विपक्षी पार्टियों के बीच गठबंधन बनाने से पहले मल्लिकार्जुन खड़गे की सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस में चुनाव लड़ने वाली मशीनरी के नहीं होने की है। कांग्रेस भगवान भरोसे या सहयोगी पार्टियों के भरोसे चुनाव लड़ रही है। झारखंड में कांग्रेस सरकार में है तो उसका श्रेय कांग्रेस को नहीं, बल्कि जेएमएम को है और बिहार में कांग्रेस के सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा रहने में श्रेय राजद को है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी है तो उसमें संयोग और भाजपा की सरकार के खिलाफ एंटी इन्कंबैंसी का ज्यादा हाथ था। कांग्रेस और भाजपा के बीच सिर्फ एक फीसदी वोट का अंतर रहा। वहां भी कोई मशीनरी या सिस्टम चुनाव नहीं लड़ रहा था। वहां पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज रहा है और इसलिए कांग्रेस के बड़े नेता पांच साल विपक्ष में रहने के बाद भी पार्टी छोड़ कर नहीं गए थे। वे लड़ लिए और कांग्रेस की सरकार बन गई। वह चुनाव लड़ने का कोई मॉडल नहीं है। इसे इस तरह से समझे कि कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में जितनी सीटें जीतीं, उससे डेढ़ गुना ज्यादा सीट उसने गुजरात में गंवा दी। हिमाचल में उसने 40 सीट जीती और गुजरात में 70 से 17 सीट पर आ गई।
सो, खड़गे की पहली चिंता संगठन और चुनाव लड़ाने की मशीनरी की है। उनको इस साल होने वाले चुनाव में यह दिखाना होगा कि कांग्रेस भी उस तरह से लड़ सकती है, जैसे भाजपा लड़ती है। भाजपा जैसा लड़ने का मतलब यह है कि मुद्दों और विचारधारा से अलग भाजपा जिस तरह से चुनाव लड़ती है, वैसे लड़ना है। मतलब पार्टी के एक एक नेता को चुनाव में झोंकने का। बूथ कमेटी मजबूत करने का। प्रचार तंत्र बेहतर करने का। सोशल मीडिया की टीम को ऐसा बना देने का कि वह पार्टी को प्रदेशों के हर मतदाता से जोड़े। उम्मीदवारों के चयन से पहले सर्वे और फीडबैक लेने का सिस्टम बेहतर बनाने का। अगर खड़गे कांग्रेस को इस रूप में ढालते है तो उससे कांग्रेस को चुनावी फायदा होगा और विपक्षी पार्टियों को भी कांग्रेस की ताकत का अंदाजा होगा।
खड़गे ऐसा इसलिए भी कर सकते हैं क्योंकि इस साल जिन राज्यों में चुनाव होना है वहां कांग्रेस या तो सरकार में है या कुछ समय पहले तक सरकार में थी और अब मुख्य विपक्षी पार्टी है। तेलंगाना को छोड़ कर बाकी चार राज्यों- कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थिति बहुत मजबूत है। नेता और संगठन दोनों हैं और संसाधन भी हैं। इसलिए खड़गे और उनकी टीम अगर चाहे तो इन राज्यों में कांग्रेस को उस मजबूती से चुनाव लड़वा सकती है, जिस मजबूती से भाजपा राज्यों में लड़ती है। भाजपा कैसे लड़ती है इसे राजस्थान की एक छोटी सी मिसाल से समझा जा सकता है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान में भाजपा ने 55 हजार व्हाट्सऐप ग्रुप बनाए हैं, जिनके जरिए वह 80 लाख लोगों से जुड़ी हुई है। अगले कुछ दिन में इन ग्रुप्स के जरिए चार करोड़ मतदाताओं तक पहुंचने का भाजपा ने लक्ष्य है। यह काम 32 सौ लोगों की टीम करेगी, जिसमें 27 सौ लोग अभी काम कर रहे हैं। यह टीम भाजपा के हर नेता के सोशल मीडिया अकाउंट्स का संचालन अलग से करती है और उनकी रेटिंग भी तय करती है।
मीडिया और सोशल मीडिया के अलावा भाजपा अपने नेताओं के प्रचार अभियान और सभाओं के जरिए कारपेट बाम्बिंग करती है। अभी से चुनावी राज्यों में नेताओं के दौरे शुरू हो गए हैं। पिछले एक महीने में कम से कम 10 दिन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा ने कर्नाटक में बिताए हैं। मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा का भी दौरा किया। प्रधानमंत्री मोदी ने दो दिन में त्रिपुरा में चार सभाएं कीं। लेकिन कांग्रेस की ओर से कोई बड़ा नेता त्रिपुरा नहीं गया। मेघालय और नगालैंड में भी सिर्फ एक दिन खड़गे प्रचार के लिए गए तो उनके साथ शशि थरूर और मुकुल वासनिक थे। इसके उलट भाजपा ने अपने सारे नेताओं को चुनाव वाले राज्यों में झोंका है। क्या खड़गे ऐसा कर पाएंगे? वे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को चुनाव वाले राज्यों में झोंके।