तय मानें मेले में जितनी पुस्तकें नहीं खरीदी गई होंगी उससे असंख्य गुना मोदीजी के हाथों से पुस्तक लेते हुए लोगों ने अपनी फोटो खिंचवाई। क्या नौजवान, क्या महिला और क्या प्रौढ़ पुरूष सब लपक कर मोदीजी से पुस्तक पाते हुए! और इस नजारे के मेरे कुछ मिनट के अनुभव में फोटो खिंचवाती भीड़ के हाथों में पुस्तक खरीदी होने का एक भी बैग नहीं देखा।…गेट से बाहर निकला तो मोदीजी खड़े थे… मुझे अपने साथ फोटो का आमंत्रण देते हुए। … पर मैंने उनके साथ सेल्फी नहीं ली…. पर हां, प्रगति मैदान से बाहर निकलते मुझेउनके कंट्रास्ट में इंदिरा गांधी और उनके शिक्षा मंत्री नुरूल हसन की याद होआई।….
श्रुति ने कहा और मुझे भी लगा क्यों न ‘अमृत काल’ का भारत देखें। भारत की प्रगति बूझें। कहते हैं प्रगति मैदान नया हो गया है। इंडिया गेट का कायाकल्प है। कर्तव्य पथ बना है। नई दिल्ली, नई बन रही है। वह विश्व राजधानी है। भारत विश्व गुरू है। भारत से दुनिया‘ज्ञान’ प्राप्त कर रही है। तो क्यों न नए प्रगति मैदान का पुस्तक मेला देखा जाए! सो, मार्च 2023 की एक शनिवार, मैं अमृत काल का भारत ऑब्जर्व करने नई दिल्ली पहुंचा। इंडिया गेट का चक्कर लगाते हुए नई भूमिगत टनल से उलटे घूमते हुए प्रगति मैदान पहुंचा। पुस्तक मेले से ‘न्यू इंडिया’ को बूझने लगा।
पहली बात, प्रगति मैदान की सड़क आई नहीं कि जिधर देखो उधर ‘विश्व गुरू’ के दर्शन! हर तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विशाल होर्डिंग! दो-तीन जगह गुरू-शिष्य परंपरा में बड़े चेहरे वाले नरेंद्र मोदी और उनके साथ छोटे चेहरे वाले योगी आदित्यनाथ के साझा होर्डिंग भी! प्रगति मैदान के प्रवेश द्वार के बाहर भी नरेंद्र मोदी और प्रवेश से भीतर तो शुरुआत से आखिर तक का रास्ता सिर्फ नरेंद्र मोदी के फोटो और संदेशों से भरा हुआ। काशी तमिल समागमम से लेकर जिधर देखो, उधर किताब और ज्ञान के महत्व पर मोदीजी के अमृत वचनों के इतने होर्डिंग, पोस्टर, कट आउट्स थे कि स्वयंस्फूर्त दिमाग का निष्कर्ष हुआ-अब और क्या जानना! जब भारत का अमृत काल नरेंद्र मोदी हैं तो समाज-संस्कृति का शब्दों का आईना भी नरेंद्र मोदी हैं! देश काल, समाज, संस्कृति, साहित्य को पढ़ने-समझने के लिए भला अब पुस्तक खरीद कर पढ़ने की क्या जरूरत है?
