भोपाल। मध्यप्रदेश में कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस के हौसले बुलंद तो भाजपा में ऑल इज वेल नहीं यह स्थिति काफी हद तक माउथ पब्लिसिटी के कारण बनी है.. भाजपा कांग्रेस के कार्यालय उनके नेताओं के बंगले पर भीड़भाड़ से जो माहौल बना है उससे यही संदेश निकल कर आ रहा कि कांग्रेस में जोश तो भाजपा में टांग खिंचाई के साथ डैमेज कंट्रोल को पार्टी के नीति निर्धारक मजबूर नजर आ रहे.. संघ, भाजपा कॉन्ग्रेस के निजी और सरकारी सर्वे से छन छन कर आ रही अपुष्ट खबरों ने कांग्रेस को निर्णायक बढ़त भले ही नहीं दिलवाई लेकिन भाजपा की सीटों की संख्या और वर्तमान मंत्री विधायकों की लोकप्रियता में भारी गिरावट के संकेत दिए ही.. जब संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के हवाले से मोदी मैजिक हिंदुत्व के भरोसे तक सीमित नहीं रहने और राज्यों में जिससे मध्य प्रदेश अछूता नहीं मजबूत लोकप्रिय नेतृत्व के साथ स्थानीय मुद्दों कि चुनाव में निर्णायक भूमिका बताई गई है तब ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है क्या बदलते माहौल में यदि बीजेपी नहीं संभली तो क्या सल्तनत भी बदलेगी.. लोकस भा चुनाव से पहले राजस्थान छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जहां विधानसभा चुनाव होना है ..
इसमें शामिल मध्यप्रदेश वह राज्य है जहां बीजेपी के लिए जीत के साथ सरकार बचाने की ज्यादा संभावनाएं.. तो बदलते राजनीतिक परिदृश्य में नई चुनौतियां से भाजपा जूझ रही है.. मध्यप्रदेश में 2018 में सरकार नहीं बना पाई बीजेपी ने सिंधिया की बगावत से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर 15 महीने में अपनी वापसी सुनिश्चित करा ली थी, गुजरात और उत्तर प्रदेश के बाद संघ की दिलचस्पी मध्यप्रदेश में हमेशा विशेष तौर पर बनी रही.. मध्यप्रदेश के मजबूत संगठन का उदाहरण अटल आडवाणी से लेकर मोदी शाह और नड्डा दूसरे राज्यों में देते रहे.. फिलहाल मध्य प्रदेश भाजपा पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है.. संगठन में बड़े बदलाव के बाद 2023 विधानसभा के अंदर भी भाजपा नए चेहरों को लाने की मशक्कत में जुटी है.. हिमाचल और कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद यह किसी चुनौती से कम नहीं होगा..
क्योंकि कई अनुभवी विधायक मंत्री मैदान और टिकट छोड़ने को तैयार नहीं है.. प्रधानमंत्री मोदी के सबसे भरोसेमंद मुख्यमंत्री शिवराज के नेतृत्व में सरकार ने काफी हद तक कोरोना से जंग जीती, उप चुनाव जीते डबल इंजन की सरकार से जन हितेषी योजनाओं के जरिए मतदाताओं के एक बड़े वर्ग तक हितग्राहियों की मदद से अपनी पहुंच और मजबूत पकड़ साबित की.. लेकिन चुनावी साल में कथित भ्रष्टाचार, मंत्रियों की संगठन और कार्यकर्ताओं से बढ़ती दूरी और संवाद हीनता ने चुनावी साल में भाजपा के सामने समस्याओं का अंबार लगा दिया है.. सरकार चल रही ..संगठन चिंतन मंथन बैठकों के दौर से गुजर रहा लेकिन परसेप्शन यही बना कि चुनाव जीतने के लिए सब कुछ ठीक-ठाक नहीं हैं.. यह स्थिति सत्ता और संगठन के बीच अपेक्षित समन्वय स्थापित नहीं हो पाने और राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा चुनाव की रणनीति को लेकर किलियरटी नहीं होने के कारण बनी है ..
