विदेश मंत्री एस जयशंकर आजाद भारत के सर्वाधिक बड़बोले विदेश मंत्री हो गए हैं। याद करें उनकी तरह बोलता हुआ विदेश मंत्री पहले कौन था? नटवर सिंह भी विदेश मंत्री रहते इतना नहीं बोलते थे, जितना जयशंकर बोलते हैं। वे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से लेकर घरेलू राजनीति तक हर चीज पर अब बयान दे रहे हैं। चीन सीमा पर घुसपैठ का मुद्दा उठाया जाता है तो वे विदेश मंत्री की तरह नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के किसी ट्रोल की तरह जवाब देते हैं। 1962 की याद दिलाते हैं। यूक्रेन युद्ध के मसले पर भारत के परोक्ष रूप से रूस का साथ देने की बात आती है तो वे पश्चिम को आईना दिखाते हैं। भारत की संप्रभु विदेश नीति का हवाला देते हैं। सवाल है कि इस सबसे भारत को क्या हासिल हो रहा है? उन्होंने रूस का समर्थन किया, रूस के समर्थन में पश्चिमी देशों को लेकर तीखे बयान दिए।चीन के समर्थन में तो वे यहां तक कह गए कि भारत से बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था चीन की है तो भारत उससे कैसे लड़ सकता है, भारत की लाचारगी दर्शाने वाला भला इससे शर्मनाक बयान और क्या हो सकता है!कूटनैतिक कौशल का आलम यह जो तमाम फू -फा के बावजूद जी-20 देशों की बैठक में एक साझा प्रस्ताव पास नहीं हो पाया।
भारत लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस और चीन के साथ दिख रहा है। जब यह सवाल उठा कि भारत क्यों रूस के साथ कारोबार कर रहा है या उसका साथ दे रहा है तो उन्होंने पश्चिमी देशों से कहा कि वे अपनी समस्या को दुनिया की समस्या मानते हैं और दुनिया की समस्या पर ध्यान नहीं देते हैं। इस तरह वे रूस और चीन दोनों का समर्थन करते दिखे। फिर भी वे इन दोनों देशों को नहीं समझा पाए कि जी 20 के विदेश मंत्रियों की बैठक में कम से कम एक साझा बयान तो जारी होने दे। दोनों से भी ज्यादा उन्हे सिर्फ रूस को समझाना था और उसे तैयार करना था कि वह साझा बयान होने दे।
असली कूटनीति तो यही होती कि जयशंकर साझा बयान जारी कराते। उनका सद्भाव रूस और चीन से भी है और यूरोपीय व अमेरिकी देश भी किसी न किसी वजह से भारत के प्रति सद्भाव दिखा रहे हैं तो दावपेंच से बाली प्रस्ताव को ही फिर जारी करा लेते। यदि जयशंकर सिर्फ रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव को तैयार कर लेते तो यह संभव था। सब जानते हैं कि अमेरिका और यूरोपीय देश यूक्रेन के पक्ष में हैं और रूस, चीन एक साथ हैं, जबकि भारत अपने को तटस्थ बताता है। तो इन तीनों समूहों की समझदारी से बीच का रास्ता निकलता और कूटनीतिक भाषा में प्रस्ताव तैयार को कर जारी होता तो माना जाता कि भारत की कूटनीति कमाल की। लेकिन कूटनीति कोई नहीं हुई। प्रधानमंत्री का भाषण हुआ और विदेश मंत्री की बयानबाजी हुई। ऐसे कुछ हासिल नहीं हुआ करता। दुनिया के 20 सबसे बड़े देशों के विदेश मंत्री जुटे और साझा बयान पर सहमति नहीं बनी तो यह सत्यभारत की, विदेश मंत्री जयशंकर की फेल कूटनीति का दो टूक प्रमाण है।