नरेंद्र मोदी को देखते, सुनते, पढ़ते रहो और अपने आप कौम, नस्ल, धर्म, बुद्धि का खुलासा! अब पढ़ना-लिखना फिजूल है। ‘न्यू इंडिया’ को किताबें छापना बंद कर देना चाहिए। भला ‘न्यू इंडिया’ को क्यों सोचने-विचारने, लिखने, विश्लेषण करने, शास्त्रार्थ और ज्ञान मीमांसा की जरूरत है, जब प्रधानमंत्री का श्रीमुख ‘ब्रह्माण्ड’ लिए हुए है। वे जब विश्व गुरू हैं, ज्ञानगुरू हैं, ऑक्सफोर्डों-हार्वर्डों के हार्वर्ड हैं, पुस्तकालयों के पुस्तकालय हैं, अक्षर ब्रह्म हैं तो हिंदुओं को पुस्तकों को जला कर अपने अंतर्मन, मन-मष्तिष्क में बस, मोदीजी की मूर्ति बैठा लेनी चाहिए। दिमाग ज्ञान की गंगौत्री हो जाएगा।
पूछ सकते हैं इतना महिमामंडन क्यों कर रहा हूं? इसलिए क्योंकि सचमुच नए प्रगति मैदान के प्रवेश से लेकर मेले के हॉल में घूमने के बाद गेट से बाहर निकलने तक मोदीजी मौजूद थे। आखिर में तो वे उस कटआउट में थे, जो विजिटर को ललचा रहा था कि आओ, मेरे से पुस्तक लेते हुए मेरे साथ फोटो खीचो, मेरे साथ सेल्फी लो और देश-दुनिया के अपने दोस्तों, परिवारजनों के ग्रुपों में अहोभाग्य के इस क्षण को प्रसारित करो! अमृत काल का अमृत प्रसारित करों!
तो अमृत काल के पुस्तक मेले का पहला सत्य किताबों की दुनिया बाद में और विश्व गुरू प्रधानमंत्री का दर्शन मेला असल सत्य।… कोई हर्ज नहीं। आखिर वे ‘गुरू’ तो हैं। डॉ. मनमोहन सिंह ने की होगी प्रोफेसरी, अटल बिहारी वाजपेयी ने की होगी तुकबंदी, जवाहरलाल नेहरू ने की होगी निर्गुट देशों की नेतागिरी पर अमृत काल तो नरेंद्र मोदी का! विश्व गुरू तो नरेंद्र मोदी। जब वे श्रीमुख में ब्रह्माण्ड लिए हुए हैं और वे हिंदू ‘न्यू इंडिया’ के सृष्टिकर्ता हैं और अक्षर ब्रह्म स्थल पर यदि ‘मां सरस्वती आउट’ और ‘मोदी इन’ है तो कुल मिलाकर यह दर्शकों का अहोभाग्य जो मेले की प्राप्ति में मोदीजी आत्मसात और उनके साथ सेल्फी!
तय मानें मेले में जितनी पुस्तकें नहीं खरीदी गई होंगी उससे असंख्य गुना मोदीजी के हाथों से पुस्तक लेते हुए लोगों ने अपनी फोटो खिंचवाई। क्या नौजवान, क्या महिला और क्या प्रौढ़ पुरूष सब लपक कर मोदीजी से पुस्तक पाते हुए! और इस नजारे के मेरे कुछ मिनट के अनुभव में फोटो खिंचवाती भीड़ के हाथों में पुस्तक खरीदी होने का एक भी बैग नहीं देखा।
बहरहाल, मुख्य हॉल में प्रवेश से ठीक पहले मोदीजी जैसे ही बड़े होर्डिंग में दर्शनार्थियों को ज्ञान देते धर्मेंद्र प्रधान के भी दर्शन हुए। कहते हैं प्रधानजी ने अमृत काल में ‘न्यू इंडिया’ में‘न्यू शिक्षा’ बनाई हैं! उनका चेहरा देख मैंने तय किया कि हिंदी भाषा, भारतीय भाषाओं और सरकारी एनबीटी, प्रकाशन विभाग जैसे सरकारी संस्थाओं के स्टॉलों से जरूर जानना-बूझना है।
