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तवारीख़ी तहरीर बदलने की ख़ुशबू

मेरा मानना है कि लोकसभा से राहुल की सदस्यता ख़त्म करने के फ़ैसले ने सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के निर्वाण के सफ़र की दूरी अब बहुत छोटी कर दी है। सियासत तकनीकी दांवपेंच का खेल नहीं होता है। बहानों के जाल बिछा कर अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने की कुचालें दीर्घकालीन राजनीति में उलटबांसी साबित होती हैं। इसकी एक नहीं, कई मिसालें भारतीय राजनीति ने देखी हैं। सियासी कुरुक्षेत्र में तो मुकाबला आमने-सामने का होता है। सो, मान कर चलिए कि राहुल का निष्कासन अब सड़क को ही संसद बना देगा।

पहले मुझे ‘दो जिस्म, एक जान’ वाले कथन पर विश्वास नहीं होता था। इस अति-रूमानी भाव पर यक़ीन करने के लिए मैं ने दिन-रात एक किए, मगर नतीजा सिफ़र रहा। मगर पिछले साठ दिनों में एक-एक दिन मेरा यह भरोसा पुख़्ता हुआ है कि दो जिस्म-एक जान जैसी कुछ चीज़ होती तो ज़रूर है। एक कारोबारी के कारोबार के बारे में आई एक रिपोर्ट को ले कर सामने आए दृश्यों ने मुझे आश्वस्त कर दिया है कि अलग-अलग दो जिस्म अपने जीवन का सफ़र एक जान के ज़रिए और भी अच्छी तरह पूरा करते हैं।

शरीर पृथक हों और प्राण भी पृथक हों तो एक शरीर का मन कुछ करने को होगा और दूसरे का कुछ। लेकिन जब प्राण एक हो जाएं तो दो अलग-अलग बदन एक-सा स्पंदन करने लगेंगे। तब सिर्फ़ बदन दो दिखेंगे, मन तो एक हो जाएगा। जब मन-प्राण एक हो जाएंगे तो दोनों बदन एक-सा सोचेंगे, एक-सा कोचेंगे और एक-सा नोचेंगे। तब दोनों के प्राण किसी बहुत ऊंची मीनार पर पिंजरे में बंद तोते में कै़द नहीं रहेंगे, वे एक-दूसरे में ही घुले-मिले रहेंगे। यह परस्पर निर्भरता दोनों का जीवन-आधार रहेगी, क्योंकि दोनों को ही यह अहसास रहेगा कि एक के न रहने पर दूसरा भी नहीं रहेगा।

‘दो जिस्म-एक जान’ का मंचन हो तो पहले भी रहा था। नौ साल क्या, दो दशक से हो रहा था। मगर इन दो महीनों में इस मिलन का जो आवेग देखने को मिला, उस ने मुझे तो कृतकृत्य कर दिया। ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ की ढीठ-धुन पर नृत्य में सारा सत्तासीन आलम ऐसा मशगूल हो गया कि राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई। राहुल संसद में प्रतिपक्ष की आवाज़ का प्रतीक बन गए थे। वे संयुक्त संसदीय जांच समिति की मांग करने से बाज़ नहीं आ रहे थे। संसद में उन्हें ख़ामोश करने का एक ही तरीका था कि संसद में न रहेगा बांस तो नहीं बजेगी बांसुरी।

मेरा मानना है कि लोकसभा से राहुल की सदस्यता ख़त्म करने के फ़ैसले ने सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के निर्वाण के सफ़र की दूरी अब बहुत छोटी कर दी है। सियासत तकनीकी दांवपेंच का खेल नहीं होता है। बहानों के जाल बिछा कर अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने की कुचालें दीर्घकालीन राजनीति में उलटबांसी साबित होती हैं। इसकी एक नहीं, कई मिसालें भारतीय राजनीति ने देखी हैं। सियासी कुरुक्षेत्र में तो मुकाबला आमने-सामने का होता है। सो, मान कर चलिए कि राहुल का निष्कासन अब सड़क को ही संसद बना देगा।

राहुल-प्रसंग में सूरत की अदालत का फ़ैसला अपनी जगह है। उस पर कोई क्या कह सकता है? उस फैसले पर अंतिम फ़ैसला, जब लेंगी, ऊपर की अदालतें लेंगी। हो सकता है, राहुल के चुनाव लड़ने पर भी छह साल की पाबंदी लग जाए। हो सकता है, राहुल दो साल के लिए जेल भेज दिए जाएं। हो सकता है, इसके बाद 2024 में भाजपा लोकसभा में 303 नहीं, 404 सीटें ले कर पहुंच जाए। यह सब हो सकता है। लेकिन इससे क्या हो जाएगा? क्या इससे भाजपा अमर हो जाएगी? क्या इससे प्रतिपक्ष हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा?

