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गरीबी, बेरोजगारी बरदाश्त करने की अंतहीन सीमा!

इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तो एक नारा लगता था- आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को जिताएंगे। यानी भूखे रह लेंगे लेकिन इंदिरा गांधी को जिताएंगे। वह दौर अभी तक खत्म नहीं हुआ है। अब भी लोग आधी रोटी खाकर नरेंद्र मोदी को जिताने की कसमें खा रहे हैं। बेरोजगार रह लेगें, भूखों रह लेंगे, गुरबत में जीवन बिता लेंगे, एक हजार रुपए की क्या बिसात है दो हजार में भी सिलिंडर खरीदेंगे लेकिन मोदी को जिताएंगे। असल में यह इंदिरा गांधी या नरेंद्र मोदी की बात नहीं है। यह इस देश के लोगों की तासीर, खासकर नौजवानों की सोच की बात है। वे किसी बात से आहत नहीं होते हैं। कुछ लोग परेशान होते हैं और अगर ज्यादा संवेदनशील हैं तो आत्महत्या वगैरह कर लेते हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों को इन बातों से परेशानी नहीं होती है कि उनके पास नौकरी नहीं है, रोजगार चौपट हो गया है, महंगाई बढ़ रही है, गरीबी बढ़ रही है, बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो रहा है प्रदूषित हवा, गंदगी में जिंदगी गुजार रहे है। वे इन सबको नियति मान कर जीवन की गाड़ी खींचते रहते हैं। दुनिया के शायद ही किसी देश में इतनी बड़ी आबादी बेरोजगार होगी लेकिन उसे ईश्वर की मर्जी मान बरदास्त करते है और भंडारे, खैरात पर लोग जिंदगी काट देते है। 

ताजा आंकड़ों की मानें तो फऱवरी 2023 में भारत में बेरोजगारी की दर 7.45 फीसदी थी। इस आंकड़े के मुताबिक भारत में फरवरी में 3.3 करोड़ लोग बेरोजगार थे। यह आंकड़ा उन लोगों का है, जो कामकाज करने में सक्षम हैं और काम चाह रहे हैं। कुछ दिन पहले यह भी एक आंकड़ा आया था कि भारत में करोड़ों लोगों ने काम खोजना ही बंद कर दिया है क्योंकि उन्होंने मान लिया है कि उनको काम नहीं मिलेगा। सीएमआईई के अप्रैल 2022 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 90 करोड़ लोग काम करने की कानूनी उम्र वाले थे और उनमें से लगभग आधे यानी 45 करोड़ ने कामकाज खोजना बंद कर दिया था। अगर यह मानें कि इसमें कुछ ऐसे लोग होंगे, जिन्होंने कोरोना के समय लॉकडाउन की वजह से नौकरी गंवाई। तब भी यह आंकड़ा बहुत बड़ा है और अमेरिका व रूस दोनों की साझा आबादी के बराबर है। 

सोचें, इतने लोगों के पास नौकरी नहीं हैं, वे नौकरी भी खोज नहीं रहे हैं तो उनका जीवन किस भरोसे में कट रहा है? क्या उनका जीवन केंद्र सरकार की ओर से दिए जा रहे पांच किलो अनाज के सहारे कट रहा है? सरकार पांच  किलो अनाज दे रही है, कहीं राज्य सरकारें अतिरिक्त पांच किलो अनाज दे देती है, कहीं चुनाव चल रहा होता है तो लोगों को एक किलो दाल और एक लीटर तेल, नमक भी मिल जाता है। इसके अलावा मनरेगा की नौकरी है, जिसमें साल के सौ दिन कोई न कोई काम मिल जाता है, न्यूनतम मजदूरी के रूप में। अगर किसी के पास थोड़ी सी भी जमीन है या नहीं भी है तो उसने किसी तरह से खुद को किसान रजिस्टर करा रखा है तो उसे हर महीने पांच सौ रुपए किसान सम्मान निधि के मिल रहे हैं। कहीं शौचालय बनाने के 12 हजार रुपए तो कहीं आवास योजना के एक लाख रुपए मिल रहे हैं। कई जगह महिलाओं को हजार-दो हजार रुपए देने के वादे किए गए हैं। थोड़ा बहुत बेरोजगारी भत्ता मिल जाता है और थोड़ा बहुत वृद्धावस्था पेंशन मिल जाती है। 

सो सरकारी खैरात पर करोड़ों लोगो का जीवन चल रहा है। भारत का संविधान सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है लेकिन भारत के लोगों को न तो सम्मान के साथ जीवन हासिल और न मृत्यु। भारत में 40 करोड़ के करीब लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जहां न काम के घंटे तय हैं और न वेतन तय है। मालिक को जो मर्जी होगी देगा और जितनी देर काम कराने का मन होगा उतनी देर काम कराएगा। सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं है। सरकार कहती है कि उसने आठ करोड़ लोगों को स्वरोजगार दिया है। सोचें, स्वरोजगार भी देने की कोई चीज है? किसी ने सड़क के किनारे पानी बेचने का ठेला लगा लिया या किसी ने पकौड़े तलने का कारोबार शुरू कर दिया तो उसमें सरकार की क्या भूमिका है? उलटे सरकारी एजेंसियां जैसे निगम और पुलिस वाले उस पकौड़े बेचने वाले से हफ्ता वसूली करने पहुंच जाते हैं। नोएडा में, जहां सभी न्यूज चैनलों वालों के दफ्तर हैं वहां पत्रकार पोहावाले की दुकान खुल गई है। आईआईएमसी से पढ़े और कई बरस तक पत्रकारिता कर चुके एक नौजवान ने दुकान खोली है। इसी तरह एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार ने नोएडा में ही अन्ना एक्सप्रेस नाम से डोसा और मोमोज की दुकान खोली है। क्या इस तरह के स्वरोजगार का श्रेय सरकार को दिया जाना चाहिए। मगर भारत का प्रधानमंत्री भी सरकार की उपलब्धियों की लिस्ट में पकौड़े की दुकान की गाथा बताते हुए। 

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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