मगर यह क्या! मुख्य प्रवेश द्वार से घुसते ही अंग्रेजी प्रकाशकों के स्टॉल! क्या मोदीजी के अमृत काल में हिंदी और भारतीय भाषाओं के स्टॉल पहले नहीं लगे होने चाहिए? पर अंग्रेजी के नामी प्रकाशको का नंबर पहले और इनके स्टॉल दर्शकों से भरे हुए। यों भी शनिवार का दिन था। अगले दिन मेला खत्म होने वाला था तो नौजवानों की आउटिंग, टाइमपास का मूड अपने आप अंग्रेजी के स्टॉलों में भीड़ बनवाए हुए था। एक-दो प्रकाशकों के यहां तो अंदर जाने की कतार भी। मेले की भीड़ ने अपना मूड बिगाड़ा मगर अच्छा भी लगा। अंग्रेजी प्रकाशकों के हिस्से को ऑब्जर्व करते-करते पिछवाड़े के हिंदी के इलाके में हम लोग पहुंचे तो खाली और फुरसत से टाइम पास करते दुकानदार मिले और उनसे बात करने का मौका बना।
तब मैंने श्रुति को अहसास कराने के लिए स्टॉल छांटने और देखने शुरू किए। पहली बात जो मुझे खटकी वह यह कि अमृत काल की रियलिटी मेले के स्टॉल में भी झलकती हुआ! संभव है ऐसा दस-पंद्रह सालों से हो रहा हो और मैं बहुतद सालों बाद मेले में आया तो इसलिए मैं चौका। मुझे दलित, अंबेडकरवादी और आदिवासी प्रकाशनों के स्टॉल दिखलाई दिए। फारवर्ड प्रेस, गौतम बुक सेंटर, बुद्धम पब्लिशर, इंडिजेनस बुक, दास पब्लिकेशन आदि नाम के स्टॉल। दूसरा सत्य, हिंदू धर्म के प्रकाशनों की भरमार और उनमें भीड़। जाहिर है अमृत काल का भारत सचमुच धार्मिक। पुराने प्रकाशक गीता प्रेस ने संभवतया रामयाण, गीता, रामचरितमानस और चालीसा की बिक्री से मेले में सर्वाधिक कमाई की होगी। इनके अलावा आर्यसमाज, वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, पातंजलि, श्री-श्री आदि के स्टॉलों का कोना बगल के तमाम नामी हिंदी प्रकाशकों से ज्यादा भीड़ समेटे हुए था।
एक अनुभवी जानकार ने बताया यदि पुस्तक मेले में अमृत काल को समझना है तो उसे हिंदी की धार्मिक किताबों और अंग्रेजी प्रकाशकों की मोटिवेशनल-गाइड किताबों, कंपीटिशन पुस्तकों की बिक्री व भीड़ से बूझें। मेरा सवाल था कि इन विषयों की कितनी किताबें बिकती होंगी? ….बहुत! बाकी साहित्य, गैर-साहित्यिक किताबें? याकि पढ़ने के शौक वाली पुस्तकें? हिंदी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की पुस्तकें कितनी बिकती होगी? तो जवाब मिला…. लगभग नहीं के बराबर!
मैंने हिंदी में सस्ता साहित्य सुलभ करवाने वाले एक बहुत पुराने प्रकाशक के मैनेजर से उनका खाली स्टॉल देख कर पूछा, क्या स्टॉल के किराये भाड़े जितनी बिक्री हुई? सपाट जवाब था- संभव ही नहीं। मेला किताब खरीदने के लिए नहीं है, देखने के लिए है।…. पर भीड तो इतनी… जवाब मिला- जरा इनके हाथों में देखिए, कितनों के हाथों में किताब है? ….आपकी किताबें बहुत सस्ती हैं, साल में कितनी बिकती होंगी?… जवाब मिला.. दो सौ भी नहीं! फिर उसने बताया- हिंदी का अच्छा से अच्छा प्रकाशक अधिक से अधिक हजार किताबें छापेगा… पैसे लेकर आधी किताबें लेखक को टिकाएगा…बाकी सरकारी बिक्री जैसे तरीकों से बेचेगा! … अब तो ढाई सौ-पांच सौ पुस्तकों का पहला एडीशन छपता है… पहले केंद्रीय राजा राम मोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान जैसे सरकारी संस्थानों से पुस्तकालयों की सीधी खरीद हुआ करती थी, पर मोदी राज ने उस व्यवस्था को लगभग खत्म कर दिया है…सब खत्म।… सन् 2014 के बाद हिंदी और भारतीय भाषाओं के हम प्रकाशक कैसे जिंदा है यह हम ही जानते हैं। मगर हां, यदि अपने पर भगवा ठप्पा लगा लिया, हजारों में कीमत रख दीनदयाल उपाध्याय की एक जीवनी भी छाप दी तो उसे सरकार लाखों की संख्या में खरीदेगी, उस प्रकाशक को मालामाल बना देगी…वही सरकारी संस्थानों में अब जो छप रहा है वह पचास-सौ पेजों की जीवनियां, प्रधानमंत्रियों के भाषण…
