देखो, कैसे अचम्भे की बात उन्होंने बतलायी! कहा कि मनुष्य अपने कर्मफल से मरता है, उस पर दया करने से क्या होगा? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से किया जा सकता है। तुम्हारे हिन्दू धर्म का कर्मवाद कहां जाकर पहुंचा? जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?”
स्वामी विवेकानंद जयंती (12 जनवरी)
यहां हम गौरक्षा एवं इंसान की रक्षा के बारे में स्वामी विवेकानंद के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। उनके विचारों को हमने रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘विवेकानंदजी के संग में’’ से लिया है। इस पुस्तक के लेखक श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती हैं।गोरक्षण सभा के एक उद्योगी प्रचारक स्वामीजी के दर्शन के लिए साधु-सन्यासियों का सा वेष धारण किए हुए आए। उनके मस्तक पर गेरूए रंग की एक पगड़ी थी। देखते ही जान पड़ता था कि वे हिन्दुस्तानी हैं। इन प्रचारक के आगमन का समाचार पाते ही स्वामीजी कमरे से बाहर आए। प्रचारक ने स्वामीजी का अभिवादन किया और गौमाता का एक चित्र उनको दिया। स्वामीजी ने उसे ले लिया और पास बैठे हुए किसी व्यक्ति को वह देकर प्रचारक से निम्नलिखित वार्तालाप करने लगे।
स्वामीजी – आप लोगों की सभा का उद्देश्य क्या है?
प्रचारक – हम लोग देश की गौमाताओं को कसाई के हाथों से बचाते हैं। स्थान-स्थान पर गोशालाएं स्थापित की गई हैं जहां रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाईयों से मोल ली हुई गोमाता का पालन किया जाता है।
स्वामीजी- बड़ी प्रशंसा की बात है। सभा की आय कैसे होती है?
प्रचारक – आप जैसे धर्मात्मा जनों की कृपा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से सभा का कार्य चलता है।
स्वामीजी- आपकी नगद पूंजी कितनी है?
प्रचारक- मारवाड़ी वैश्य सम्प्रदाय इस कार्य में विशेष सहायता देता है। वे इस सत्कार्य में बहुत सा धन प्रदान करते हैं।
स्वामीजी- मध्यभारत में इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा है। भारत सरकार ने घोषित किया है कि नौ लाख लोग अन्नकष्ट से मर गए हैं। क्या आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता करने का आयोजन किया है?
प्रचारक- हम दुर्भिक्षादि में कुछ सहायता नहीं करते। केवल गोमाता की रक्षा करने के उद्देश्य से यह सभा स्थापित हुई है।
स्वामीजी- आपके देखते-देखते इस दुर्भिक्षादि में आपके लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फंस गए। आप लोगों के पास बहुत नगद रूपया जमा होते हुए भी क्या उनको एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना उचित नहीं समझा गया?
प्रचारक – नहीं, मनुष्य के कर्मफल अर्थात पापों से यह दुर्भिक्ष पड़ा था। उन्होंने कर्मानुसार फलभोग किया। जैसे कर्म हैं वैसा ही फल हुआ है।
प्रचारक की बात सुनते ही स्वामीजी के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और ऐसा मालूम होने लगा कि उनके नयनप्रान्त से अग्निकण स्फुरित हो रहे हैं। परंतु अपने को संभालकर वे बोले, “जो सभा-समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाईयों को बिना अन्न मरते देखकर भी उनकी रक्षा के निमित्त एक मुट्ठी अन्न से सहायता करने को उद्यत नहीं होती तथा पषु-पक्षियों के निमित्त हजारों रूपये व्यय कर रही है, उस सभा-समिति से मैं लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं रखता। उससे मनुष्य समाज का विशेष कुछ उपकार होना असंभव सा जान पड़ता है। “अपने कर्मफल से मनुष्य मरते हैं” इस प्रकार की बातों में कर्मफल का आश्रय लेने से किसी विषय में जगत में कोई भी उद्योग करना व्यर्थ है। यदि यह प्रमाण स्वीकार कर लिया जाए तो पशु-रक्षा का काम भी इसी के अंतर्गत आता हैं। तुम्हारे पक्ष में भी कहा जा सकता है कि गोमाताएं अपने कर्मफल से कसाईयों के पास पहुंचती हैं और मारी जाती हैं – इससे उनकी रक्षा का उद्योग करने का कोई प्रयोजन नहीं है।“
प्रचारक कुछ लज्जित होकर बोला – “हां महाराज, आपने जो कहा वह सत्य है, परंतु शास्त्र में लिखा है कि गौ हमारी माता है”।
स्वामीजी हंसकर बोले- “जी हां, गौ हमारी माता है यह मैं भलीभांति समझता हूं। यदि यह न होती तो ऐसी कृतकृत्य संतान और दूसरा कौन प्रसव करता?”
प्रचारक इस विषय पर और कुछ नहीं बोले। शायद स्वामीजी की हंसी प्रचारक की समझ में नहीं आई। आगे स्वामीजी से उन्होंने कहा, “इस समिति की ओर से आपके सम्मुख भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ हूं।”
स्वामीजी- मैं साधु-सन्यासी हूं। रूपया मेरे पास कहां है कि मैं आपकी सहायता करूं? परंतु यह भी कहता हूं कि यदि कभी मेरे पास धन आए तो मैं प्रथम उस धन को मनुष्य सेवा में व्यय करूंगा। सब से पहले मनुष्य की रक्षा आवश्यक है – अन्नदान, धर्मदान, विद्यादान करना पड़ेगा। इन कामों को करके यदि कुछ रूपया बचेगा तो आपकी समिति को दे दूंगा।
इन बातों को सुनकर प्रचारक स्वामीजी का अभिवादन करके चले गए। तब स्वामीजी ने कहा, “देखो, कैसे अचम्भे की बात उन्होंने बतलायी! कहा कि मनुष्य अपने कर्मफल से मरता है, उस पर दया करने से क्या होगा? हमारे देश के पतन का अनुमान इसी बात से किया जा सकता है। तुम्हारे हिन्दू धर्म का कर्मवाद कहां जाकर पहुंचा? जिस मनुष्य का मनुष्य के लिए जी नहीं दुखता वह अपने को मनुष्य कैसे कहता है?” इन बातों को कहने के साथ ही स्वामीजी का शरीर क्षोभ और दुःख से सनसना उठा।
गाय कई लोगों के लिए पूजनीय पशु है। परंतु जब हमारा देश मानव विकास के अनेक क्षेत्रों में पीछे है ऐसे में पशुओं के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए स्थिति बेहतर होने का इंतजार किया जाना चाहिए।
गाय की राजनीति भले ही प्रतियोगात्मक लोकप्रियता के लिए जरूरी हो परंतु प्रबुद्ध, उदारमना राजनीति की मांग है कि हर मामले में इंसान को प्राथमिकता दी जाए। शाकाहार व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का मामला है और उसे राजसत्ता द्वारा नहीं लादा जाना चाहिए। गाय के कल्याण के मसले को नागरिकों और उनके संगठनों पर छोड़ दिया जाना चाहिए।