उन्होंने आलसियों के सम्बन्ध में प्रचलित अपने जीवन का पहला दोहा लिखा, और कालांतर में औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संत के रूप में लोकप्रिय हुए, जिसके कारण कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में मलूकदास की गद्दियाँ क़ायम हुईं-अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।।
11 अप्रैल- संत मलूक दास जयंती : निर्गुण मत के प्रसिद्ध संत मलूकदास का जन्म उत्तरप्रदेश के प्रयागराज जिले से 38 किलोमीटर दूर कड़ा ग्राम में विक्रम संवत 1631 तदनुसार ईस्वी सन 1574 में बैशाख कृष्ण पंचमी दिन बृहस्पतिवार को लाला सुंदरदास खत्री के घर में हुआ। इनका पूर्व नाम मल्लू था। इन्हें सेठ मलूक चंद के नाम से भी जाना जाता है। इनके तीन भाई- हरिश्चंद्र, श्रृंगार तथा रामचंद्र थे। इनके पितामह जहरमल थे और इनके प्रपितामह का नाम वेणीराम था। इनके सम्बन्ध में कोई लिखित विवरणी उपलब्ध नहीं है, जिसके कारण उनके माता, पत्नी, पुत्र- पुत्रियों का नाम और शिक्षा, भ्रमण आदि जीवन चरित का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। ऐसी मान्यता है कि मलूकदास का विवाह किशोरवय में ही हो गया था। बालक मल्लू अधिक पढ़े- लिखे नहीं थे, परन्तु ये लिखना- पढ़ना जान गए थे। कालांतर में उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की, वह स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण का ही परिणाम था। बाल्यावस्था में ही उनमें कविता लिखने का गुण विकसित हो चुका था। और उन्हें फारसी, अवधी, अरबी, खड़ी बोली आदि भाषाओं का ज्ञान था। उनके पिता सुंदरदास धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे।
बचपन से ही अच्छे संस्कारों में पले- बढ़े मलूकदास के बारे में मान्यता है कि वह अजानुबाहु थे। ऐसे व्यक्ति महात्मा होते हैं। किसी महात्मा के अनुरूप मलूकदास बचपन में ही स्वच्छता, पवित्रता एवं मानवता के पुजारी थे। कहीं भी अथवा किसी के घर के सामने भी कूड़ा -करकट देखते ही वे उसे एक तरफ कर देते थे। साधु- संतों की सेवा करने में उन्हें एक प्रकार का आनंद मिलता था। घर के सामान खरीदने के लिए मिले पैसे को भी राह चलते निर्धनों एवं दीन -दुखियों को दान कर देना उनका स्वभाव था। ठंड में एक निर्धन व्यक्ति को ठिठुरते देखकर एक बार उन्होंने अपना कंबल भी उसे दान कर दिया था। बाल्यकाल से ही अत्यंत उदार एवं कोमल हृदय के मल्लू में बचपन में ही भक्तों के लक्षण प्रकट होने लगे थे, जो इनके माता- पिता को पसंद नहीं थी। इसीलिए जीविकोपार्जन की ओर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से उन्होंने इन्हें सिर्फ विक्रय करने का कार्य सौंपा था, परन्तु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी और बहुधा मंगतों को दिए जाने वाले कंबल आदि का हाल सुनकर उन्हें और भी क्लेश होने लगा।
बालक मलूक पूर्वजन्म के किसी पुण्य कर्म के फल से बाल्यावस्था में तो सन्मार्ग पर चलते दिखे और भक्तिभाव का आश्रय लिया। लेकिन यौवनावस्था में कदम रखते ही कुछ भटक गये, और ये नास्तिक समान व्यवहार करने लगे। परन्तु अंत में गाँव में होने वाली एक रामकथा में प्रवचनकर्ता से परमात्मा के अस्तित्व पर हुई विवाद तत्पश्चात घने जंगल में हुई एक घटना से इनका साधुत्व जाग उठा और मृत्यु पर्यन्त आस्तिक रह प्रभुभक्ति में लीन रहे। इसी घटना के बाद उन्होंने आलसियों के सम्बन्ध में प्रचलित अपने जीवन का पहला दोहा लिखा, और कालांतर में औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संत के रूप में लोकप्रिय हुए, जिसके कारण कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में मलूकदास की गद्दियाँ क़ायम हुईं-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।।
मलूकदास के प्रथम गुरु देवनाथ के पुत्र पुरुषोत्तम थे। पीछे इन्होंने मुरारिस्वामी से दीक्षा ग्रहण की, जिनके विषय में सुखसागर पृष्ठ 192 में इन्होंने स्वयं भी कहा है, मुझे मुरारि जी सतगुरु मिल गए जिन्होंने मेरे ऊपर विश्वास की छाप लगा दी। मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे। और मान्यता तो यह भी है कि मलूकदास को 42 वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा मिले तथा अपने परमधाम सतलोक को ले गए। दो दिन बाद पुनः वापस भेजा। इस दो दिन तक श्री मलूक दास अचेत रहे। फिर सतलोक से वापसी उन्होंने जपो रे मन सतगुरु नाम कबीर। …… चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।दास मलूक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।। नामक वाणी उच्चारण करते हुए की। विद्वानों के अनुसार सतलोक से वापसी पर उच्चारित वाणी में प्रमुखतया उन्होंने कबीर का नाम लिया है। और कबीर को सतगुरु कहा है। चार दाग से न्यारा अर्थात किसी तरह से नष्ट न होने वाले अजर अमर शरीर युक्त कबीर को कहा है, अंत में खसम अर्थात स्वामी भी कहा है, जो मलूकदास के द्वारा कबीर को अपना परम गुरु व परमात्मा मानने का परिचायक है। यह इस बात का भी संकेत है कि इन्होंने मुरारी कबीर जी को ही कहा है।
