आदमी पार्टी उसके कांग्रेस मुक्त भारत के नारे पर विश्वास करती है। उसको लगता है कि भाजपा के प्रचार और राजनीतिक अभियान से कांग्रेस कमजोर होगी तो उसकी जगह आम आदमी पार्टी आ सकती है। इसलिए वह भाजपा के अभियान में हर जगह मदद पहुंचाने पहुंच जाती है। भले उसका योगदान रामसेतु निर्माण में गिलहरी के योगदान के बराबर हो लेकिन वह योगदान करती जरूर है। इसलिए अगर कर्नाटक के चुनाव नतीजे से कांग्रेस मजबूत होती है, उसकी राजनीति ट्रैक पर लौटती है, उसके खत्म होने और देश के कांग्रेस मुक्त होने का नैरेटिव स्थगित होता है, राहुल गांधी की ‘पप्पू’ छवि टूटती है तो भाजपा से ज्यादा आम आदमी पार्टी को निराशा होगी और नुकसान होगा।
अगर कांग्रेस कर्नाटक में नहीं जीत पाती तो इस साल के अंत में होने वाले तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में उसका अभियान कमजोर पड़ता। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल गिरता। पार्टी छोड़ने वालों की होड़ लग जाती। ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी अगर इन राज्यों में चुनाव लड़ने पहुंचती तो उसे बड़ा रिस्पांस मिलता। लेकिन कर्नाटक के बाद वह हो सकना संभव नहीं दिख रहा है। हालांकि इसके बावजूद केजरीवाल की पार्टी वहां चुनाव लड़ने जरूर जाएगी। वह कांग्रेस को हराने के भाजपा के अभियान में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद जरूर करेगी क्योंकि उसको पता है कि कांग्रेस हारेगी तभी उसकी जगह आप आगे बढ़ेगी। लेकिन कर्नाटक का चुनाव उसके रास्ते की बाधा बन गया है। कर्नाटक के बाद कांग्रेस ज्यादा उत्साह से लड़ेगी। उसके नेताओं को लगने लगा है कि मेहनत की जाए तो भाजपा को हराया जा सकता है। कांग्रेस का यह कांफिडेंस लौटना आप के लिए मुश्किल वाली बात है।
कर्नाटक में एक और घटनाक्रम हुआ कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में बजरंग दल पर पाबंदी लगाने का ऐलान किया। इससे राज्य का मुस्लिम मतदाता पूरी तरह से कांग्रेस के पीछे गोलबंद हुआ। जेडीएस के हाशिए में जाने का एक कारण यह भी रहा। कांग्रेस की इस घोषणा का असर देश भर के मुस्लिम मानस पर होगा। दूसरी ओर केजरीवाल की पार्टी ने गुजरात में बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई पर कहा था कि यह उनका मामला नहीं है। इससे मुस्लिम आवाम के मन में पार्टी के प्रति दूरी बनी है। केजरीवाल की विचारधाराहीन पार्टी को कर्नाटक में एक झटका यह भी लगा है कि मुफ्त की चीजें बांट कर लोगों को लुभाने का उसका फॉर्मूला कांग्रेस ने सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया है। दूसरे राज्यों में भी कांग्रेस अब आप से बेहतर तरीके से इस फॉर्मूले का प्रचार करके वोट हासिल कर सकती है। इस साल जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां के लोग कांग्रेस के वादे पर इसलिए ज्यादा भरोसा करेंगे क्योंकि वह लड़ाई में मुख्य ताकत होगी, जबकि आम आदमी पार्टी हाशिए की ताकत के तौर पर लड़ेगी, जिसके सत्ता में आने की संभावना नहीं के बराबर है।
इसके अलावा कुछ और कारणों से आप का रास्ता मुश्किल हुआ है। इनमें एक कारण भ्रष्टाचार के आरोप हैं। शराब घोटाले में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और हवाला मामले में पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी पार्टी के लिए बड़ा सेटबैक है। कट्टर ईमानदार होने की धारणा इससे प्रभावित हुई है। इस बीच केजरीवाल का सरकारी आवास तैयार करने और उसकी साज सज्जा पर 45 करोड़ रुपए खर्च होने की बात सामने आने से केजरीवाल की आम आदमी वाली छवि भी खंडित हुई है। इन दो कारणों से आम आदमी पार्टी भी दूसरी किसी राजनीतिक पार्टी की तरह ब्रांड हुई है। इससे मुक्ति आसान नहीं होगी। तभी कर्नाटक चुनाव के बाद केजरीवाल बहुत सक्रिय हुए हैं और जाने या अनजाने में केंद्र सरकार ने भी उनको अध्यादेश का एक मुद्दा दिया है, जिस पर वे विपक्षी राजनीति की धुरी बन रहे हैं।