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एकता के सात फेरे और एक अदरक-पंजा

अजूबा तभी होगा, जब प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं के चेहरे यक-सां होने के साथ-साथ उन सभी के ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मन भी आपस में घुलमिल जाएं। क्या यह आसान होगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, मार्क्सवादी पार्टी और कांग्रेस के जन-जन एक-दूसरे के लिए रूह-अफ़ज़ा हो पाएंगे? क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के पट्ठे गलबहियां कर घूमने लगेंगे? क्या केरल में वाम दलों और कांग्रेस के धरतीपुत्र मिलजुल कर चुनावी खेत में हल चला लेंगे?

बुधवार को कांग्रेस-अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और पूर्व-अध्यक्ष राहुल गांधी से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की मुलाकात के बाद विपक्षी एकता की कोशिशें ठोस आकार लेती तो दिखाई देने लगी हैं, लेकिन इस मिलन की तसवीरों को देख कर अभी से फुदकना शुरू कर देने वाली कांग्रेस की लिपिक-टोली को यह बताना ज़रूरी है कि दिल्ली अभी उतनी ही दूर है, जितनी 2019 में थी। यह अलग बात है कि दिल्ली नरेंद्र भाई मोदी से भी अब दिन-ब-दिन दूर होती जा रही है और वे 2024 में उसे गप्प से गटकने की स्थिति में नहीं हैं, मगर इतनी कूवत उन में एक बरस बाद भी बनी रहेगी कि वे दिल्ली को अपने अदरक-पंजों से पूरी तरह बाहर न जाने दें। 2014 में वे जिस तरह दनदनाते हुए रायसीना-पहाड़ी पहुंचे थे, 2024 में उन्हें उसी तरह सनसनाते हुए इस पहाड़ी से नीचे ठेल देने लायक हैसियत विपक्ष की अभी नहीं हुई है। बचे बारह महीने में अगर हो जाए तो वह विलक्षण चमत्कार होगा।

विपक्षी एकता की राह में कई घुमावदार मोड़ अभी बाकी हैं। बंद-कमरा बातचीत में हालांकि नीतीश ने राहुल-खड़गे को भरोसा दिलाया है कि वे ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को विपक्ष की बेलबूटी-जाजम पर सब के साथ बिठा देंगे, मगर क्या वे सचमुच ऐसा कर पाएंगे? तेजस्वी ने भी अखिलेश यादव को इस दस्तरख़ान तक ले आने का विश्वास राहुल के सामने ज़ाहिर किया है, लेकिन वे इस में कितने कामयाब होंगे, मालूम नहीं। ममता, केजरीवाल और अखिलेश को अगर नीतीश-तेजस्वी ने विपक्ष के सफ़र में कांग्रेस का साथी बना दिया, तब तो समझ लीजिए कि आगामी आम चुनाव का भवसिंधु दो तिहाई से ज़्यादा पार हो गया। शरद पवार, उद्धव ठाकरे, एम. के. स्टालिन और वाम दल पहले से साथ हैं। मायावती और के. चंद्रशेखर राव सरीखों ने अगर अपना बखेड़ा समेट लिया तो 2024 की गर्मियों में आप एक अद्भुत करिश्मा घटता हुआ देख भी सकते हैं।

मगर यह अजूबा तभी होगा, जब प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं के चेहरे यक-सां होने के साथ-साथ उन सभी के ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के मन भी आपस में घुलमिल जाएं। क्या यह आसान होगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, मार्क्सवादी पार्टी और कांग्रेस के जन-जन एक-दूसरे के लिए रूह-अफ़ज़ा हो पाएंगे? क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के पट्ठे गलबहियां कर घूमने लगेंगे? क्या केरल में वाम दलों और कांग्रेस के धरतीपुत्र मिलजुल कर चुनावी खेत में हल चला लेंगे? क्या अभी-अभी राश्ट्रीय पार्टी बनने से गदगद आम आदमी पार्टी के आम-जन अपनी विस्तारवादी ललक को निस्पृह भाव से विपक्षी एकजुटता के हवनकुंड के हवाले कर देंगे? सो, नरेंद्र भाई की शक़्ल से मुक्ति पाने के जज़्बा ले कर हमराही बनने वाली एकाध दर्जन शिखर-शक़्लें जब तक अपने-अपने अंत्यजन को भी इसी भाव में सराबोर न कर दें, दिल्ली कैसे पास आएगी? ‘तुम चंदन, हम पानी’ की ये भावलहरियां पैदा करना क्या इतना आसान है?

