अमेरिका बनाम रूस में क्या फर्क है? अमेरिका गरूड़-ईगल, हंस जैसे पक्षियों की आजाद उड़ान है वही रूस भालूओं की महाशक्ति है। चीन बनाम भारत में क्या फर्क है? तो चीन आग उगलते ड्रैगन का पर्याय है वही भारत हाथी, गाय, भेड-बकरियों का वह शाकाहारी जंगल है, जो नियति के सर्कस में गुंथा हुआ है! पूछ सकते हैं भला इस तरह से विचार कैसे? इसलिए कि इन चार देशों की वृत्ति-प्रवृत्ति, जैविक-शारीरिक-मानसिक प्रकृति से पृथ्वी के सभी आठ अरब लोगों (मानवता) का भविष्य है! इन चार देशों की जनसंख्या कुल विश्व आबादी का 43 प्रतिशत है। यदि इसके साथ जुनूनी विकार में जीने वाली इस्लामी सभ्यता की तासीर को भी साथ में ले तो सब मिलाकर पृथ्वी की तीन-चौथाई आबादी की पांच सभ्यताओं से भविष्य है। और निर्विवाद सत्य है कि आजाद बुद्धि बनाम अहंकारी शक्ति बनाम बर्बर क्रूरता बनाम भक्त नियतिपरस्त बनाम जंगलीपने के पांच तरह के मिजाज का कथानक होमो सेपियन का सफर है। तभी इन पांच चरित्रों से मानव कहानी का वर्तमान है, सस्पेंस है तो कहानी का अंत भी होगा! इसलिए इक्कीसवीं सदी में इनसे मानव सभ्यता का संकट कुछ वैसे ही है जैसे जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी का संकट है।
आश्चर्य नहीं जो सम-सामयिक सुर्खियों, संघर्षों और चिंताओं की धुरी चीन, भारत, अमेरिका और रूस हैं। चाहें तो इन्हें चाइनीज, हिंदू, पश्चिमी व स्लेविक सभ्यता का प्रतिनिधि मानें या फिर ड्रैगन और हाथी तथा गरूड़ व भालू!
सन् 2023 से 2025 के दो वर्षों में इन चार देशों की वजह से उथल-पुथल होनी है। कैसे? जरा इन सवालों पर गौर करें- क्या नई विश्व व्यवस्था बनेगी? अमेरिकी गरूड़ की वैश्विक चौकीदारी क्या खत्म होगी? अमेरिका और पश्चिमी सभ्यता अंदरूनी कलह से कही बिखरने वाली तो नहीं? यूक्रेन-रूस की लड़ाई तीसरे महायुद्ध की और बढ़ते हुए है या रूसी भालू सेना पीछे हटेगी? अपनी इज्जत बचाने के लिए पुतिन कही स्लेविक कबीलाइपने में एटमी भाला तो नहीं फेंकेंगे? इससे भी बड़ा गंभीर सवाल है कि ड्रैगन ने अपने आपको गरूड़ की जगह प्रतिस्थापित करने की जो धुरी बनाई है तो उसमें वह किस-किस को कैसे बांधेगा?
