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भ्रष्टाचार बरदास्त ही नहीं वह तो जीवन!

भारत में लोगों के जीवन की नंबर एक खूबी क्या है? भ्रष्टाचार मानों प्राणवायु। यों  ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की पिछली रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग 85 वी थी लेकिन पूरी दुनिया में भारत में भ्रष्टाचार जिस सहज रूप में जीवन का हिस्सा है वैसा कही नहीं होगा। भारत में कोई भी काम कराने के लिए रिश्वत लेना और देना उसी तरह स्वाभाविक माना जाता है, जैसे नदी में मछली का पानी पीना। मछली को पानी से निकाल दिया जाए तो वह ऑक्सीजन की अधिकता से मर जाती है। उसी तरह अगर सरकारी और अब तो निजी क्षेत्र में भी कामकाज में अधिकारी रिश्वत नहीं लेंगे तो ईमानदारी की अधिकता से उन कर्मचारियों के प्राण निकल सकते हैं। लोगों के लिए रिश्वत लेना और देना दोनों सहज, स्वाभाविक और सार्वजनिक शिष्टाचार का हिस्सा लगता है। 

कोई समय था, जब भ्रष्टाचार की बातों से लोगों में थोड़ा बहुत गुस्सा होता था, लोग उद्वेलित होते थे। लेकिन अब वह भी समाप्त है। सर्वेक्षण करने वाली संस्था सीएसडीएस के संजय कुमार ने पिछले दिनों एक लेख लिखा था उन्होंने बताया कि 13 राज्यों में उनकी एजेंसी ने सर्वे किया था और सभी राज्यों में लोगों ने कहा कि भ्रष्टाचार पहले से बढ़ा है। इसके बावजूद इनमें से छह राज्यों में लोगों ने उसी सरकार की वापसी कराई, जिसके भ्रष्टाचार की शिकायत वे कर रहे थे। सोचें, जिस सरकार ने भ्रष्टाचार बढ़ाया उसे दोबारा गद्दी सौंपी, इसे क्या कहा जाए? क्या यह नहीं कि  पहले आती थी हाले दिल पे हंसी, अब किसी बात पर नहीं आती!

भारत में  सदियों से भ्रष्टाचार एक शिष्टाचार, नजराने, शुकराने के तौर पर रहा है।  मुंशी प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा’ को याद करें।  इसमें वेतन को पूर्णमासी का चांद और ऊपरी आमदनी को बहता हुआ जरिया बताया था। कहानी के मुख्यपात्र मुंशी वंशीधर जब नौकरी की तलाश में निकलते हैं तो उनके बुजुर्ग पिता ने उनको समझाते हुए कहा- नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चादर और चढ़ावे पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूंढना जहां कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ झरना है, जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है. इसलिए उसमें वृद्धि नहीं होती है। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है। सोचें, एक सौ साल पहले, जब अंग्रेजों का राज था, तब सरकारी नौकरी को लेकर समाज में क्या सोच थी! तब भी ऊपरी आमदनी को ईश्वर की देन माना जाता था और उसी से बरकत होने की सोच थी। 

तभी क्या हैरानी है, जो दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में रिश्वत लेकर बारी आने से पहले इलाज का खुलासा हुआ और डॉक्टर गिरफ्तार हुआ? डॉक्टर के साथ साथ उसका पूरा तंत्र पकड़ा गया, जिसमें सर्जिकल सामान बेचने वाला दुकानदार, दवा का दुकानदार और बिचौलिया सब शामिल हैं। सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति का जल्दी ऑपरेशन करने के लिए एकमुश्त रकम तय की जाती थी, जिसमें से आधा पैसा डॉक्टर को जाता था और बाकी आधा इसमें शामिल दूसरे लोगों में बंटता था। तभी क्या हैरानी है, जो भारत में बने आईड्रॉप से अमेरिका में लोगों की आंखों की रोशनी जा रही है और भारत में बना कफ सिरप पीकर गाम्बिया में बच्चे मर रहे हैं? क्या आश्चर्य है, जो कैंसर जैसी बीमारी के इलाज में इस्तेमाल होने वाली नकली दवाएं पकड़ी जा रही हैं? एक समाज के रूप में भ्रष्टाचार को स्वीकार करने और उसे जीवन का हिस्सा बना लेने की यह पराकाष्ठा है। 

दरअसल भारत में एक बच्चे के जन्म के पहले से भ्रष्टाचार का खेल शुरू हो जाता है। गर्भ में बच्चा आने के साथ ही माता-पिता की चिंता होती है कि कहीं बेटी तो नहीं है और उनकी चिंता का निवारण होता है किसी न किसी क्लीनिक में, जिसके बाहर लिखा होगा कि यहां प्रसव पूर्व लिंग टेस्ट नहीं होता है। लेकिन अंदर पैसे लेकर कूट भाषा में बताया जाता है कि लड़का है या लड़की। यह काम ईश्वर का अवतार कहे जाने वाले डॉक्टर करते हैं। फिर ज्यादा कमाई के लिए नॉर्मल डिलीवरी को सिजेरियन कराया जाता है। उसके बाद जन्म प्रमाणपत्र बनवाने के लिए रिश्वत दी जाती है। फिर नर्सरी कक्षा में दाखिले के लिए रिश्वत लगती है। स्कूलों में भारी भरकम फीस देने के बावजूद बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की जरूरत होती है क्योंकि स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है। रिश्वत का यह सिलसिला पढ़ाई के बाद नौकरी से लेकर मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने तक निरंतर चलता रहता है। 

भारत में किसी को इसमें आपत्ति नहीं है कि सरकारी या निजी कार्यालयों में कामकाज के लिए रिश्वत मांगी जा रही है। उलटे रिश्वत नहीं मांगी जाए तो लोगों को लगता है कि काम नहीं होगा। आप बिजली कार्यालय में जाएं या पानी के कनेक्शन के लिए जल बोर्ड के कार्यालय जाएं या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने जाएं और संबंधित अधिकारी या कर्मचारी ने रिश्वत नहीं मांगी तो ऐसा लगता है कि अब काम नहीं होगा। तभी इन कार्यालयों में जाने से पहले ही लोग यह बंदोबस्त करके जाते हैं कि जहां जो आधिकारिक और अनधिकृत फीस तय है, वह जमा कराएं और काम होने की गारंटी लेकर लौटें। रिश्वत को रामबाण माना जाता है और कोई भी कार्यालय इससे अछूता नहीं है, बल्कि यह होड़ है कि नगर निगम सबसे ज्यादा भ्रष्ट है या पुलिस सबसे ज्यादा भ्रष्ट है? न्यायपालिका में ज्यादा भ्रष्टाचार या विधायिका ज्यादा भ्रष्ट है? एक बार तो भारत में सीवीसी ने रेलवे को सबसे भ्रष्ट संगठन बताया था। इस बहस में जाने की जरूरत नहीं है कि कौन सबसे भ्रष्ट है और कौन कम भ्रष्ट है। क्योंकि सबसे अधिक और सबसे कम वाले में भी ज्यादा का अंतर नहीं है। 

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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