मध्य प्रदेश के प्रभावी मुरलीधर राव के कार्यकाल में ही भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच संवाद हीनता बढी है..रही सही कसर पुरानी और नई पीढ़ी के बीच खत्म नहीं हो रही टकरा हट और सागर जिले में भाजपा के अंदर मंत्रियों के बीच तकरार जैसी अघोषित स्थिति दूसरे संभागो में भी निर्मित होने ने बना दी है.. सबसे ज्यादा समस्या विंध्य, बुंदेलखंड और ग्वालियर चंबल में जिनके अपने स्थानीय कारण हैं.. निमाड़ मालवा से लेकर महाकौशल और मध्य भारत में ऐसे मुद्दों की भरमार है जो भाजपा की परेशानी बढ़ा सकते हैं.. क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल के कार्यकर्ताओं से मेलजोल और मिले फीडबैक के बाद सामने आई चुनौतियों से नेतृत्व अनजान नहीं है.. प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव का सोशल मीडिया प्रेम चर्चा में है . मध्य प्रदेश के पूर्व प्रदेश प्रभारी ओम प्रकाश माथुर अनंत कुमार ही नहीं विनय सहस्त्रबुद्धे की तुलना में मुरलीधर कमजोर और अनुभवहीन साबित हुए हैं.. जिसका नतीजा सामने है सत्ता और संगठन में जो सामान्य से पार्टी की बेहतरी के लिए होना चाहिए वह नहीं बन पाया..
ऐसी विपरीत स्थिति से पार्टी को बाहर निकालने में राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश तमाम कोशिशों के बावजूद माहौल पूरी तरह भाजपा के पक्ष में चाह कर भी नहीं बना पाए.. आए दिन छोटी-बड़ी बैठकें कार्यकर्ताओं को जरूरत से ज्यादा काम और उनकी सुनवाई नहीं होने से जमीनी कार्यकर्ता गुस्से में भले ही ना हो लेकिन उनकी हताशा निराशा छुपाई नहीं छुप रही है.. शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल का पुनर्गठन लगातार टलते रहना.. विष्णु दत्त की टीम के कई अनुभवहीन पदाधिकारी और मीडिया टीम में आक्रामकता और तैयारी का अभाव का सीधा फायदा पक्षी कांग्रेस बखूबी उठा रही है.. कोर कमेटी और दिग्गजों के मेल मिलाप के बावजूद महत्वपूर्ण फैसले लंबित जिससे कार्यकर्ताओं में जोश नहीं भरा जा सका है.. कमलनाथ सरकार की 15 महीने में परेशान हो चुका बीजेपी का कार्यकर्ता अपनी सरकार की वापसी चाहता है.. पर नेताओं जिसमें मंत्री विधायक कुछ पदाधिकारी शामिल उनकी हठधर्मिता और मैं मेरा परिवार के साथ पट्ठावाद कार्यकर्ताओं की उस नई पीढ़ी को शायद भरोसे में नहीं ले पाई जो बदलाव के इस दौर में सरकार में भी नई भाजपा का प्रतिनिधित्व चाहता है..
मध्यप्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच बेहतर समन्वय पर जो सवाल गाहे-बगाहे खड़े होते रहे आखिर उसके लिए जिम्मेदार कौन है या इस विपरीत परिस्थितियों से पार्टी को बाहर निकालने की जिम्मेदारी किसकी है ..मध्यप्रदेश में प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव चुनावी साल में पार्टी और नेतृत्व के लिए मजबूत या फिर कमजोर कड़ी साबित हो रहे.. यह वह सवाल है जिसे राष्ट्रीय नेतृत्व को समय रहते समझना होगा.. यही नहीं नया फार्मूला और नई जिम्मेदारी में नए अनुभवी नेताओं को समाहित कर उसे स्क्रिप्ट को आगे बढ़ाना होगा.. फिलहाल भाजपा से जुड़ी तीन घटनाओं ने कार्यकर्ता ही नहीं मतदाताओं को भी सोचने को मजबूर कर दिया है ..पहला.. प्रदेश अध्यक्ष के लिए प्रहलाद पटेल के नाम से मचे बवाल पर पार्टी के नीति निर्धारकों की लंबी चुप्पी.. स्पष्टीकरण और सच्चाई के लिए मीडिया के सामने आने का साहस न समय रहते कोई जुटा पाया नतीजा विवाद और बवाल बढ़ता गया.. समझा जा सकता है संदेश क्या गया.. दूसरी घटना सागर जिले के मंत्री विधायकों में अनबन से आगे खुला विवाद जो मीडिया के मार्फत मतदाताओं तक जा पहुंचा और जिसके लिए मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा..
