(अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी के अवसर पर विशेष)
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस दो भाषायी कार्यकर्ताओं, रफीकुल इस्लाम और अब्दुस सलाम के दिमाग की उपज है, जिन्होंने 1998 में दुनिया की भाषाओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए इस दिन को मनाने की सिफारिश की थी। इसका ऐतिहासिक महत्व भी है- यह बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में 1952 की दुखद हत्याओं की याद दिलाता है। 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान के साथ एकीकृत किया गया था। पाकिस्तान सरकार ने 1947 से 1971 तक देश को विनियमित किया और 1948 में उर्दू को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित किया। बावजूद इसके कि बांग्ला, बहुसंख्यकों द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। इसने अशांति पैदा की। लोगों ने मांग की कि बांग्ला देश की राष्ट्रीय भाषाओं में से एक हो। पर इस याचिका पर विचार नहीं किया गया। बैठकों और रैलियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया, परंतु इससे भी लोग नहीं रुके। ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने सभाओं का आयोजन किया। 21 फरवरी 1952 के दिन, पुलिस ने इनमें से एक रैली पर गोलियां चलाईं। इससे सैकड़ों लोग हताहत हुए। इसी बलिदान को याद करते हुए मातृभाषा के प्रति नई दृष्टि विकसित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।
यह एक ज्ञात तथ्य है कि दुनिया भर में कई देश बहुभाषी हैं और उनकी भाषाएं उनकी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत का निर्माण करती हैं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, मातृभाषा में बहुभाषी शिक्षा और मुक्त अभिव्यक्ति को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है। यह दिन भाषायी विविधता का पोषण करने और दुनिया भर में विभिन्न भाषायी परंपराओं के बारे में जागरूकता विकसित करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने के लिए हर साल यूनेस्को द्वारा एक अनूठी थीम का चयन किया जाता है। वर्ष 2022 में थीम था, ‘बहुभाषा सीखने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग- चुनौतियां और संभावनाएं’।
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस इस संदेश को प्रतिध्वनित करता है कि हमें कुछ भाषाओं के बारे में हमारे किसी भी पूर्वाग्रह को बदलना चाहिए और अलग-अलग संस्कृतियों और परंपराओं को विकसित करने के लिए समावेशिता का वातावरण बनाना चाहिए। ऐसा करने से, और अपनी मातृभाषा में व्यक्त करने की स्वतंत्रता का विस्तार करके, रोजगार और विकास के अवसर पैदा होते हैं और इस प्रकार सभी को अपनी संस्कृति और अपने देश के विकास में योगदान करने का अवसर मिलता है। पर, देश की एक महत्वपूर्ण भाषा, भोजपुरी आज भी सरकारी उपेक्षाओं की शिकार है। 1969 से लेकर आज तक संसद में भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता पर 20 बार निजी विधेयक पेश किए जा चुके हैं, इसके अलावा कई बार स्पेशल मेंशन व ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जरिए और अनेक बार शून्यकाल के दौरान भी इस मुद्दे को संसद में उठाया गया है। अपने 10 साल के शासन में पिछली यूपीए सरकार ने पांच बार ससद में विभिन्न अवसरों पर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का आवश्वासन दिया था, तत्कालीन गृहमंत्री ने संसद में भोजपुरी बोलते हुए कहा था, ‘हम रउआ सभ के भावना के समझत बानी…’। लेकिन यूपीए सरकार भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता संबंधी बिल तक संसद में पेश नहीं कर पाई।
भोजपुरी भाषा को मॉरीशस और नेपाल की सरकारों ने संवैधानिक मान्यता पहले ही दे दी है। भोजपुरी भाषी सांसदों ने भारत सरकार को भोजपुरी की मान्यता देने के लिए एक पत्र भी भेजा था। उस पत्र में यह जिक्र है कि वैसी भाषाओं को मान्यता मिलनी चाहिए जो विदेश में भी मान्यता प्राप्त और राज्य विधानसभा से अनुमोदित हैं। इस पैरामीटर पर भोजपुरी, राजस्थानी और भोटी जैसी भाषाएं खरी उतरती हैं जिन्हें क्रमशः मॉरीशस और नेपाल और भूटान में मान्यता प्राप्त है। भोजपुरी को मॉरीशस और नेपाल ने संवैधानिक मान्यता दी है वहीं राजस्थानी को नेपाल में संवैधानिक दर्जा हासिल है, तो भोटी को भूटान में आधिकारिक मान्यता मिली है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर आशा है कि भारत सहित विश्व की विभिन्न सरकारें भी मातृभाषाओं को उनका उचित सम्मान देंगी, यही इस दिवस की सार्थकता होगी।
(लेखक विश्व भोजपुरी सम्मेलन संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं मातृभाषा आंदोलन के पैरोकार हैं।)