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आशियाना तो बच गया पर बस्ती बदरंग हो गयी हुजूर…!

भोपाल। मुख्यमंत्री द्वारा प्रदेश की अवैध कालोनियों या कहे बस्तियो को वैध करके नगर विकास की गोदी में एक जारज को औरस बनाने का काम किया हैं। कहा जा सकता है की आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए ही यह राजनीतिक फैसला किया गया होगा। अन्यथा सैकड़ों सहकारी भवन समितियों के करता –धर्ताओं द्वारा हजारों लोगों से पैसा लेकर उनको भूमि का भाग भी नहीं दिया गया ! वहीं भ्रष्ट बिल्डरों द्वारा बिना नक्शा पास कराये बिना जल –बिजली और निकास का प्रविधान किए बिना ही । अब उनके पाप कर्मो को पुण्य का दर्जा मिल गया ! अब होगा यह कि इन बस्तियों के लोगों की मांग अपने इलाको में सड़क, पानी, बिजली और निकास के साधनों के लिए स्थानीय नगर निकायों पर बिल्डर और दबंग नेता इन सुविधाओं को जन आकांछा बता कर आंदोलन और धरना प्रदर्शन करेंगे। अब यह कितना विकास करेगा यह समझा जा सकता है।

आसियाना बनाना सभी का सपना होता है, जैसे सभी महिलाओं का सपना होता है माँ बनना। परंतु सामाजिक व्यवस्था में यह विवाह नामक संस्था के पश्चात जायज़ या वाइड होता हैं। विवाह के पूर्व बच्चे का जन्म उसे अवैध या जारज ही मानता हैं। उसी प्रकार शासन व्यवस्था में भी आबादी की बसाहट एक व्यवस्थित प्रकार से इसीलिए भवन निर्माण के लिए कुछ सरकारी संस्थाए हैं, जो बस्ती की जरूरतों का आंकलन करके एक विस्तृत नक्शा पास करती है। तभी आबादी को नागरिक सुविधाएं मिलती है। अब यह सब मुख्यमंत्री की घोषण से व्यर्थ हो गयी हैं। सवाल यह है कि इसे मंगलकारी माना जाए अथवा अमंगलकारी ? तात्कालिक लाभ के लिए आबादी की बसाहट जैसे विषय पर जानकारों की राय विपरीत ही है। कारण पेयजल सुलभ करना और निकास का प्रबंध करना किसी भी बसाहट के लिए जरूरी है। मोहन जोदड़ों की खुदाई में मिले घरों में भी पेयजल संग्रहण और निकास की व्यवस्था हुआ करती थी। तब भी अगर ग्राम और नगर नियोजन निकाय नहीं रहे होंगे तब भी शासकों द्वारा कुछ नियम तो बनाए ही गए होंगे। फिर आज 21 वीं सदी में इन मूल प्रश्नों का समाधान किए बिना सभी बसाहटों को जायज़ करार दिया जाना अनेक सवाल पैदा करता है । भविष्य में भी यह परेशानी करेगा। इसका उदाहरण हमारी राजनीति में है स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी का उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे फिर उत्तराखंड के भी मुख्यमंत्री बने –परंतु एक गलती ने उनके स्वर्णिम जीवन की उपलब्धियों को अंधेरे से ढाँक दिया। किस प्रकार उनके पुत्र ने अपने जारज होने के कलंक को मुकदमा लड़ कर मुक्ति पायी और तिवारी जी का औरस पुत्र होने का गौरव प्राप्त किया। यद्यपि उसके जीवन का भी कारुणिक ही अंत हुआ, और अपनी पत्नी के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ। यह है परिणाम एक गलती का !

अगर देखा जाये तो इन अवैध बस्तियों के वोट शासक दल को ही मिलेंगे। इसकी कोई गारंटी नहीं हैं। क्यूंकि इन बस्तियों को बसने वालों में सभी दलों के दबंग नेताओं का हाथ होता हैं। नगर पालिका अथवा नगर निगम के वार्डों की इन बस्तियों को स्थानीय नेताओं का संरक्षण होता हैं। वे ही सरकारी भूमि पर अतिक्रमण कराने के जिम्मेदार होते हैं। वे ही बिलडरों से मिलकर पार्क या खेल के मैदान में निर्माण करा देते हैं। फिर खेल चलता है कि इसे कैसे कंपाउंड कराया जाये!

अगर हम सरकार के इस फैसले को सही मान लें तब हमे सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों को गलत मानना होगा जिसमे उन्होंने नोएडा और केरल में त्रिसुर में बीस और तीस मंजिली इमारतों को इस आधार पर बारूद लगवा कर नेस्तनाबूद करा दिया क्यूंकि उन्होंने भवन निर्माण के नियमों की अनदेखी की थी। अगर खेल के मैदान पर इन बहू मंजिली इमारतों को इस लिए ढहा दिया गया। की जरूरी अनुज्ञा नहीं ली गयी थी। अब इस परिदृश्य में हम अगर मुख्यमंत्री की घोषण को ले –तब पाएंगे फैसला कानूनी तौर पर सही नहीं हैंI

हक़ीक़त यह हैं कि सरकार की अपनी एजेंसियां जो भवन निर्माण करती है । वे भी टाउन अँड कंट्री प्लानीनिंग विभाग की शर्तों की अनदेखी करती हैं। एवं नियोजन विभाग इन पर इसलिए कार्रवाई करने से बचता है की ये शासकीय निर्माण हैं। सवाल यह है कि क्या शासकीय निर्माण को मनमानी करने की छूट है ? भोपाल नगर में तात्या टोपे नगर में स्मार्ट सिटी के नाम पर हो रहे निर्माणों में भवन निर्माण के नियमों का पालन हो रहा है ? उत्तर है नहीं ! दसहरा मैदान में खड़ी बहू मंजिली सात इमारतें विगत आठ माह से अपने रहवासियों का इंतज़ार ही कर रही हैं ! क्यूंकि अभी तक सरकार को इतनी फुर्सत नहीं मिली इतने उद्घाटनों के बीच इन आवासीय इमारतों का उदघाटन कर सरकारी सेवकों को रहने का मौका दिया जाये। पर ऐसा क्यूं हो रहा हैं स्मार्ट सिटी के पीआरओ के अनुसार इनका निर्माण अनुबंध की सीमा हो गया है –परंतु पानी के निकास का प्राविधान नहीं हो पाया है, इसलिए इमारत को राज्य संपदा विभाग को नहीं सौंपा जा सका है। अब सवाल हैं कि जब सरकारी एजेंसी ही भवन निर्माण के नियमों की अनदेखी कर रही है तब छुटभैये बिल्डरों को क्या दोष देना।

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