मामला सुलझ गया हो और दिल मिल गए हो यह कहना फिलहाल जल्दबाजी है.. सवाल क्या यह स्थिति और दूसरे जिलों और संभाग में निर्मित है और कभी भी विवाद पार्टी की परेशानी बढ़ा सकता है.. तीसरा विवाद इसी से जुड़ा मंत्री भूपेंद्र सिंह का लोकायुक्त की जांच के दायरे में आना.. जिसके तार महाकाल लोक के निर्माण से भी जोड़े जा रहे.. सवाल भूपेंद्र सिंह तक सीमित नहीं रहता बल्कि अनियमितता और कथित भ्रष्टाचार के दायरे में विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस द्वारा कई और मंत्रियों के शामिल होने तक जोड़े जा रहे हैं.. यहीं पर सवाल नया खड़ा हो जाता है क्योंकि कर्नाटक में 40% भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाकर चुनाव जीतने वाली कांग्रेस मध्यप्रदेश में इस लाइन को 50% तक बढ़ाने की ओर आगे बढ़ चुकी है.. सवाल यह भी खड़ा होता है कि प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव की आखिर ऐसे में भूमिका क्या होना चाहिए..
क्या चुनाव में शिवराज सिंह सीएम चेहरा होंगे? प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस सवाल पर प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव का लहजा और जवाब दोनों गौर करने लायक थे.. गंभीरता कम असमंजस ज्यादा पैदा करने वाला जवाब देते हुए मुरलीधर कहते हैं अभी सीएम शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं। अभी 5 महीने वे मुख्यमंत्री हैं। चुनाव डिक्लेअर होने के बाद जब मैं आपके पास आऊंगा, तब जवाब दूंगा। अभी मैं आपके माध्यम से वोट नहीं मांग रहा। तीन बार अभी का उल्लेख कर प्रदेश प्रभारी ने मानव विपक्ष को सवाल खड़ा करने का मौका दे दिया..कांग्रेस ने बीजेपी नेता के इस विवादित बयान को लपक ट्वीट कर भाजपा के नेतृत्व, नीति निर्धारक और नीयत पर सवाल खड़े कर दिए.. ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि आखिर भाजपा में यह भ्रम और असमंजस दूरगामी चुनावी रणनीति का हिस्सा है..
या फिर किसी के पास कहने को कुछ भी नहीं है.. सभी कई हफ्तों और महीनों से केंद्रीय नेतृत्व को निहार रहे हैं.. जहां दिल्ली में संगठन की बैठकों में चिंतन मंथन निर्णायक दौर में पहुंच चुका है.. मुरलीधर के इस ताजा बयान से कुछ दिन पहले ही प्रदेश के पूर्व प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन और मुख्यमंत्री शिवराज के नेतृत्व में 2023 विधानसभा चुनाव लड़ने के स्पष्ट संकेत दिए थे.. उन्होंने बखूबी स्थिति को संभाला और कम से कम विपक्ष को हमला करने का मौका नहीं दिया था.. यह पहला मौका नहीं है जब मुरलीधर राव की या तो जुबान फिसली या फिर दक्षिण भारतीय होने के कारण वह अपनी बात सही लफ्जों में कह नहीं पाए.. लेकिन कड़वा सच यह भी है जो कहा उसका लहजा यह बता रहा था कि वह अपनी बात पुरजोर तरीके से बिना लाग लपेट के रखते हैं..
