Economic inequality, भारत की अर्थव्यवस्था पहले भी पिरामिड की शक्ल में थी, जिसमें शीर्ष पर कुछ लोगों के पास सारी संपत्ति संचित थी, जबकि नीचे के लोग मामूली जरुरतों के मोहताज थे। अब पिरामिड का निचला हिस्सा बड़ा होता जा रहा है। इससे यह प्रमाणित है कि कोई भी आर्थिक अवधारणा हो भारत में उसका सबसे खराब रूप देखने को मिलेगा।
नेहरू ने जब समाजवाद का सिद्धांत अपनाया या मिश्रित अर्थव्यवस्था का सिद्धांत अपनाया तब भी उसका सबसे खराब रूप देखने को मिला और 1991 के बाद अर्थव्यवस्था खुली, उदार नीतियां अपनाई गईं, जिसे लोकप्रिय शब्दों में कह सकते हैं कि पूंजीवाद का सिद्धांत अपनाया गया तो उसका भी सबसे खराब रूप भारत में देखने को मिल रहा है। पहले संपत्ति का राष्ट्रीयकरण हो रहा था और अब संपत्ति का एकत्रीकरण चुनिंदा कारोबारियों के हाथ में हो रहा है। आज क्रोनी कैपिटलिज्म अपने चरम पर है। हर सेक्टर में एकाधिकार बनाया जा रहा है और ग्राहकों से मनमाने दाम वसूले जा रहे है।
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संदेह नहीं है कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश है। लेकिन उतनी ही तेजी से देश में आर्थिक असमानता बढ़ रही है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022-23 के मुताबिक भारत दुनिया में सबसे ज्यादा आर्थिक असमानता वाला देश है। भारत की सबसे अमीर एक फीसदी आबादी की आय का हिस्सा कुल जीडीपी में 22.6 फीसदी है। सोचें, करीब एक चौथाई जीडीपी के बराबर आय एक फीसदी आबादी की है। इस एक फीसदी आबादी का देश की संपत्ति में हिस्सा 53 फीसदी है।
यानी देश की आधे से ज्यादा संपत्ति इस एक फीसदी आबादी के पास है। अगर शीर्ष 10 फीसदी आबादी की बात करें तो उसके पास कुल आय का 57 फीसदी और कुल संपत्ति का 77 फीसदी हिस्सा है। यानी बाकी 90 फीसदी के पास 43 फीसदी आय है और 23 फीसदी संपत्ति है। अगर निचली 50 फीसदी आबादी की बात करें तो जीडीपी में उसका हिस्सा घट कर 13 फीसदी रह गया है और देश की संपत्ति में उसका हिस्सा 4.1 फीसदी है।
दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची बनाने वाली फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक 2014 से 2022 के बीच भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 280 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इस अवधि में राष्ट्रीय आय में 27.8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यानी अरबपतियों की आय राष्ट्रीय आय से 10 गुना ज्यादा बढ़ी है। 1991 में जब देश की अर्थव्यवस्था खुली थी तब देश में एक अरबपति था और 2024 में अरबपतियों की संख्या 270 से ज्यादा हो गई है। भारत से ज्यादा अरबपति अब सिर्फ चीन और अमेरिका में हैं।
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लेकिन सिर्फ आर्थिक असमानता के आंकड़ों से तस्वीर साफ नहीं होती है। अगर भारत में कर वसूली के आंकड़े देखें तो निचली आबादी के शोषण की एक अलग तस्वीर दिखाई देगी। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की सबसे गरीब 50 फीसदी आबादी, जिसका जीडीपी में हिस्सा सिर्फ 13 फीसदी और संपत्ति में 4.1 फीसदी है, वह आबादी 64 फीसदी जीएसटी दे रही है। यह अप्रत्यक्ष कर के जरिए गरीब जनता के शोषण की एक इंतहा है। इसके बाद मध्य वर्ग द्वारा 30 फीसदी से ज्यादा जीएसटी चुकाया जाता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश की सबसे अमीर 10 फीसदी आबादी सिर्फ पांच फीसदी से भी कम जीएसटी चुकाती है।
हालांकि कुछ लोगों ने ऑक्सफेम की इस रिपोर्ट को चुनौती दी है लेकिन इसके जवाब में जो आंकड़ा पेश किया जा रहा है वह बहुत विश्वसनीय नहीं है। उसको भी यदि मानें तो जिन लोगों के पास देश की 77 फीसदी संपत्ति और 57 फीसदी आय है वे 25 फीसदी जीएसटी भरते हैं। सो, एक तरफ घनघोर असमानता और दूसरी ओर जीएसटी के जरिए भी गरीब-मध्य वर्ग का शोषण क्या बतलाता है? क्या सरकार में किसी को भी इस नहीं समझना चाहिए?