भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक दलों की कई श्रेणियां बना रखी हैं। एक श्रेणी ऐसी पार्टियों की है, जिनके साथ भाजपा के अतीत में अच्छे संबंध रहे हैं या वह पार्टी भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में रही है। ऐसी पार्टियों के फिर से एनडीए में लौटने का रास्ता खुला रहता है। दूसरी श्रेणी ऐसी पार्टियों की है, जो पहले साथ रही हैं या नहीं भी रही हैं तो नरेंद्र मोदी के केंद्र में सरकार बनाने के बाद अपनी राजनीतिक मजबूरियों में भाजपा के प्रति नरम रही हैं। ये आगे भी भाजपा के साथ हो सकता है कि खुल कर न जुड़ें लेकिन मुद्दों के आधार पर सरकार को इनका समर्थन मिलता रहेगा। तीसरी श्रेणी भाजपा के कट्टर विरोधियों की है, जो अपने प्रदेश की वोट की राजनीतिक मजबूरी के चलते किसी हाल में भाजपा के साथ नहीं जुड़ सकते हैं।
केंद्र सरकार की एजेंसियों का रवैया भी इन तीन श्रेणियों की पार्टियों के प्रति अलग अलग दिखता है। जो केंद्र के करीब है या करीब जाने की संभावना लिए हुए है उस पर कार्रवाई नहीं होती है, जो विरोधी है लेकिन दबाव बना कर करीब लाया जा सकता है उनके ऊपर प्रतीकात्मक कार्रवाई होती है और जो कट्टर विरोधी हैं उनको पूरी तरह से निपटा देने या चुनाव लड़ने लायक नहीं रहने देने वाली कार्रवाई होती है।
इस तीसरी श्रेणी में कांग्रेस के अलावा कुछ प्रादेशिक पार्टियां शामिल हैं। प्रादेशिक पार्टियों में राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके आदि का नाम लिया जा सकता है। इनमें से तृणमूल कांग्रेस और डीएमके पहले भाजपा के साथ रहे हैं। लेकिन तब से गंगा-जमुना में बहुत पानी बह गया है। ममता जब भाजपा के साथ थीं तब वे पश्चिम बंगाल में भाजपा वाली ही राजनीति करती थीं। जब उन्होंने लेफ्ट को हरा दिया तब से वे लेफ्ट की राजनीति कर रही हैं, जिसमें 30 फीसदी मुस्लिम वोट सबसे अहम है। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी के समय डीएमके और भाजपा का तालमेल था। लेकिन अब डीएमके सनातन विरोध की जैसी राजनीति कर रही है उसमें दोनों के लिए साथ आना मुश्किल है। यही बात राष्ट्रीय जनता दल के बारे में भी है। वह कभी एनडीए का हिस्सा नहीं रही है लेकिन ऐसा नहीं है कि उसने भाजपा का साथ नहीं दिया है या नहीं लिया है। लालू प्रसाद 1990 में पहली बार भाजपा के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बने थे और तब उनकी पार्टी जनता दल की केंद्र में सरकार भी भाजपा के समर्थन से बनी थी और भाजपा के समर्थन वापस लेने से गिर गई थी। लेकिन उसके बाद लालू प्रसाद की राजनीति भी बिहार के 18 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं के ईर्द-गिर्द सिमट गई। इसलिए वे भी भाजपा के साथ नहीं जा सकते हैं। आज के संदर्भ में कहा जा सकता है कि इन तीनों पार्टियों की राजनीति भाजपा विरोध पर टिकी है। ये भाजपा का जितना ज्यादा विरोध करेंगे इनके वोट उतने पक्के होंगे। दूसरी ओर केंद्र सरकार की एजेंसियां इनके ऊपर जितनी कठोर कार्रवाई करेंगी उतना फायदा भाजपा को होगा। इसलिए इन तीन पार्टियों के नेताओं को कोई राहत नहीं मिलेगी।