पार्टी फोरम पर नेताओं और कार्यकर्ताओं पर दबाव समझ में आता लेकिन मीडिया से बात करने पर उनकी आक्रमकता पहले भी समाधान कम समस्या ही खड़ी करती रही है.. मुरलीधर के ब्राह्मण , बनिया जेब में वाला पुराना बयान हो या फिर नालायक और मंत्रियों, विधायकों के टिकट काट देने से जुड़ी टिकट के क्राइटेरिया की बात हो.. समूचा नेतृत्व और पार्टी उस समय भी असमंजस में नजर आई.. इससे पहले बीजेपी के प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव ने एक और पुराना ट्वीट जिसमे उन्होंने लिखा था ”ना राजशाही!, ना परिक्रमाशाही!, अब चलेगी सेवाशाही।”. राव के इस ट्वीट को टिकट वितरण के संकेत से ही जोड़कर देखा गया.. विधायकों मंत्रियों के टिकट काटने की चेतावनी दे चुके मुरलीधरराव ने बयान देते हुए कहा था कि ”चुनाव में टिकट उन्हीं नेताओं को मिलेगा जो दरी उठाने और मेहनत करने में सबसे आगे हैं, क्योंकि मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं को ही टिकट मिलेगा.”
उनके ट्वीट से भी यह बात स्पष्ट होती रही है, इस बार के चुनाव में बीजेपी टिकट वितरण में सख्ती दिखा सकती है… जिसने 3 से अधिक चुनाव जीतने वाले विधायकों और मंत्रियों राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया था.. संघ की पृष्ठभूमि के मुरलीधर राव ने यदि भाजपा संगठन के मजबूत गढ़ माने जाने वाले मध्य प्रदेश के नींव के पत्थरों कुशाभाऊ ठाकरे प्यारेलाल खंडेलवाल की कार्यशैली पर गौर किया होता तो पुरानी और नई पीढ़ी के बीच शायद वह बेहतर संतुलन समय रहते बना लेते.. मुरलीधर के प्रदेश प्रभारी रहते हैं मध्य प्रदेश के सत्ता और संगठन में आए दिन गलतफहमी अनबन और नेताओं के बीच मतभेद की खबरें चर्चा का विषय बनती रही है.. कोर कमेटी का फोरम हो या फिर सार्वजनिक मंच पर कई जिम्मेदार नेता मध्य प्रदेश भाजपा में संवाद हीनता और सामान्य की सियासत पर सवाल खड़ा कर चुके हैं.. पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही मध्य प्रदेश भाजपा में जो काम प्रदेश प्रभारी को अपनी प्राथमिकता में शामिल करना चाहिए था शायद वह अंजाम तक नहीं पहुंचा..
नतीजा चुनावी साल में कभी मंत्रिमंडल तो कभी संगठन के फोरम पर सामंजस्य की कमी बड़ी समस्या बनकर सामने आता रहा.. राजधानी के प्रदेश भाजपा कार्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस से लगभग दूरी बना चुके प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव पार्टी की बैठकों में भी कई चुनाव जीत चुके विधायक और मंत्रियों को आइना दिखा हड़कड़ाते रहते रहे.. इन दिनों प्रदेश प्रभारी से ज्यादा सोशल मीडिया के मास्टर बनकर कार्यकर्ताओं के सामने जाते हैं.. पार्टी के और दूसरे निर्णायक फोरम पर फैसलों का अभाव साफ देखा जा सकता.. पार्टी के राष्ट्रीय कार्यक्रमों को छोड़ दिया जाए तो प्रदेश प्रभारी का पूरा फोकस सोशल मीडिया पर बना हुआ.. इसके लिए कार्यकर्ताओं से ज्यादा निजी एजेंसी,नई दुकानों और मध्य प्रदेश की सीमा से बाहर कार्यकर्ताओं पर ज्यादा भरोसा.. चर्चित भारत नीति से जोड़कर मध्य प्रदेश की चुनावी नीति को अंजाम देने में जरूर वो पूरी शिद्दत से जुटे हैं.. वह बात और है कि माहौल पार्टी के पक्ष में पूरी तरह नहीं बन पा रहा है.. जिस सोशल मीडिया को उन्होंने जीत का हथियार मान लिया उस पर भी कॉन्ग्रेस की ओर से उनकी टीम को बड़ी चुनौती मिल रही है.. कांग्रेस को चुनौती देने के लिए मीडिया में बदलाव के बाद नई स्क्रिप्ट का इंतजार है.. भाजपा सरकार और संगठन की प्रभावी प्रचार तंत्र पर आम जनता ही नहीं पार्टी कार्यकर्ता और और हताश निराश नेताओं की ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग माहौल यह बना कि माउथ पब्लिसिटी भाजपा की परेशानी बढ़ा रही है..
