मसला वैश्विक और पूरे मानव समाज का है मगर भारत के लिए इसलिए अधिक गंभीर है क्योंकि 1- वह सर्वाधिक आबादी वाला देश है। 2- लोग पहले से ही जुगाड़ में जीते हुए हैं। 3-जनता की आम बुद्धि नकल-कुंजियों और रट्टामार कृत्रिमताओं से बनी हुई। 4- लोग पहले से ही व्हाट्सऐप, फेसबुक याकि सोशल मीडिया पर सर्वाधिक आश्रित है। 5- भारतीयों के दिमाग में बुद्धिगत सर्जनात्मकता, मौलिकता और सत्य खोज का न आग्रह है और न स्वभाव।
जाहिर है दिल-दिमाग की प्रकृति या बुनावट सुनी-सुनाई बातों, इलहाम, झूठ का आर्टिफिशियल अंधविश्वासी ताना-बाना लिए हुए है। इसलिए मेरी यह बात नोट रखें की 140 करोड़ भारतीय आने वाले वर्षों में मशीनी बुद्धि के सबसे बड़े उपयोक्ता और ग्राहक होंगे। आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस (कृत्रिम, नकली बुद्धि) उर्फ एआई के चैटजीपीटी का जो शुरुआती अनुभव है तो वह इस नाते कमाल का है कि मशीनी दिमाग भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में बुद्धि देते हुए है। मशीन हर मसले-सवाल का हिंदी सहित दस भाषाओं में जवाब देने में समर्थ है।
क्या अर्थ है इसका? 140 करोड़ भारतीयों का फोन उन्हें आगे दिमाग और बुद्धि भी देता हुआ होगा। जो भाषा आती है उसमें फोन के आगे बोलो या लिखो और फोन का दिमाग काम करता हुआ! वह जो कहेगा और बताएगा तो उससे जानकारी, खबर, निबंध, परीक्षा के जवाब, पढ़ाई की कुंजियां, ईमेल-पत्र व्यवहार सब अपने आप होते हुए! लोगों के दिमाग की जगह फोन काम करेगा। फोन कुंजी होगा, अध्यापक होगा और निबंध लेखक-कथावाचक आदि सभी तरह के रोल निभाने में समर्थ।
सोचें, तब भारत के 140 करोड़ लोगों की जिंदगी कितनी आसान हो जाएगी! न पढ़ना-लिखना जरूरी, न टीचर, ट्यूशन, कोचिंग जरूरी न दिमाग कोइस बात के लिए जोर देने की जरूरत की क्या सत्य है और क्या झूठ! अगले पांच-दस साल में हर भारतीय के हाथ में उसके जीवन की जरूरतों, या आवश्यकता विशेष का दिमाग फोन का हिस्सा होगा। तभी जैसे सोशल मीडिया के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार, अमेरिकी-विदेशी कंपनियों का सर्वाधिक कमाऊ पूत बना है तो उसी अनुपात में या उससे भी अधिक मशीनी दिमाग का सुपर उपयोक्ता भारत होगा! मेरी इस बात को भी नोट रखें कि आने वाले वक्त में विदेशी दिमागी मशीन भारत के एक-एक व्यक्ति की जन्मपत्री लिए होगी और वह हिंदुओं को यह बताती हुई होगी कि उसके लिए आज का दिन शुभ है या खराब। आज गणेशजी उस पर धनवर्षा करेंगे या शनि की कुदृष्टि होगी!
