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कर्नाटक का 2024 के लिए क्या संदेश?

क्या कर्नाटक के ताजा चुनाव नतीजों से कोई ऐसे संकेत मिले हैं, जिनके आधार पर अगले साल होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के बारे में कोई संकेत ग्रहण किया जा सके? इस प्रश्न का सीधा उत्तर है- बिल्कुल नहीं। इसलिए कि गुजरे दशकों का यह साफ तजुर्बा है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग परिवेश और परिस्थितियों में लड़े जाते हैँ।…वैसे भी उत्तर प्रदेश में स्थानीय चुनावों के नतीजों से जो संकेत मिला है, उससे कर्नाटक के चुनाव नतीजों को लोकसभा चुनाव के संदर्भ में देखने का कोई आधार नहीं बनता है।

क्या कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजों में बाकी देश की राजनीति को समझने के कुछ सूत्र मौजूद हैं? और क्या इन नतीजों के आधार पर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के बारे में कोई अनुमान लगाया जा सकता है?

इन दो प्रश्नों के संदर्भ में इन नतीजों को समझने के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि जिन मौजूद स्थितियों में ये चुनाव हुए, उन्हें फिर से स्पष्ट कर लिया जाए। ये पूर्व स्थितियां आज पूरे भारत में मौजूद हैं, जिनके आधार पर ये धारणा बनी है कि देश में होने वाले चुनावों में प्रतिद्वंदी दलों के बीच समान धरातल नहीं रह गया है। ऐसी समझ इन कारणों से बनी हैः

  • राष्ट्रीय से स्थानीय स्तर तक के शासक वर्ग का पूरा समर्थन भारतीय जनता पार्टी के साथ बना हुआ है। चुनावों में हमेशा ही इन वर्गों का समर्थन लगभग निर्णायक महत्त्व का होता है।
  • इसी परिघटना का परिणाम है कि भाजपा चुनावों में जितना पैसा झोंक पाती है, उस बारे में किसी दूसरे दल के लिए सोच पाना भी कठिन हो गया है। चुनाव नतीजों को तय करने में धन की भूमिका जग-जाहिर है।
  • भाजपा मीडिया को अपने पक्ष में पूरी तरह नियंत्रित करने में सफल रही है। इसलिए न सिर्फ चुनावों के समय, बल्कि बाकी वक्त पर भी आम जन के बीच सारा संदेश उसके पक्ष में और विपक्षी दलों के खिलाफ जाता रहता है। यानी मोटे तौर पर राजनीतिक समर्थन आधार बनने की प्रक्रिया लगातार जारी रहती है। वैसे भी आम अनुभव यह है कि ठीक चुनाव के वक्त अनिर्णय में रहने वाले कुछ प्रतिशत लोगों का झुकाव ही तय होता है।

बहरहाल, आम दिनों और चुनाव के समय दोनों स्थितियों में भाजपा के पक्ष में प्रचार की जैसी बमबारी लोगों के दिमाग पर होती है, वैसा भारत में आजादी के बाद पहले कभी नहीं देखा गया था।

  • आज के दौर में मेनस्ट्रीम मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया भी प्रचार और संवाद का एक बड़ा जरिया है। बल्कि कई मायनों में यह अधिक सशक्त माध्यम है। यह स्पष्ट है कि धन की आसान उपलब्धता के कारण भाजपा ने सोशल मीडिया का जैसा नेटवर्क पूरे देश में बना लिया है, विपक्ष उसके मुकाबले में कहीं नहीं टिकता है।
  • समान धरातल खत्म होने का एक बड़ा कारण संवैधानिक संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों के बारे में बनी यह धारणा है कि उन्होंने लगभग एकतरफा रुख अपना लिया है। यह बात निर्वाचन आयोग से लेकर न्यायपालिका के एक हिस्से तक पर लागू होती है। कर्नाटक चुनाव में एक विज्ञापन पर कांग्रेस को नोटिस जारी होना, जबकि धार्मिक आधार पर प्रधानमंत्री के वोट मांगने पर निर्वाचन आयोग की चुप्पी ने इस धारणा को और मजबूत किया है।
  • हालांकि इस बात के कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में हेरफेर की वर्तमान समय में चुनाव नतीजों को तय करने में कोई भूमिका है, इसके बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से में इसको लेकर संदेह का भाव गहराता चला गया है। हाल में आई इस खबर ने संदेह को और बढ़ा दिया कि 2018 से हुए चुनावों में इस्तेमाल हुईं 6.5 लाख VVPAT मशीनें खराब थीं। इस खबर के चर्चित होने के बाद निर्वाचन आयोग ने भी स्वीकार किया 3.4 लाख मशीनों में सुधार की जरूरत है।