प्रदेश प्रभारी रहते पार्टी में जरूरी समन्वय, केंद्रीय नेतृत्व और पार्टी की रीढ़ माने जाने वाले कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं को जमीन पर उतारने में मुरलीधर पूरी तरह सफल पार्टी के अंदर यह नहीं मानने वाले खूब मिल जाएंगे.. सवाल सोशल मीडिया तक सीमित होकर रह गए मुरलीधर क्या समय रहते हस्तक्षेप कर चुनावी साल में भाजपा को ऐसे विवादों से क्या नहीं बचा सकते .. सवाल तब और खड़े हो जाते हैं जब मुरलीधर के बयानों से सरकार के लिए परेशानी और बढ़ जाती और पार्टी में बवाल मच जाता.. सागर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुरलीधर के बयान को सामने रखकर कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में नेतृत्व के मुद्दे को एक बार फिर विवादों में ला दिया.. पार्टी की बैठकों में ब्राह्मण बनिया का विवादित बयान पहले ही बड़ी समस्या खड़ी कर चुके.. मोदी सरकार की लाइन को मध्यप्रदेश में आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हो और इसमें मंत्री विधायकों के लिए गाइडलाइन और उन्हें नई राह दिखाने का मामला हो मुरलीधर और बेहतर जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा सकते थे..
विष्णु दत्त और उनकी टीम को नए सिरे से मोटिवेट करने और नई चुनौतियों से आगाह कर नई रणनीति पर काम करने में आखिर मुरलीधर बतौर प्रदेश प्रभारी कितने सफल रहे.. इसका मूल्यांकन पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को समय रहते करना होगा.. यदि सत्ता और संगठन के बीच में समन्वय नहीं बन पाया तो क्या प्रदेश प्रभारी इस जिम्मेदारी से बच सकते हैं.. सत्ता और संगठन की इस मजबूत और निर्णायक कड़ी जो पार्टी हाईकमान का प्रतिनिधि भी है.. प्रदेश प्रभारी आखिर भाजपा को पटरी पर क्यों नहीं ला पा रहे.. पार्टी से आगे व्यक्ति विशेष के बीच यदि अनबन, रस्साकशी, अनबोला की स्थिति निर्मित होती है तो क्या यह जिम्मेदार नेता की परिपक्वता का नतीजा है.. सही फीडबैक प्रदेश प्रभारी तक नहीं पहुंच पा रहा या फिर वह सुनने में ही कोई दिलचस्पी नहीं लेते.. सवाल क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल जिन्होंने प्रदेश का सघन दौरा करके समस्याएं जानी कार्यकर्ताओं को भड़ास निकालने का मौका भी दिया आखिर समस्या का समाधान भी स्थानीय स्तर पर क्यों नहीं निकाल पाए..