मुझे हालातों का मोटा-मोटी पहले से अहसास था। पर आजादी से पहले स्थापित एक पुण्यकारी प्रकाशन संस्थान के मैनेजर की मुंह जुबानी जब वर्तमान को जाना तो मैं भी श्रुति के साथ हैरान था। सोचने लगा, दो हजार प्रकाशकों के स्टॉलों वाले मेले में अंग्रेजीदां प्रकाशकों को यदि छोड़ें तो भारत का अक्षर ज्ञान वापिस उसी अवस्था में क्या नहीं पहुंच गया है, जब भारत सिर्फ अतीत की स्मृति और सुनी सुनाई बातों से जिंदा था।
मैंने न चाहते हुए भी धर्मेंद्र प्रधान की ‘न्यू शिक्षा’ में हिंदी पाठ्यपुस्तकों को तलाशा। एनबीटी जैसी सरकारी संस्थानों के स्टॉलों में किताबों के कवर देखे।… सब बेमतलब….सोचा. यह सब तो अब हिंदी के विकीपीडिया पेजों में भी क्लिक उपलब्ध है…भला इंटरनेट की बेसिक जानकारी से तो अधिक ज्ञानवर्धक पुस्तकों का प्रकाशन होना चाहिए! इससे अच्छा होता प्रधानजी लुगदी साहित्य, चारण साहित्य या लंगूरों से घासलेटी साहित्य लिखवा कर अपने अमृत काल की दस्तावेजी सामग्री बनवाते! जीवनियों में क्या धरा! … बहरहाल मेले में डॉक्टरी-इंजीनियरिंग याकि तकनीकी-विज्ञान की ‘न्यू इंडिया’ की ‘न्यू शिक्षा’ के हिंदी प्रकाशन नहीं दिखलाए दिए।
कुल मिलाकर मेला नहीं, बल्कि नई इमारत, बादशाही उपस्थिति की शान से सजा-धजा बाजार, चाहें तो इसे युवा बाजार कहें या मीना बाजार, जिससे कई तरह के कनेक्ट… ऑथर्स कनेक्ट, चाइल्ड ऑथर्स कॉर्नर, युवा कॉर्नर, धर्म कॉर्नर… दलित कॉर्नर, स्त्री कॉर्नर की खनखनाहट में टाइमपास करते दर्शक और खासकर नौजवान दर्शक… बगल के थियेटर में भंगड़े, पंजाबी धुन में नाचते-गाते, अमृत काल की सांस्कृतिकता का मजा लेती हुई भीड़ तो मेले के ठीक बीच में भगवा दुपट्टाधारी ज्ञानवानों का मंच संचालन भी सुनाई दिया। माइक से अचानक सूचना प्रसारित हुई रजतजी (रजत शर्मा) आए हैं वे आपका ज्ञानवर्धन करेंगे।…. जब मैं गीता प्रेस के भीतर भीड़ को समझ-देख रहा था तो अचानक यह भी सुनाई दिया कि स्वागत कीजिए कुमार विश्वासजी का। वे गाएंगे और आप भी उनके साथ गाइए। ….
बहरहाल, आखिरी कोने के स्टॉलों से फ्री हुआ और गेट से बाहर निकला तो मोदीजी खड़े थे… मुझे अपने साथ फोटो का आमंत्रण देते हुए। … पर मैंने उनके साथ सेल्फी नहीं ली…. पर हां, प्रगति मैदान से बाहर निकलते मुझेउनके कंट्रास्ट में इंदिरा गांधी और उनके शिक्षा मंत्री नुरूल हसन की जरूर याद होआई।….कभी मैं इन्हें शिक्षा के वामपंथीकरण के लिए कोसता था मगर नरेंद्र मोदी और धर्मेंद्र प्रधान और उनका अमृत काल… शिक्षा और पढ़ने की जरूरत ही खत्म हो गई…यह कैसा मेला, किताब हो गई सेल्फी!
अरे, नई दिल्ली और इंडियागेट तो भूल ही गया… फिर कभी।