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नीति का तो काम ही क्या!

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कभी भारत में एक नीति आयोग हुआ करता था। नीतियों की घोषणाओं की प्रेस कॉन्फ्रेस हुआ करती थी। संसदीय कमेटियों में विचार और जानकारों व जनता की फीडबैक पर नीति बनती थी। कैबिनेट और संसद में बहस होती थी। लेकिन अब कानून बनते हैं, रेवड़ियां बनती हैं मगर नीति नहीं। अर्थात नेता वोट पटाने का आइडिया सोचता है और प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अफसर को आदेश देता है। और कानून बन जाता है। यह ढर्रा बुलडोजर राज का प्रतिनिधि है। तभी इस सप्ताह यह जान हैरानी नहीं हुई कि उत्तर प्रदेश सरकार खाने-पीने की चीजों में ‘थूकने’ जैसी कथित करतूतों को रोकने का कानून ला रही है। तीन से पांच साल तक की जेल और एक लाख रुपयए तक के जुर्माने की सजा का इसमें प्रावधान संभव है।

इसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 15 अक्टूबर को अधिकारियों की एक उच्च स्तरीय बैठक की। दो अध्यादेश तैयार हो रहे हैं। इनका नाम ‘छद्म और सद्भाव विरोधी गतिविधियों की रोकथाम और थूकने का निषेध अध्यादेश 2024’ और ‘उत्तर प्रदेश खाद्य में संदूषण की रोकथाम (उपभोक्ता को जानने का अधिकार) अध्यादेश 2024’ होगा। शासन को इसकी जरूरत का अहसास सोशल मीडिया के वीडियो से हुआ। जूस, दाल, रोटी जैसी खाने-पीने की चीजों में दुकानदार या रसोईए का कथित तौर पर थूकना, आटे में पेशाब मिलाने, एक नाबालिग लड़के को रोटियों पर थूकते हुए, फलों के जूस में थूकने के इन असली-नकली वीडियो को सरकार ने गंभीर माना। और निदान के लिए में नए कानून का निर्माण!

सोचें, भारत में शासन, समाज और राजनीति आज कैसी है? इसी सप्ताह विश्व बैंक की रिपोर्ट थी। उस अनुसार चरम गरीबी के पैमाने में 6.85 डॉलर प्रति दिन खर्च की क्षमता में भारत में 43 करोड़ से अधिक लोग चरम गरीबी की अवस्था में हैं। हंगर इंडेक्स के ये आंकड़े और मानव- सामाजिक विकास संबंधी ऐसी रिपोर्टें हर साल आती हैं। लेकिन भारत में इनकी चिंता में नीतियां नहीं बनती हैं। लेकिन हां, सोशल मीडिया की बकवास में कानूनों का निर्माण है। और पूरी राजनीति, चुनाव व घोषणापत्र सब में सिर्फ वायदे याकि रेवड़ियां हैं। महाराष्ट्र, झारखंड में चुनाव घोषणा हुई तो ठीक पहले मुंबई के टोल नाके फ्री हुए। ‘माझी लड़की बहिन योजना’ शुरू हुई। फटाफट एक करोड़ 90 लाख महिलाओं को हर महीने डेढ़ हजार रुपए नकद ट्रांसफर शुरू हुए।

उधर झारखंड में जेएमएम सरकार ने ‘मइया सम्मान योजना’ में हर महिला को हजार रुपए ट्रांसफर करना शुरू किया तो भाजपा ने ‘गोगो दीदी योजना’ में हर महिला को हर महीने 21 सौ रुपए देने का वादा किया। तुरंत झारखंड सरकार की कैबिनेट बैठक हुई और राशि ढाई हजार रुपए करने का ऐलान। कहीं ‘गृह लक्ष्मी योजना’ है तो कहीं ‘लाड़ली बहना योजना’ या ‘महतारी वंदन योजना’। चार महीने बाद दिल्ली में चुनाव है तो आप सरकार भी महिलाओं को हजार रुपए महीना देना शुरू करने वाली है। केजरीवाल ने कहा है कि वे छह मुफ्त की रेवड़ी दे रहे हैं और सातवीं भी देंगे।

जाहिर है सरकारें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्स से लोगों की जेब काट रही है और बदले में चवन्नी-अठन्नी दे रही है। गरीबी, बेरोजगारी, चिकित्सा, शिक्षा और सचमुच लोगों की बेहतरी की समग्रता में एक भी जनहितकारी कायदे की नीति नहीं बन रही है। यदि शासन को रेवड़ियों से ही प्रजा के भले होने का ठोस विश्वास है तो सब रेवड़ियों को मिला कर क्यों नहीं सभी नागरिकों के लिए एक ठोस सोशल सुरक्षा योजना की नीति बना लेनी चाहिए? हर महीने, हर परिवार या जररूतमंद (बेरोजगार, गरीब) को दस हजार के भत्ते की नीति क्यों नहीं बना देते? छोटी-छोटी रेविड़ियों की राजनीति का फ्रॉड तो खत्म हो। क्यों टोल टैक्स महानगरीय सीमा या पुराने हाईवे पर लगातार लगे रहें? क्यों ब्रिटेन की तरह चिकित्सा फ्री नहीं होती? हाल में मेडिकल में यह खबर थी कि अस्पताल अब अस्पताल में बिस्तर को बेच रहे हैं। अर्थात जो ज्यादा पैसा देगा, उसको बिस्तर पहले मिलेगा। जैसे विमान या ट्रेन यात्रा में देना पड़ता है। जैसे-जैसे यात्रियों की संख्या बढ़ती है, टिकट महंगे होते जाते हैं। यही तरीका अब अनेक अस्पताल अपना रहे हैं। क्या सरकारों ने एक भी नीति बीमार की चिकित्सा में लूटमार को रोकने की बनाई है?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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