कैसे होगा यह? पहला नंबर एक कारण भारत की सरकारों ने नागरिकों के आधार कार्ड सहित लोगों के जीवन के इकठ्ठे जितने आंकड़े, डाटा संग्रह बनाए हैं वे अनजाने-अनचाहे विदेशी कंपनियों और विदेशी सरकारों की पहुंच में हैं। मतलब किस दिन जन्म हुआ, परिवार में कौन, कौन-कौन दोस्त, क्या पढ़ाई, आर्थिक स्थिति में गरीब, बीपीएल, मध्य वर्ग, डिग्री, करियर, सोशल मीडिया सर्कल, पोस्ट, राजनीतिक रूझान की एक-एक नागरिक जानकारियां गूगल, फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर, टेलीग्राम आदि से दुनिया के डाटा संग्रह में संग्रहित है और हर रोज होती हुई होगी।
तभी मेरा मानना है कि चीन, पाकिस्तान हो या अमेरिका, रूस और यूरोप सबके आगे हम 140 करोड़ भारतीयों की निजता नंगी है। भारत के कानूनों ने, सरकारों ने क्योंकि भारतीय नागरिकों की प्राइवेसी, निजता की सुरक्षा नहीं बनाई है तो स्वाभाविक है जो दुनिया की कंपनियां आगे ज्योतिष ज्ञान का कृत्रिम दिमाग बना कर डाटा बैंकों से हिंदुओं की जन्मपत्री पढ़ें और वह जानकारी दें, जिससे असली दिमाग यह सोच कर हैरान होगा कि इस दिमागी मशीन को कैसे मालूम कि मेरे परिवार में कौन-कौन है और मैं किस भगवान को मानता हूं और यदि कृत्रिम दिमाग मुझे बागेश्वर धाम जाकर दर्शन के लिए कह रहा है तो वहां जाना चाहिए। या मशीन के कहे अनुसार फलां-फलां व्रत या फलां-फलां टोटका करना चाहिए।
सचमुच अभी देशी-असली ज्योतिषी जन्म समय, तिथि, स्थान आदि पर कुंडली बना कर दिमाग खपाता और फिर जीवन बांचता है वही मशीनी दिमाग चुटकियों में व्यक्ति के सोशल मीडिया, गूगल डाटा को खंगाल कर उसके जीवन की एक-एक चीज बताते हुए ज्ञान देगा कि कष्टों के निवारण के लिए फलां पूजा, फलां टोटके, फलां व्रत करो।
हां, भारत के विशाल अशिक्षित-अंधविश्वासी बाजार को वैश्विक कंपनियां अपने मशीनी दिमाग के अलग-अलग एप्लिकेशनों से खूब दुहेंगी। इक्कीसवीं सदी का यह सत्य नोट रखें कि भारत के लोगों, सभ्यता-संस्कृति और जरूरत की जानकारियों-आकंड़ों-डाटा की फसल से विदेशी कंपनियां भारतीयों को बुद्धि बेचने का धंधा दबा कर करेंगी। भारत नकली बुद्धि पर जीने वाला नंबर एक देश और बाजार होगा। भारत ने अपने इतिहास में एक के बाद एक हमलावरों से गुलामी झेली। फिर ब्रिटेन और उसके समय कुछ इलाकों में फ्रेंच, पुर्तगीज का साझा भारत उपनिवेश भी था। मगर मौजूदा सदी में भारत कई वैश्विक कंपनियों (अमेरिका, चीन, रूस सहित देशों) का वह उपनिवेश होगा, जिसमें भारत की बुद्धि को गुलाम बना कर वे लोगों का सामूहिक और वैयक्तिक शोषण करेंगे। एक सुधी व्यक्ति का यह कथन सौ टका सत्य है कि डाटा ही औपनिवेशीकरण की अंतिम सीमा है। (Data is the last frontier of colonization)
इस सप्ताह मैंने हिंदी में चैटजीपीटी का उपयोग किया। और अपना निष्कर्ष है कि वह भारत के औसत जीवन के लिए परफेक्ट है! मशीनी दिमाग की एप्रोच चित भी मेरी पट भी मेरी और किसी भी सवाल पर मध्य मार्ग। उस नाते वैसा ही मामला जैसे नकल, कुंजी, जुगाड़ की अपनी बुद्धि में है। वास्तविकता और सत्य से कोई लेना-देना नहीं। बिना क्रिटिकल थिंकिंग और मौलिकता के। जुमलों से भरा सपाट जवाब। मशीनी जवाब में दिमाग की चेतना, संवेदनाओं और मानव बुद्धि की विचारमना तर्कशीलता की प्रतिध्वनि कतई महसूस नहीं होगी।