कोई माने या न माने लेकिन हकीकत है कि इन्हीं बिंदुओं पर वैश्विक राजनीति, आर्थिकी, सैन्य-सामरिक रणनीतियां, समाज व्यवस्थाएं और नेतृत्व फिलहाल थिरकता हुआ है। इसी अनुसार हर देश वैश्विक शतंरज पर दांवपेंच भिड़ा रहा है।
गुजरे सप्ताह कई घटनाएं हुईं। यूक्रेन ने रूसी सेना को पीछे खदेड़ने का जवाबी हमला शुरू किया। इससे मुकाबला करने के बजाय रूस ने चुपचाप बड़ी आबादी की जरूरतों का एक बांध तोड़ डाला। सो, सर्दियों से पहले याकि सितंबर तक यूक्रेन बनाम रूस में निर्णायक घमासान होना है। उधर चीन ने अमेरिका को आंखें दिखाई। आकाश और सागर दोनों में चीन और अमेरिका के युद्धपोत व लड़ाकू विमान एक-दूसरे को आंखें दिखाते हुए आमने-सामने गुजरे। साथ ही चीन ने हांगकांग सहित कहीं भी 34 साल पहले बीजिंग के तियेनआनमन चौक के नरसंहार की सालगिरह नहीं मनने दी। ऐसे ही पश्चिमी समाजों में सियासी बिखराव को फैलाने वाली दो बड़ी घटनाएं हुईं। ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन ने सांसदी से इस्तीफा दिया वहीं अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ एफबीआई ने फेडरल कानूनों में चार्जशीट दायर की।
इस सबमें चीन अकेले, सुनहरी स्थिति में है। चीन अकेला देश है, जिसके भीतर कोई संकट, दुविधा व बिखराव नहीं है। चाइनीज हान सभ्यता का ड्रैगन भीतरी और बाहरी सभी और से सशक्त है। राष्ट्रपति शी जिनफिंग इतिहास में अपनी वह कालजयी छाप छोड़ने का रोडमैप बनाए हुए हैं, जिसके आगे बारहवीं शताब्दी के चंगेज खान का साम्राज्य भी फीका पड़ेगा। अगले पांच सालों में शी जिनफिंग हर वह काम करेंगें, जिससे चीन दुनिया की अकेली धुरी बने। ड्रैगन से दुनिया चले न कि अमेरिकी गरूड़ से। ध्यान रहे चाइनीज सभ्यता के मिथकों में ड्रैगन की पहचान सांप-अजगर और मगरमच्छ के साझे रूप का शक्तिशाली सौभाग्य है। चीनी संस्कृति में श्रेष्ठतम-उत्कृष्ट जीवन का प्रतिमान अजगर है। चीन में नाकारा, कमजोर लोग मतलब कीड़े-मकोड़े जैसे। चीन साम्राज्य का पीले ड्रैगन का झंडा शाही ताकत और शक्ति का आदर्श रहा है। सो, निक्सन-किसिंजर याकि अमेरिका ने बीसवीं सदी के आखिरी 25 वर्षों में अपनी बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान और पूंजी से चाइनीज ड्रैगन को दूध पिला कर इतना मोटा, जहरीला तथा शक्तिमान बनाया है तो स्वाभाविक है जो इक्कीसवीं सदी में अब ड्रैगन गौरवमय मंचू अतीत के बादशाह की तरह अपने को भूममंडलीकृत गांव का केंद्र बिंदु माने। मिडिल किंगडम!
संदेह नहीं कि साम्यवाद और मंचू गौरव अतीत के मिक्स से राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने वैश्विक फैक्टरी व कुबेर जैसी आर्थिकी से भीमकाय राष्ट्रवादी ड्रैगन का वह मिशन बना डाला है,, जिससे चीन का वर्चस्व बनना ही है। इक्कीसवीं सदी में चीन अकेला राष्ट्र है जिसकी पूरी आबादी, पूरी व्यवस्था और सेना मुंह फाड़े दुनिया को निगलने की तैयारी में है। मतलब चीन एक-एक देश में तमाम तरीकों से अपना उल्लू साधता हुआ है। जहां जरूरत है वहा सांप की तरह डसता है, अजगर की तरह निगलता है तो चालाकी ऐसी की यूरोप की जमीन में रूसी स्लेविक भालूओं से आग उगलवाता हुआ वही अफ्रीका, दक्षिण अफ्रीका से ले कर ब्राजील, पाकिस्तान व इस्लामी देशों को अजगरी मोहपाश में जकड़ता हुआ।
उस नाते यूक्रेन-रूस की लड़ाई राष्ट्रपति शी जिनफिंग के रोडमैप में मील का पत्थर है। यह तथ्य आम समझ से ओझल है कि पिछले एक साल में चीन ने रूस और राष्ट्रपति पुतिन को अपना गुलाम बना लिया है। स्लेविक नस्ल की महाशक्ति जहां खोखली साबित है तो वह हर तरह से चीन पर आश्रित। चीन-रूस में अब रिकार्ड तोड़ व्यापार हो रहा है तो फायदा चीन को है। रूस और उसके साये में जीने वाले बेलारूस, मध्य-एशियाई देश, माली, इरिट्रिया ईरान, सीरिया सब का चौधरी और मालिक अघोषित तौर पर चीन हो गया है। सोचें, बेलारूस का तानाशाह अब पुतिन से सुरक्षा फील करता होगा या शी जिनफिंग से?