जो माहौल मध्यप्रदेश में भाजपा के अंदर खासतौर से कर्नाटक चुनाव के बाद बना इसको पार्टी नेतृत्व गंभीरता से क्यों नहीं ले रही.. भाजपा विधायकों मंत्रियों से नाराजगी और हताश निराश कार्यकर्ताओं में गुस्सा क्या इस बात में दम है.. संघ के प्रतिनिधि और राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की टीम में शामिल अनुभवी राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश क्या अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं.. या फिर इसे भाजपा के रणनीतिकारों का अति आत्मविश्वास माना जाए.. वह भी तब जब कर्नाटक में भाजपा की हार ने एक नई बहस छेड़ दी है कि स्थानीय नेतृत्व मजबूत और लोकप्रिय होना चाहिए था यही नही अब चुनाव में स्थानीय मुद्दों को दरकिनार नहीं किया जा सकता.. फिलहाल भाजपा मोदी सरकार के 9 साल पूरे होने पर जश्न मना रही और उपलब्धियों को जनता तक ले जा रही.. मुख्यमंत्री रहते शिवराज ने मोदी और अपनी सरकार की जन हितेषी योजनाओं के भरोसे 2023 की जीत की बिसात बिछाई है.. तो कांग्रेस ने कर्नाटक के पांच जीत के फार्मूले को मध्यप्रदेश में आगे ले जाने के संकेत दिए..
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव 2023 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन और मुख्यमंत्री शिवराज के नेतृत्व में होंगे.. यह स्पष्टीकरण मध्य प्रदेश के प्रभारी मुरलीधर राव को देना चाहिए था लेकिन संदेश प्रदेश के पूर्व प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे ने दिया.. चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा की भूमिका के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया जिन्होंने अपने समर्थकों के साथ बगावत कर शिवराज की सरकार चौथी बार बनवाई आखिर महाराज की भूमिका इस चुनाव में भाजपा के अंदर क्या होगी.. जो पिछले चुनाव में माफ करो महाराज के जुमले के साथ भाजपा के निशाने पर थे और जिन्हें कांग्रेस ने उस वक्त चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपी थी.. मध्यप्रदेश में शिवराज और दिल्ली में मोदी और शाह के साथ कदमताल कर अपनी उपयोगिता साबित करते रहे केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की भी आखिर मध्यप्रदेश में चुनाव के दौरान क्या भूमिका होगी.. यही नहीं पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती से लेकर राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल जैसे नेताओं का पार्टी क्या उपयोग करना चाहेगी इसकी पटकथा अभी तक सामने नहीं आई.. यही कारण है कॉन्ग्रेस गदगद है उसके कार्यकर्ताओं में जोश है और कमलनाथ के स्वीकार नेतृत्व में पार्टी सत्ता वापसी के लिए जी जान से जुट चुकी है..बकौल कमलनाथ प्रियंका गांधी के महाकौशल जबलपुर दौरे से कांग्रेस चुनाव प्रचार का आगाज करने जा रही है.. वह बात और है कि राहुल गांधी की मौजूदगी में दिल्ली बैठक में कमलनाथ के नेतृत्व पर सवाल खड़े किए गए..
लेकिन पार्टी के अंदर उनकी पकड़ कमजोर नहीं हुई.. कमजोर संगठन और महत्वाकांक्षी नेताओं के बावजूद कमलनाथ भाजपा में सेंध लगाने और माहौल बनाने में अभी तक सफल ही नजर आ रहे हैं.. इसका मतलब कतई यह नहीं कि कांग्रेस अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच चुकी है.. क्योंकि अंदरूनी झगड़े झंझट और टिकट को लेकर माथापच्ची से कांग्रेस भी कलह ऐसे अछूती नहीं है.. कांग्रेस की रणनीति शिवराज और भाजपा के मुकाबले इस चुनाव में जनता को सामने लाकर खड़े करने की है.. जिससे भाजपा के खिलाफ माहौल का फायदा सीधा कांग्रेस और कमलनाथ को मिल सके.. यहीं पर सत्ता में रहते खासतौर से डबल इंजन की सरकार वाली भाजपा एंटी इनकंबेंसी के साथ कई और दूसरी चुनौतियों के साथ अंदरूनी समस्याओं से जूझने को मजबूर है..