तभी मेरा मानना है कि भारत और खासकर हम हिंदुओं की सामूहिक सोच को नए सिरे से कुंए में बंधाने वाला यह मशीनी दिमाग है। इसी से फिर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों की पढ़ाई। दुनिया में बाकी जगह यह मददगार टूल होगा वही भारत में शिक्षा का मानो अध्यापक, कुंजी, नोट्स। भारतीय उपयोक्ताओं का जैविक दिमाग यह फर्क नहीं बूझ पाएगा कि मशीनी दिमाग सिर्फ कुएं की जानकारी है और उससे अपने को शिक्षित, ज्ञानवान, बुद्धिमान समझना मूर्खता है।
जाहिर है यह सत्य पूरी दुनिया पर लागू है। मगर भारत का मामला इसलिए अलग और विकट है क्योंकि आजादी के 75 साल बाद भी जब देश का सामूहिक और वैयक्तिक दिमाग नकल, जुगाड़, जुमलों, झूठ और सतही शिक्षा में बंधा-गुंथा है तो 140 करोड़ लोग स्वाभाविक तौर पर मशीनी दिमाग को अपने कथित ज्ञान में सोने का सुहागा मानेंगे। जब देश की शिक्षा, लोगों की चेतना, देश का मीडिया तथा ज्ञान बिना मौलिक शिक्षा, किताबों, पत्र-पत्रिकाओं-अध्ययन-अध्यापन, रिसर्च, खोजबीन, जांच-पड़ताल के हैं तो इंटरनेट, गूगल, सोशल मीडिया की आदत के बाद आगे कृत्रिम बुद्धि ही भारतीय दिमाग की फर्जी गंगोत्री होगी। आर्टिफिशियल, भावनारहित, अमानवीय, सत्य-झूठ निरपेक्ष मशीनी दिमाग भारत के लोगों काजीवन को चलाते और गाइड करते हुए होगा।
ध्यान रहे मशीन सोचती नहीं है। वह वही करेगी, वही बताएगी, जिसे मशीन के न्यूरॉल याकि प्रोग्रामिंग से बनी तंत्रिकाएं कप्यूटर के प्रोसेसिंग बल से ढूंढ बाहर निकालेंगी। इंसान का जैविक दिमाग चिंतन-मनन, सोचने, विचारने, बूझने की नेचुरल क्षमताओं से सत्य बूझता है। मनुष्य दिमाग ध्यान, तपस्या और साधना से बुद्धि को परिष्कृत, सत्यखोजी बना मौलिक आविष्कार, विचारों से उत्तरोतर प्रगति को संभव बनाता है। और ऐसा उन तमाम विकसित देशों में है जहां ज्ञान-विज्ञान का मौलिक शोध होता है। किताबें पढ़ी जाती हैं। विचार-बहस-शास्त्रार्थ होता है। मतभिन्नता के सौ फूल खिले होते हैं। दिमाग आजाद और उड़ता हुआ होता है। इतना उड़ता हुआ कि वह कृत्रिम बुद्धि बना कर दुनिया की गंवार आबादी को गुलाम बनाने और खरबों डॉलर के बिजनेस सोचता है।
कह सकते हैं कि 21 वीं सदी में जैविक बुद्धि के ज्ञानवान ही पृथ्वी की आबादी के नियंता और मालिक होंगे। बीस-तीस सालों में भारत सहित दुनिया की सारी भीड़ मशीनी दिमाग के कहे से संचालित होगी। उन पर ज्ञान-विज्ञान की वैश्विक कंपनियां राज करेंगी। हालांकि जो विकसित-ज्ञानवान देश हैं वे निश्चित ही वैश्विक कंपनियों के पर कतरने, उनका एकाधिकार नहीं होने देने के उपाय सोचते हुए हैं। बावजूद इसके किसी के बूते में यह संभव नहीं है जो मशीनी दिमाग का विकास रोक दिया जाए या इंसानों को इतना समझदार बना दिया जाए कि वे जैविक और मशीनी दिमाग का फर्क बूझने का स्वभाव विकसित करें।
स्वंय की दिमागी बुद्धि में ही जीवन चलाने का संकल्प धारें। सोचें, यह क्या उस भारत में संभव है जो पहले से ही जुगाड़ु, कुंजी, नकल, कोचिंग और बिना शिक्षा व कंपीटीशन के आरक्षणों पर आश्रित है और जहां सत्य-बुद्धि से एलर्जी है?