महाराज मलूकदास कर्मयोगी संत, कवि, लेखक और समाज सुधारक थे। वे जाति- पाति के घोर विरोधी थे। उनकी वाणी अत्यंत सिद्ध होने के साथ-साथ वे त्रिकालदर्शी भी थे। इन्होंने पुरी, दिल्ली, कालपी जैसे स्थानों के साथ सम्पूर्ण देश में भ्रमण करते हुए वैष्णवता और रसोपासना का प्रचार-प्रसार किया। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही उनके शिष्य थे। यह भ्रमण व प्रचार कार्य भी इन्होंने अधिकतर वृद्धवय में ही किया, जब ये अपने मत का उपदेश भी देने लगे थे। आचार्य मलूकदास के पास सत्संग हेतु लोगों की भीड़ लगी रहती थी। संत गोस्वामी तुलसीदास ने भी कई दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार कर उनके सत्संग का लाभ उठाया था। मुगल शासक औरंगजेब भी उनके सत्संग से अत्यंत प्रभावित था। संत मलूकदास की रचनाओं की संख्या इक्कीस है।
उनमें से अलखबानी, गुरुप्रताप, ज्ञानबोध, पुरुषविलास, भगत बच्छावली, भगत विरुदावली, रतनखान, बाराखड़ी रामावतार लीला, भक्तिविवेक, बृजलीला, ध्रुव चरित्र, साखी, सुखसागर तथा दसरत्न विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ का सीधा संबंध संतमत के साथ समझा जाता है और अन्य का मुख्य विषय सगुण भक्ति है। उनकी रचनाओं में अवतार और चरित्रों के साथ ही भक्ति, नीति, ज्ञान वैराग्य आदि का वर्णन है। कवि के रूप में मलूकदास ने अवधी तथा ब्रजभाषा में रचनाएं लिखी। दूसरे निर्गुणमार्गी संतों की भांति हिन्दू- मुसलमान दोनों को ही उपदेश देने में प्रवृत्त होने के कारण इनकी भाषा में भी संस्कृत, फारसी और अरबी शब्दों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है। अन्य संतों के समान बोलचाल की खड़ी बोली का पुट इनकी वाणी में पाया जाता है। निर्गुणमार्गी संतों के इन सब लक्षणों से युक्त इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है।
इनकी रचनाओं के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें परमात्मा के अस्तित्व में प्रबल आस्था थी। परमात्मा के सतत नाम स्मरण को विशेष महत्त्व देते थे। और अपने भीतर परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करते भी जान पड़ते थे। किसी भी विषम परिस्थिति के आ पड़ने पर ये घबड़ाते नहीं थे, प्रत्युत विश्वकल्याण की दृष्टि से सारा दु:ख अपने ऊपर ले लेना चाहते थे। अपनी आध्यात्मिक वृत्ति एवं हृदय की विशालता के कारण ये उत्तरोत्तर विख्यात होते चले गए और इनके उपदेशों का प्रचार उत्तर प्रदेश के प्रयाग, लखनऊ आदि से लेकर पश्चिम की ओर जयपुर, गुजरात, काबुल आदि तक तथा पूरब और उत्तर की ओर पटना एवं नेपाल तक होता गया। और प्रसिद्धि तो इतनी कि इनकी एक गद्दी आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम् तक में पाई जाती है। परन्तु इनके अनुयायियों का सर्वप्रमुख केंद्र कड़ा ही समझा जाता है। संत कवि मलूकदास अपनी धार्मिक तथा काव्य साधना के साथ-साथ आचरण व्यवहार एवं वाणी से एक संस्कारी व्यक्ति थे।
संत कबीर की भांति उन्होंने भी केश मुंडन, प्रस्तर पूजा आदि धार्मिक आडंबरों का विरोध करते हुए शुद्ध हृदय से ईश्वर का ध्यान करने पर बल दिया था। उनका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का निवास है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाता, अर्थात जिसमें दया, ममता, पर दुःख कातरता सहिष्णुता नहीं है, वह मनुष्य धर्म का पालन नहीं कर सकता। मानवतावादी धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए उन्होंने मानव-मानव में कभी किसी प्रकार का भेदभाव न करने का सन्देश दिया था। धर्म के सत्य स्वरूप का दर्शन कराते हुए उन्होंने मनुष्य को धार्मिक विदेष से बचने की सलाह दी थी। जीवन भर मानव समाज की सेवा करते हुए ऐसे कवि, लेखक, समाज सुधारक संत मलूकदास की मृत्यु 108 वर्ष की अवस्था में कड़ा में रहते समय विक्रम संवत 1739 तदनुसार ईस्वी सन1682 में बैशाख कृष्ण चतुर्दशी को हुई। इनके संबंध में अनेक चमत्कार और करामातों की कथाएं भी प्रसिद्ध हैं। मान्यता है कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज़ को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयों का तोड़ा गंगा जी में तैरा कर कड़ा से इलाहाबाद भेजा था।