अब जबकि कर्नाटक में कांग्रेस जीत गई है, तो विपक्ष या भाजपा विरोधी खेमे इन मौजूदा धारणाओं-स्थितियोंको भुला दें, यह कतई तार्किक नहीं होगा। चूंकि इन बातों की चर्चा सिर्फ विपक्षी पार्टी के हारने की स्थिति में की जाती है, इसलिए समाज के एक बड़े तबके की नजर में इनकी विश्वसनीयता नहीं बनती। बहुत से लोग तब इन बातों को ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाली कहावत से जोड़ कर देखते हैं।

बहरहाल, कर्नाटक में कांग्रेस की जीत मौजूदा स्थितियों के बावजूद हुई है। इसलिए यह और महत्त्वपूर्ण है। इसके बावजूद इस जीत को वस्तुगत नजरिए से ही देखना उचित होगा। इसको लेकर अति उत्साह में जाना या इसके आधार पर पूरे देश में सियासी नैरेटिव के बदल जाने का अनुमान लगाने का कोई ठोस आधार नहीं है।

कितनी मजबूत थी कांग्रेस की जमीन? 

सही निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए इस पर गौर करना आवश्यक है कि पांच साल पहले हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों क्या स्थिति रही थी। आखिरकार पिछले चुनाव की सीटों और उससे भी अधिक तब प्राप्त वोट प्रतिशत के आधार पर ही पार्टियां अगले चुनाव के मैदान में उतरती हैँ। वर्तमान चुनाव में उनकी सफलता या विफलता को मापने का पैमाना पिछले चुनाव की उनकी स्थिति से तुलना ही होती है। तो 2018 के चुनाव परिणाम पर निगाह डालेः

  • पांच साल पहले वोट प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस पहले नंबर पर रही थी। उसे 38.5 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट मिले थे। लेकिन सीटें वह सिर्फ 80 जीत पाई।
  • भाजपा को 36.2 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन वह 104 सीटें जीतने में सफल रही थी। कारण साफ है। भाजपा का वोट आधार खास इलाकों में सघन है, जबकि कांग्रेस के मतदाता पूरे राज्य में फैले हुए हैँ।
  • जनता दल (सेक्यूलर) लगभग सवा 18 प्रतिशत वोट मिले थे और वह 37 सीटें जीतने में सफल रही थी।
  • अगर तीनों पार्टियों को मिला कर देखें, तो लगभग 93 प्रतिशत वोट इन्हें मिले थे। यानी अन्य छोटी पार्टियां और निर्दलीय उम्मीदवार साझा तौर पर भी कोई प्रभाव छोड़ने में तब नाकाम रहे थे।

इन आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अगर मजबूत नहीं, तो कम से कम भाजपा के साथ बराबर की ताकत के आधार पर मैदान में उतरी। इसके अलावा पिछले ढाई साल में रही भाजपा सरकारों की नाकामियां और खराब छवि का लाभ भी उसके साथ था। हाल में ज्यादातर राज्यों में ट्रेंड यह रहा है कि चुनावों से ठीक पहले होने वाली दल-बदल में नेताओं का कारवां मोटे तौर पर भाजपा की तरफ जाता दिखता है। लेकिन कर्नाटक में यह ट्रेंड पलटा हुआ नजर आया। वहां नेता बड़े और रसूखदार नेता भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस में शामिल होते नजर आए। इसकी ठोस वजह उनका चुनावी संभावनाओं का आकलन था या भाजपा के अंदर उनके अपने समीकरण यह जानने का हमारे पास कोई ठोस आधार नहीं है।

 

क्या कहते हैं चुनाव नतीजे?    

