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भाजपा में भाषणों से बोरियत, कांग्रेस में संवादों से रौनक…

भोपाल। इस दफा न काहू से बैर का आगाज मशहूर शायर हसरत मोहानी के एक शेर से कर रहे हैं-
“कुछ लोग थे कि वक्त के सांचे में ढल गए
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गए…”
अब सियासी दलों में सांचे बदलने वाले नेता- कार्यकर्ता दुर्लभ हो गए हैं। हालात के हिसाब से भाजपा के एक नेता राज चड्डा की एफबी पर यह टिप्पणी काफी कुछ बयां करती है-
मुझ से पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग-
न तू पहले जैसा रहा, न मेरी दीवानगी…

सोशल मीडिया पर उनके इस शायराना अंदाज़ पर आने वाली टिप्पणियों ने भाजपा के खांटी कार्यकर्ताओं की भावनाओं को व्यक्त करने का प्लेटफार्म बना लिया है। दरअसल पार्टी की बैठकों में विचारों का आदान प्रदान नन्दू भैया के कार्यकाल के बाद बंद सा हो गया है। प्रदेश के बड़े नेता और दिल्ली आने वाले ज्ञानी जन केवल भाषण देते हैं और चले जाते हैं। कार्यकर्ता भी सुनकर घर आ जाता है।
जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक संगठन की शक्ति कार्यकर्ताओं से संवाद और दिल खोलकर विचार विमर्श ही हुआ करती थी। अब तो जो भी आता है पार्टी को जिताने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं को नसीहत और नुस्खे भरे भाषण देकर चला जाता है। सुनकर कान पक गए हैं। पाठ वे पढ़ाते हैं जिनके रहते उनके अपने गृह राज्यों में भाजपा सत्ता में नही आई और न वे चुनाव जीते। अब भला पांचवी फेल, ग्रेजुएट को पढ़ाए तो क्या परिणाम होगा…

संगठन में सामूहिक निर्णय लिए जाते थे। एकबार सबने मिलकर जो तय किया उसमें निजी पसंद- नापसंदपार्टी को किनारे कर लक्ष्य हासिल करने में सब जुट जाते थे। इसी वजह से भाजपा दूसरों से अलग और उसके कार्यकर्ता विशेषकर मध्यप्रदेश को देवदुर्लभ संगठन का दर्जा हासिल था। देश में कहीं भी चुनाव हों या संगठन को सुधारने की बात हो मप्र के कार्यकर्ताओं का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान या भूमिका देखी जाती थी। भाजपा में एक बात बहुत प्रचलित रही है कि मप्र में मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं को संगठन शास्त्र का ज्ञान और सच व्यक्त करने का व्यवहारिक अनुभव इतना होता है कि दूसरे दल तो दूर भाजपा में ही राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी उनके समक्ष बौना शब्द थोड़ा अतिश्योक्ति लग सकता है लेकिन कमतर महसूस जरूर करते होंगे। बहुत सारे किस्से कहानियों में दिग्गज नेता सुंदर सिंह भंडारी के समय का एक बहुत चर्चित वाक्या है। पार्टी को मजबूत करने के लिए कार्यकर्ताओं से संवाद की एक बैठक हो रही थी। जब उन्होंने पूछा कि प्रदेश में गुटबाजी कैसे खत्म की जाए ? तब प्रदेश भाजपा में कुशाभाऊ ठाकरे, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, प्यारेलाल खण्डेलवाल, नारायण प्रसाद गुप्ता, सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी जैसे नेताओं के पीछे कार्यकर्ता खड़े रहते थे। इनमें से एक गुट के नेताओं के नजदीक भंडारी जी भी माने जाते थे।

गुटबाजी के सवाल पर एक कार्यकर्ता ने हाथ उठाया और उनसे से विचार प्रकट करने के लिए कहा गया। उसने कहा भाई साब नीचे तो हम सब कार्यकर्ता एक हैं। गुटबाजी तो ऊपर है। इसलिए जब आप किसी भी गुट के कार्यकर्ता के पक्ष या विपक्ष में निर्णय करने के पहले नीचे सूचित करते हैं तो उसकी घोषणा के पहले हमें पता चल जाता है। क्योंकि नेताओं में भले ही गुटबाजी हो हम कार्यकर्ता तो सब एक हैं। उस कार्यकर्ता ने कहा इसलिए टोंटियां साफ करने से काम नही चलेगा बेहतर हो टंकियां साफ की जाए। ये तो एक बानगी है। आंखें खोलने वाले ऐसे विचार विमर्श स्वागत योग्य और स्वीकार्य होते थे। पहले कार्यकर्ताओं को ठकुर सुहाती बातें करने की और अपने नेताओं से सुनने की आदत भी नही थी। इसलिए वरिष्ठ नेताओं और संगठन मंत्रियों का निर्णायक अवसरों पर दो टूक कड़वा सच भी स्वीकार्य होता था। लेकिन 2003 के बाद संवाद, विमर्श और सामूहिक निर्णय का अभ्यास धीरे धीरे समापन की तरफ चला गया। अब हर कीमत पर धन कमाने और वैभव का भोग करने की तृष्णा सिर चढ़ कर बोलने लगी। गणेश परिक्रमा ने प्रमुख स्थान पा लिया। निर्णय करने वाले मक्कार, धूर्त, चाल- चरित्र के मामले में निकृष्ट कार्यकर्ताओं से ऐसे घिरे कि उनके हाथ से सुबह उठते और रात को उनसे विधायक, मंत्री और सीएम बनने वाली लोरियों को सुन सोते हैं। इसलिए मप्र में भाजपा हर दिन अपने उत्कर्ष के बाद पराभव की नई फिसलन को स्पर्श करती दिख रही है।