मेरा मानना है हाल में ताइवान और चीन सागर में अमेरिकी लड़ाकू विमान, युद्धपोत को चीनी सेना ने जो आंखें दिखाई तथा सिंगापुर के शांगरी-ला डायलॉग में चीनी रक्षा मंत्री ली शांगफू ने एशिया-पैसिफिक में नाटो जैसे मिलिट्री संगठन के जुमले से जैसे तेवर दिखाए तो वह दिन दूर नहीं जब ताइवान पर कब्जा करके, भारत के अरूणाचल और लद्दाख में कब्जा बना कर वह अपने को पूरे एशिया का चौधरी बना डाले। ताइवान को कब्जाना चीन के लिए चुटकियों का काम है। खास तौर पर यूक्रेन-रूस की लड़ाई में यूरोपीय देशों के उलझे होने तथा अमेरिका के भीतर बाइडेन बनाम डोनाल्ड ट्रंप से अमेरिकियों में बन रहे बिखराव की वास्तविकता में। जैसे भारत में मोदी बनाम विपक्ष से देश बिखरा हुआ है, सतह के नीचे जर्जर है वैसे ही स्थिति एफबीआई द्वारा ट्रंप के खिलाफ गंभीर आरोप पत्र से 2023 से 2025 तक अमेरिका की होनी है। ब्रिटेन में सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी और प्रधानमंत्री ऋषि सुनक आने वाले दिनों में उपचुनावों से भारी मुसीबत में रहेंगे। यदि ऋषि सुनक की पार्टी हार गई, उधर ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बन गए तो पश्चिमी देशों का यूक्रेन को समर्थन व ताइवान के लिए मरने का कितना कमिटमेंट बचेगा? ऐसे ही फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रों की बनती स्थिति है।
तभी जून से अक्टूबर के चार महीनों में यदि यूक्रेन ने रूसी सेना को खदेड़ दिया तब तो यथास्थिति संभव है अन्यथा राष्ट्रपति शी जिनफिंग एशिया में दुस्साहसी मिलट्री ऑपरेशन करेंगें। और ताइवान का अकेला ऑपरेशन जापान, दक्षिण कोरिया से ले कर पूरे आसियान में अमेरिका तथा पश्चिमी सुरक्षा छाते के प्रति वह अविश्वास बनवा देगा, जिससे अपने आप राष्ट्रपति शी जिनफिंग पूरे एशिया के चौधरी होंगे। ताइवान के ऑपरेशन व भारत में अपने दावे के अरूणाचल व लद्दाख के इलाके में सैनिक अभियान पूर्व एशिया, आसियान तथा दक्षिण एशिया में ड्रैगन के स्थायी वर्चस्व वाली घटना होगी। उधर मध्य और पश्चिम एशिया में वैसे ही चीन की तूती है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान से ले कर मध्य एशिया सभी चीन से पैसा लेते हुए हैं। उसके लिए सिल्क मार्ग, बंदरगाह बनवाते हुए हैं। चीन ने हाल में ईरान और सऊदी अरब में रिश्ते बनवा कर अलग अरब-खाड़ी क्षेत्र में राजनीतिक दबदबा साबित किया है।
सोचें, चीन ने यदि ताइवान और भारत के किसी सीमावर्ती इलाके में एक सैनिक ऑपरेशन किया तो एशिया याकि पृथ्वी की 60 प्रतिशत आबादी का चीन क्या स्वयंभू संचालक नहीं हो जाएगा? उसका एशिया का मिशन ज्योंहि पूरा हुआ तो अफ्रीका की आधी आबादी (खासकर मुस्लिम आबादी) भी राष्ट्रपति शी जिनफिंग के लिए लाल कालीन बिछाते हुए होगी!
विश्लेषण व्यापक हो गया है। सार संक्षेप यह कि आजाद उड़ते पक्षी, गरूड़-ईगल की बुद्धि अंतहीन उड़ान से जमीनी रियलिटी से दूर होती हुई है। पश्चिमी सभ्यता आर्थिकी पचड़ों, अंतरिक्ष, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, जलवायु परिवर्तन व सामाजिक विग्रहों में खपी हुई है। उधर पुतिन और उनकी भालू सेना चीन के उकसावे में घायल-बेसुध और शी जिनफिंग पर आश्रित है तो हाथी-गाय-भेड़-बकरी की मासूम महाशक्ति हमेशा की तरह इतिहासजन्य नियति में बंधी है। सोचें, इस सबके बीच कि चाइनीज सभ्यता के ड्रैगन के लिए पृथ्वी के मिडिल किंगडम बनने के कैसे सुनहरे अवसर हैं!