तो अब यह देखते हैं कि असल में कर्नाटक के चुनाव नतीजे क्या रहे हैं।

  • यह साफ है कि कांग्रेस ने सीटों के अर्थ में एक बड़ी जीत दर्ज की है। इस रूप में ऩई विधानसभा में भाजपा के लिए ऑपरेशन लोट्स जैसे तरीकों से सरकार पलटना बेहद मुश्किल होगा।
  • बहरहाल, अगर वोट प्रतिशत के अर्थ में देखें, तो भाजपा के समर्थन आधार में ज्यादा सेंध नहीं लगी है। मुश्किल आधा प्रतिशत वोटों का उसे नुकसान हुआ है।
  • वोट प्रतिशत के अर्थ में ज्यादा नुकसान जनता दल (एस) को हुआ है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पांच साल पहले जनता दल (एस) को वोट देने वाले मतदाताओं का एक हिस्सा कांग्रेस की तरफ गया। उस वजह से कांग्रेस लगभग 5.5 प्रतिशत अधिक वोट पाने में सफल रही। यही पहलू निर्णायक हो गया।
  • यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस को उन मतदाताओं ने अपनी पसंद बनाया, जिनकी प्राथमिकता भाजपा को हराना रहती है। देश भर में यह ट्रेंड है कि ऐसे मतदाता उस पार्टी को वोट दे रहे हैं, जो उन्हें भाजपा को हराने में सबसे सक्षम मालूम पड़ती है। उत्तर प्रदेश में 2022 में इस परिघटना का कांग्रेस को नुकसान हुआ था, जब उसके वोट 2017 की तुलना में सात से घट कर दो प्रतिशत रह गए। लेकिन ऐसा लगता है कि कर्नाटक में इस परिघटना का उसे लाभ हुआ है।
  • अगर कांग्रेस, भाजपा और जेडी (एस) को साझा तौर पर मिले वोटों पर गौर करें, तो यह आंकड़ा मोटे तौर पर जस का तस बना हुआ है। तीन दलों ने मिल कर इस बार 92 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए हैँ।

देश के लिए संदेश क्या है?

  • इन नतीजों से देश के लिए पहला संदेश यह है कि भाजपा ने अपने उग्र हिंदुत्व के एजेंडे पर मतदाताओं का जो ध्रुवीकरण किया है, उसमें सेंध नहीं लग पा रही है। यही संकेत 2022 से 2023 तक में हुए लगभग तमाम चुनावों से भी मिला है। मतदाताओं के इस वर्ग के लिए महंगाई या दूसरी आर्थिक समस्याएं, कुशासन, भ्रष्टाचार आदि जैसे मुद्दे अप्रासंगिक बने हुए हैं। उनके लिए खास बात सामाजिक-सांप्रदायिक वर्चस्व की वह भावना है, जिसका अहसास भाजपा ने अपनी सियासत से कराया है।
  • लेकिन इन नतीजों से यह भी जाहिर हुआ है कि भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति फिलहाल एक ठहराव बिंदु पर पहुंच गई है। मतलब यह कि भाजपा ने अपने एजेंडे पर जितनी गोलबंदी कर ली है, अब उसमें कोई ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है। इसका अपवाद सिर्फ पश्चिम बंगाल था, जहां 2021 में भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी उछाल आया। उत्तर प्रदेश में उसके वोट प्रतिशत में मामूली वृद्धि हुई थी। लेकिन राज्यों में इसमें थोड़ी-बहुत गिरावट आई है, जैसा कर्नाटक में होता दिख रहा है।

क्या 2024 के लिए कोई संकेत मिला है?

क्या कर्नाटक के ताजा चुनाव नतीजों से कोई ऐसे संकेत मिले हैं, जिनके आधार पर अगले साल होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के बारे में कोई संकेत ग्रहण किया जा सके? इस प्रश्न का सीधा उत्तर है- बिल्कुल नहीं। इसलिए कि गुजरे दशकों का यह साफ तजुर्बा है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग परिवेश और परिस्थितियों में लड़े जाते हैँ। अगर बहुत पीछे ना जाते हुए सिर्फ पांच साल पहले दिखे अंतर पर गौर करें, तो यह बात साबित हो जाती है।

कर्नाटक में भी 2018 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनाव में सूरत बिल्कुल ही बदली नजर आई थी।

  • लोकसभा चुनाव में भाजपा साढ़े 51 प्रतिशत से अधिक वोट पाने में सफल रही। इस बूते पर उसने राज्य की 28 में से 25 सीटें जीत लीं।
  • कांग्रेस 32 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद सिर्फ एक सीट जीत पाई।
  • जेडी (एस) को सिर्फ 9.7 प्रतिशत वोट मिले और उसे भी एक सीट मिली।
  • एक सीट एक निर्दलीय उम्मीदवार के हिस्से में गई थी।
  • यह फिर गौरतलब है कि भाजपा, कांग्रेस और जेडी (एस) ने राज्य में कुल हुए मतदान के बीच लगभग 94 प्रतिशत वोट हासिल किए।

इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले हुए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना विधानसभा चुनाओं में रहे नतीजों और इन्हीं राज्यों में लोकसभा चुनाव के सामने आए नतीजों पर गौर करें, तब भी इस बात की पुष्टि होती है। दरअसल, ऐसी अनगिनत मिसालें दी जा सकती हैँ।

इसलिए उत्साह में 2024 के लिए संकेत ग्रहण करना एक अनावश्यक प्रयास है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में स्थानीय चुनावों के नतीजों से जो संकेत मिला है, उससे कर्नाटक के चुनाव नतीजों को लोकसभा चुनाव के संदर्भ में देखने का कोई आधार नहीं बनता है।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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