ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया विक्रम संवत 2080/ 22 मई
महाराणा प्रताप जयंती
राजस्थान, मेवाड़ के शासक राणा सांगा अर्थात संग्राम सिंह और बूंदी की रानी कर्णावती के चौथे पुत्र उदयसिंह द्वितीय (जन्म 4 अगस्त 1522, चित्तौड़गढ़ दुर्ग – देहावसान 28 फरवरी 1572) न केवल मेवाड़ के 53वें शासक, महाराणा और उदयपुर शहर के संस्थापक के नाते विख्यात हैं, बल्कि महाराणा उदय सिंह द्वितीय (1540–1572) ने ही युद्ध की नई – छापामार युद्ध प्रणाली इजाद की थी। वे स्वयं तो इस पद्धति का प्रयोग नहीं कर सके, तथापि उनके पुत्र महाराणा प्रताप सिंह (1572–1597), महाराणा राज सिंह व छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस छापामार युद्धप्रणाली का सफल प्रयोग किया। मुगलों को छकाया।
महाराणा प्रताप मुग़ल बादशाह अकबर से कभी भी नहीं हारे। राजस्थान के कुम्भलगढ़ कुछ इतिहासकारों के अनुसार मारवाड़ के पाली में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 रविवार को जन्मे महाराणा प्रताप सिंह के विरुद्ध हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसम्बर 1576 तक तीन बार विशाल सेना के साथ महाराणा पर आक्रमण किए, परन्तु महाराणा को वे खोज नहीं पाए, बल्कि महाराणा प्रताप के जाल में फँसकर भोजन- पानी के अभाव में सेना का विनाश करवा बैठे। थक -हारकर अकबर बांसवाड़ा होकर मालवा चला गया। पूरे सात माह तक मेवाड़ में रहने के बाद भी हाथ मलता रहा, फिर अरब चला गया। शाहबाज खान के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध तीन बार सेना भेजी गई, परन्तु शाहबाज खान भी असफल रहा।
उसके बाद अब्दुल रहीम खान-खाना के नेतृत्व में महाराणा प्रताप के विरुद्ध सेना भिजवाई गई। वह भी पीट-पीटाकर लौट गया। इतिहास गवाह है कि नौ वर्ष तक निरन्तर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा प्रताप के विरुद्ध आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा। और अन्त में थक- हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया। इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाया और सुन्दर बगीचा लगवाया। महाराणा प्रताप की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, 15000 अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएँ महाराणा प्रताप करते थे। अपने उतरार्द्ध के बारह वर्ष सम्पूर्ण मेवाड़ पर सुशासन स्थापित करते हुए उन्नत जीवन दिया। उनके जीवन में ऐसा कुअवसर कभी नहीं आया कि उन्हें घास की रोटी खानी पड़ी हो अथवा अकबर को सन्धि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। उनके इन्हीं गुणों के कारण अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज राठौड़ तक भी महाराणा प्रताप के महान प्रशंसक थे।
उल्ल्लेख्नीय है कि ईस्वी 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे। और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे। इसलिए अकबर उस विद्रोह को दबाने में उलझा रहा और मेवाड़ पर से मुगलों का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने 1585 ईस्वी में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा प्रताप की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने गुजरात और मालवा की ओर अपने सैनिक अभियान को तेज कर दिया। और आस- पास के मुगल अधिकार क्षेत्र में छापे मारना शुरू कर दिया। मेवाड़ के प्रधान और सैनिक व्यवस्था के अग्रणी भामाशाह ने मालवे पर चढ़ाई कर दी, और वहां से 2.3 लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी समय जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
मुगलिया सल्तनत से युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए नई सेना का संगठन किया गया। जगह-जगह रसद और हथियार इकट्ठे किए गए। सैनिकों को धन और सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। सिरोही, ईडर, जालोर के सहयोगियों का उत्साहवर्द्धन किया गया। यह सभी प्रबंध गुप्त रीति से होते रहे। जिससे मुगलों को यह भ्रम हो गया कि प्रताप मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। ऐसे भ्रम के वातावरण से बची हुई मुगल चौकियों के सैनिक बेखटके रहने लगे। सब प्रकार की तैयारी पूर्ण होने पर महाराणा प्रताप, अमरसिंह, भामाशाह, चुंडावत, शक्तावत, सोलंकी, पडिहार, रावत शाखा के राजपूत और अन्य राजपूत सरदारों के प्रयत्न से शीघ्र ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।
महाराणा प्रताप का उत्तर – पश्चिम की क्षेत्रों पर नजर रखने में मुगलों के लिए आसान व सुविधायुक्त स्थान दिवेर पर भी अधिकार हो चुका था। इसके साथ ही यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई शाही सेना लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की ओर भाग खड़ी हुई। 1585 ईस्वी के आगे अकबर भी उत्तर -पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया। जिससे महाराणा को चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला। दिवेर की विजय महाराणा के जीवन का एक उज्ज्वल कीर्तिमान है। जहां हल्दीघाटी का युद्ध नैतिक विजय और परीक्षण का युद्ध था, वहां दिवेर-छापली का युद्ध एक निर्णायक युद्ध बना। इसी विजय के फलस्वरूप संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। एक अर्थ में हल्दीघाटी के युद्ध में राजपूतों ने रक्त का बदला दिवेर में चुकाया। दिवेर की विजय ने यह प्रमाणित कर दिया कि महाराणा का शौर्य, संकल्प और वंश गौरव अकाट्य और अमिट है, इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराणा के त्याग और बलिदान की भावना के नैतिक बल ने सत्तावादी नीति को परास्त किया। महाराणा प्रताप के सिंहासनारूढ़ होने के समय मेवाड़ के जितने भूमि पर उनका अधिकार था, उतने ही भूमि पर पूर्ण रूप से पुनः उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका।
और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे। यह समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ईस्वी में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परन्तु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई। मुगल बादशाहों के चारण गाने वाले भाट इतिहासकारों के अनुसार महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया था और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद ही आगरा ले आने का हिम्मत जुटा सका था। यद्यपि मुगल अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, तथापि उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं थी, बल्कि अपने सिद्धान्तों और मूल्यों की लड़ाई थी।
अकबर अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, जबकि महाराणा प्रताप अपनी भारत मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ, क्योंकि ह्रदय से वह महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था, और अकबर को भली- भांति मालूम था कि महाराणा प्रतात जैसा वीर इस धरा पर कोई नहीं है। प्रताप की मृत्यु का समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आँसू आ गए। महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के समय अकबर लाहौर में था, और वहीं उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है। अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छन्द में विवरण लिखा है-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी ।
हिन्दी में अनुवाद-
हे गेहलोत राणा प्रतापसिंह तेरी मृत्यु पर शाह ने दाँतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आँसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालाँकि तू अपना आडा अर्थात यश या राज्य तो गवाँ गया, लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बाएँ कन्धे से ही चलाता रहा। तेरी रानियाँ कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों अर्थात बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरन्तर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूँ कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।
अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप को शत-शत कोटि-कोटि सादर नमन।