यह सब लिखने की वजह पिछले दिनों एक आदम कद नेता के यहां वैवाहिक समारोह में शिरकत करने का अवसर मिला और वर्तमान हालत को लेकर कार्यकर्ताओं की बैचेनी,बेवसी,पीड़ा सबसे खास रही। वे मप्र भाजपा की हालत के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व की आत्मघाती लापरवाही और संघ परिवार के प्रचारकों की अनुभवहीनता और महत्वाकांक्षाओं को दोषी मानते हैं। इस पर विस्तार से फिर कभी लिखा जाएगा। अभी तो इसी थोड़े को बहुत समझने की आवश्यकता है। पानी तो सिर के ऊपर निकल चुका है। कहावत है न- बहुत सारे रसोइए खाना खराब कर देते हैं।

दिग्विजयसिंह अकेले चले और कारंवा…
कांग्रेस में ऐसा नहीं लग रहा था कि कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद 2023 में वह भाजपा संगठन और शिवराज सरकार को टक्कर देने की स्थिति में आ सकेगी। राजनीति में भाजपा नेता भले ही दिग्विजय सिंह की उम्र को लेकर हास परिहास करें लेकिन अंदर खाने की बात यही है कि उन्होंने कांग्रेस में अगर किसी से चुनौती मिल रही है तो उसमें सबसे आगे दिग्विजय सिंह का नाम है। एक बैठक में पूरे धैर्य के साथ लगभग 60 नेता- कार्यकर्ताओं के विचार नोट करते हैं और फिर उनके सवालों और आशंकाओं का सिलसिलेवार समाधान करते हैं। यह सब पहले कभी भाजपा में हुआ करता था। इसी से कार्यकर्ता सक्रिय और पार्टी मजबूत होती है।

सिंह 75 साल की उम्र 16 घंटे काम इसमें कार्यकर्ताओं नेताओं पत्रकारों पार्टी की गुटबाजी को खत्म करने की कोशिशें पार्टी के असंतुष्ट पर नजर रखने के साथ यह संदेश देना और भाजपा के असंतुष्टों से भी सम्पर्क बनाए रखना। इसके अलावा कांग्रेस में आंतरिक गुटबाजी में समन्वय और संतुलन बना कर चलना। यह काम करना आसान नही होता है। दिग्विजयसिंह की यह कोशिश भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को चुनौती भी दे रही है और उन्हें चिंता में भी डाल रही है। गुटों बंटी कांग्रेस और हताश कार्यकर्ताओ में जान फूंकने का काम बहुत कठिन है लेकिन कछुआ चाल से यह कार्य वे करने में दिनरात लगे हैं। उनके मैराथन प्रयास भाजपा को परेशान किए हुए हैं। हारी हुई 66 विधानसभा सीटों पर उनके दौरों ने कांग्रेस में प्राण फूंक दिए हैं

सबको पता है 2018 के चुनाव में कार्यकर्ताओं के पंगत में संगत ने भाजपा को नंबर दो पर धकेल दिया था। इसमे उनकी नर्मदा यात्रा ने भी जबर्दस्त भूमिका निभाई थी। 2023 में वे फिर एक यात्री के रूप में पूरे प्रदेश में एक महत्वपूर्ण राउंड पूरा कर कांग्रेस के पक्ष में वोटर की धारणा बदलने के प्रयास में लगे हैं। पहले कभी इस तरह के काम भाजपा के नेता किया करते थे। अपनी यात्रा में सिंह सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को यह चेतावनी देने नही चूकते कि अगली सरकार कांग्रेस की बनने वाली है इसलिए वे निष्पक्ष होकर काम करें। माहौल को देखते हुए अफसरशाही में इसका असर भी महसूस किया जा रहा है।

सिंह अपने हम उम्र पूर्व सीएम कमलनाथ से उनका तालमेल कांग्रेस को बेहतर बनाए हुए है। कमलनाथ अपने स्वभाव के विपरीत कार्यकर्ता और पत्रकारों से मेलजोल बढ़ा रहे हैं। इससे नाथ की छवि भी पॉजिटिव बन रही है। इस काम में उनके मीडिया सलाहकार पीयूष बवेले की भी भूमिका अहम है। नाथ अपनी छवि को लेकर सजग हैं और आने वाले दिनों में उनकी कार्य शैली में सकारात्मक बदलाव नजर आ सकते हैं।

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