इसलिए बावजूद इसके कि कांग्रेस विपक्ष की लाटसाहबी की ललक को तिलांजलि भी दे दे, राहुल गांधी मौका मिलने पर भी प्रधानमंत्री बनने से आज ही इनकार भी कर दें और कांग्रेस कहीं-कहीं नुकसान उठा कर भी एकता-प्रयासों के सात फेरे ले ले; विपक्षी दल वह गोंद कहां से लाएंगे, जो उनके अंतिम कतार की तमाम कतरनों को एक बड़े फलक पर ईमानदारी से चस्पा कर दे? अगर ऐसा नहीं होगा तो नरेंद्र भाई अट्टहास करते हुए संदूक फाड़ कर फिर बाहर आ जाएंगे। उनके हाथ-पांव बांधने वाली ज़ंजीर अगर कच्चे लोहे से बनी होगी तो उसे चटकाना वे बखूबी जानते हैं। इसलिए सारा दारोमदार इस पर है कि प्रतिपक्ष के पास हर स्तर पर कितना इस्पाती इरादा है। अपने-अपनों को ही सिरमौर देखने की हसरत कुर्बान किए बिना कोई भी विपक्षी एकता कुछ भी मायने नहीं रखेगी।

कल्पना कीजिए कि लोकसभा से राहुल के निष्कासन का विरोध करने के लिए इकट्ठे हुए सभी 18-19 राजनीतिक दलों की एकजुटता चुनावी गठबंधन में औपचारिक तौर पर तब्दील तो हो गई, मगर धरातल पर अगर वह व्यावहारिक नहीं बन पाई और ऐसे में नरेंद्र भाई 2024 में फिर 2019 के आसपास सीटें ले उड़े तो क्या होगा? क्या तब इस अवधारणा के परखच्चे हमेशा के लिए नहीं उड़ जाएंगे कि समूचा विपक्ष अगर एक हो जाए तो भारतीय जनता पार्टी की कभी भी सवा सौ से ज़्यादा सीटें आ ही नहीं सकती हैं? जनतंत्र के लिए 2024 में बड़ा खतरा नरेंद्र भाई के लौटने की संभावना से पैदा होगा या सकल-विपक्ष के अप्रासंगिक हो जाने की आशंका से? इसलिए विपक्षी दल एक मंच पर आएं तो या तो अपने घर-बार ज़मींदोज़ कर के आएं या फिर बेहतर है कि अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग ही बजाते रहें। अधूरे मन से इकट्ठे हो कर अगर उन्होंने नरेंद्र भाई के मुकुट की चमक बरकरार रखने में भूला-भटका योगदान कर दिया तो आने वाले कई दशक तक लोग विपक्षी एकता के अड़सट्टे पर यकीन ही नहीं किया करेंगे।

यह सच्चाई नरेंद्र भाई भी जानते हैं कि उनका भूत अब लोगों के सिर से बहुत-कुछ उतर गया है। यह असलियत नरेंद्र भाई की समझ में आ गई है कि लोग उनकी असलियत समझ गए हैं। नरेंद्र भाई के सामने चूंकि उनके अपनों की बुरी तरह घिग्घी बंधी हुई है, इसलिए उनसे तो कोई नहीं कहता है कि उनके किए काम तो बहुत नाटे हैं, परछाईं ज़रूर बहुत बड़ी बनाने में उन्हें कामयाबी मिल गई है। लेकिन उनके आसपास के ये लोग अब एक-दूसरे के कान में बुदबुदाने लगे हैं कि इस तरह के दृश्य-चित्र रचते रहने से कब तक बात बनेगी? आख़िर तो एक दिन सब सामने आएगा और जब आएगा तो सब-कुछ बह जाएगा। यह सैलाबी आशंका प्रशासकीय अंतःपुर में फ़िक्र की लहरों का उफ़ान पैदा करने लगी है।

अनभिज्ञता में ही जिन्हें अपना सौभाग्य नज़र आता हो, उनकी नज़रों को मेरा सलाम! सो, नरेंद्र भाई को भी मेरा सलाम और प्रतिपक्ष के चौधरियों को भी मेरा सलाम! नरेंद्र भाई का आलम यह है कि अपने पैरों के नीचे से खिसकते जा रहे कालीन का अंदाज़ उन्हें हो ही नहीं रहा है और विपक्ष की विडंबना यह है कि ख़स्ताहाल नरेंद्र भाई के ख़िलाफ़ एकजुट होने का उसका ऊहापोही-दौर है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। विपक्ष की यह धक्कमपेल जब तक चलती रहेगी, तब तक नरेंद्र भाई को क्या चिंता? धक्कमपेल की रेलमपेल बनाने का हुनर वे जानते ही हैं, सो, उन्हें और भी कोई चिंता नहीं है।

बैठा हुआ हाथी भी खड़ी हुई भेड़ से तो ऊंचा ही होता है। इसलिए विपक्ष अगर एकजुट हो भी जाए तो भी नरेंद्र भाई निश्चिंत दिख रहे हैं। वे जानते हैं कि विपक्ष उनका कुछ नहीं कर पाएगा, जब करेगी, जनता ही करेगी और जनता के लिए उनकी दराज़ में तरह-तरह के रंग-बिरंगे जालबट्टों का ज़खीरा अभी बाकी है। रोज़मर्रा के कर्मकांड कर रहे विपक्ष के बुनियादी हावभाव देख कर क्या आपको लगता है कि 2024 में वह दिल्ली की दहलीज़ तक पहुंच जाएगा? मेरा मन है कि पहुंच जाए। मगर मेरे मन से क्या होता है? मन तो विपक्ष का होना चाहिए। पता नहीं, है कि नहीं।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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