होने को चूंकि कुछ भी हो सकता है, इसलिए यह भी हो सकता है कि यह फ़ैसला पहले तो राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा की चूलें हिला दे और उसके बाद अगले आम चुनाव में भाजपा को पूरी तरह ले डूबे। यह भी हो सकता है कि उपचुनाव लड़ कर राहुल दिन दुगनी, रात चौगुनी मजबूती से जीत कर लोकसभा में लौट आएं। हो सकता है कि राहुल के निष्कासन से उपजी आम-संवेदना कांग्रेस का जबरदस्त पुनरुद्धार कर डाले। हो सकता है कि यह फ़ैसला विपक्षी एकता का नया व्याकरण रच दे। सो, होने को कुछ भी हो सकता है।

अभी भले ही कुछ भी माहौल बना दिया गया हो, लेकिन वह दिन तो आएगा, जब तय होगा कि राहुल ने देश के पिछड़े वर्ग का अपमान किया था या नहीं? उनकी मंशा कुछ लोगों की करतूतों पर ध्यान दिलाना था या वे एक समूचे समुदाय की अवमानना करना चाहते थे? दो ही मंचों पर यह मसला तय हो सकता है। एक है न्यायिक मंच। दूसरा है जनमंच। न्यायपालिका की एक ज़िला अदालत ने तो फ़िलहाल यह फ़ैसला कर ही दिया है कि राहुल ने किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को नहीं, पूरे समुदाय को बेइज्ज़त किया है। इसे अंतिम तौर पर तो सर्वोच्च अदालत ही तय करेगी कि ज़िला अदालत की सोच सही है या नहीं। बचा जनमंच तो, कोई माने-न-माने, लोकसभा से राहुल के निष्कासन ने जन-मन को झकझोर दिया है। भाजपा के घनघोर हिमायतियों को भी इस कदम को ठीक ठहराने में हिचक हो रही है।

विदेशी धरती पर राहुल की टिप्पणियों को तोड़मरोड़ कर पेश करने के लिए अब तक कूदफांद करने वाले भी स्तब्ध हैं। उन्हें भी यह उम्मीद नहीं थी कि राहुल को संसद से बाहर भेजने का क़दम उठया जाएगा। वे तो इस गुंताड़े में थे कि इतना भर हो जाए कि दबाव में आ कर राहुल माफ़ी मांग लें और उनकी भद्द पिट जाए। भद्द-पिटे राहुल भाजपा के लिए बड़ा चुनावी हथियार होते। अब सियासी-शहादत का साफा सिर पर बांध कर घूमने वाले राहुल तो भाजपा की मुसीबत बन जाएंगे। उन्हें कौन-सा चोरी-हेराफेरी में या हत्या-बलात्कार में दो साल की सज़ा हुई है? हुई भी है तो लोकतंत्र की हत्या-बलात्कार के प्रयासों की मुख़ालिफ़त करने और किसी की कारोबारी हेराफेरियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए कही गई बातों के लिए हुई है। उन बातों के अर्थ को अनर्थ में तब्दील करने की क़ानूनी तिकड़मों के कारण हुई है।

इसलिए राहुल अगर जेल चले भी गए तो कांग्रेस के लिए यह सिर ऊंचा कर के घूमने की बात हो जाएगी। सिर तो अंततः उनका झुकेगा, जो अपनी मनमानियों को पूरा करने के लिए इस हद तक भी जाने को तैयार हैं। इंदिरा गांधी ने तो आपातकाल के बाद चुनाव कराने से पहले विपक्ष के सभी नेताओं को जेल से रिहा कर दिया था। अब अगर कोई अगले आम चुनाव से पहले विपक्ष के सभी नेताओं को किसी-न-किसी बहाने जेल में बंद करने पर उतारू है तो क्या भारतवासी इतने गए-बीते हैं कि आजीवन हाथ बांधे, सिर झुकाए खड़े रहेंगे? अगर कोई सोचता है कि तीन साल से मुफ़्त राशन पाने वालों की अंर्तआत्मा ही मर जाती है तो उनकी ग़लतफ़हमियों के जाले जल्दी ही साफ हो जाएंगे।

निखालिस झूठ, हद दर्जे की ख़ुदगर्ज़ी, दग़ाबाज़ी और मक्कारी जिनकी सियासत की बुनियाद बन जाते हैं, वे जन-मन से उतरने लगते हैं। आज हम-आप इन्हीं दृश्यों से रू-ब-रू हो रहे हैं। यह वह दौर है, जिसमें सुल्तान के भीतर अपनी वस्त्रहीनता का बोध समाप्त हो जाता है। यह वह दौर है, जिसमें सुल्तान के आसपास के लोग उसके हाथों ऐसी-ऐसी ग़लतियां कराते हैं, जो ‘त्रयोदोषाः’ बन जाती हैं। यह वह दौर है, जिसमें हुक्मरान अवाम की संवेदनाओं को समझने का सलीका खो बैठते हैं। यह वह दौर है, जिसमें एक परिघटना हाशिए का दायरा फाड़ कर देखते-ही-देखते पूरे पन्ने पर इस तरह पसर जाती है कि उसके सैलाब में सारा करकट एकबारगी बह जाता है। इसलिए, आप का आप जानें, मुझे तो इस दौर से तवारीख़ी तहरीर बदलने की ख़ुशबू आ रही है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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