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मटरगश्ती और विवशता के बीच झूलते हम

चुनाव नतीजों

हम दो पाटों के बीच फंसे हुए हैं। एक पाट दूसरों को घेर कर तालठोकू अंदाज़ में सब-कुछ चला रहा है। दूसरा पाट दूसरों से घिर कर विवश-मुद्रा में जैसे-तैसे ख़ुद चल रहा है। सो, आइए, दोनों के बीच, हम-आप किसी-न-किसी तरह अपने को साबुत बचाए रखें।…हम ने जो बोया है, वही हम काट रहे हैं। आगे भी जो हम बोएंगे, वही काटेंगे। इस में किसी और को क़ुसूरवार मत ठहराइए। यह पतंग आप ने ही उड़ाई है। इसे उड़ाते वक़्त अगर आप छत की मुंडेर से गिर पड़े हैं तो इल्ज़ाम दूसरों पर क्यों मढ़ रहे हैं?

पिछले एक दशक में राजकीय संवेदनाएं जितनी तीखी ढलान पर जितनी तेजी से रपटी हैं, वैसी कभी नहीं लुढ़कीं। हमारे हुक़्मरानों के कानों पर जूं के रेंगने का असर जब पड़ता होगा, पड़ता होगा, अब तो नगाडों की आवाज़ भी कान के परदों से टकरा कर जस-की-तस लौट जाती है। आपको जंतर-मंतर पर बैठना है, बैठे रहिए। आपको हाइवे पर बैठना है, बैठे रहिए। आपको संसद में मुद्दे उठाने हैं, उठाते रहिए। आपको राजघाट पर अनशन करना है, करते रहिए। आपको गांधी प्रतिमा से राष्ट्रपति भवन तक जुलूस निकालना है, निकालते रहिए। आपको जो करना है, करते रहिए। सरकार की संवेदनाएं भोथरी हैं। समाज के, व्यक्ति के, जन-मन के दुःख-दर्द से पिघल जाएं – वे सरकारें अब नहीं रहीं।

हमारे अब के हुक़्मरान अपने में व्यस्त हैं। वे अपने चुंधियाते संसार में मस्त हैं। वे अपने चारों तरफ उछल-कुद मचा रहे नारों की तरंगों पर तैर रहे हैं। वे अपने बरामदे और छतों पर बज रही तालियों-थालियों की धुन पर थिरक रहे हैं। वे अपनी प्रायोजित-आरती उतरते देख प्रफुल्लित हैं। उनके आसपास एक नकली दुनिया सृजित हो गई है। वे उस दुनिया की चकाचौंध को असली मान बैठे हैं। बाकी के गली-कूचों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। उनके संसार में जो हो रहा है, वही सकारात्मक है। बाकी जगत में जो कुछ भी हो रहा है, सब नकारात्मक है। सो, नत्वर्थक बातों पर ध्यान देने की फु़र्सत हमारे शासकों को नहीं है।

मैं इसमें अपने हाकिमों का कोई क़ुसूर नहीं मानता। यथा प्रजा, तथा राजा। अपने नियंता हम ने ख़ुद चुने हैं। उन्हें चुनने में हम ने कोई कंजूसी भी नहीं बरती है। उन्हें हम ने भरभरा कर समर्थन दिया है। उन पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में हम ने कोई कोताही नहीं की है। दस साल में हम ने कभी सोचा ही नहीं कि वे कितने के अधिकारी हैं? भक्तिभाव से आंखें बंद किए हम आराधक बने हुए हैं। हमारे इस अर्चक-भाव से सियासत के फ़र्ज़ी बागेश्वर, पंडोखर और करौली बाबा नहीं जन्मेंगे तो क्या ब्रह्मा-विष्णु-महेश आविर्भूत होंगे? हम ने जो बोया है, वही हम काट रहे हैं। आगे भी जो हम बोएंगे, वही काटेंगे। इस में किसी और को क़ुसूरवार मत ठहराइए। यह पतंग आप ने ही उड़ाई है। इसे उड़ाते वक़्त अगर आप छत की मुंडेर से गिर पड़े हैं तो इल्ज़ाम दूसरों पर क्यों मढ़ रहे हैं?

कोई मूढ़ ही मानेगा कि मौजूदा हुकूमत को बने रहने का हक़ है। मैं तो मानता हूं कि मौजूदा शासक-मंडली को रायसीना-पहाड़ी पर यह मटरगश्ती करने का हक़ ही नहीं था। उसे वह मिल गया या उस ने झक्कू दे कर हासिल कर लिया या समाज को बांटबूंट कर झपट लिया – इसका विश्लेषण ता-उम्र करते रहिए। सकल-परिणाम तो सामने है। दस साल से उसका नतीजा हम-आप भुगत रहे हैं। जो समझते हैं कि वे नहीं भुगत रहे, वे जिस दिन असलियत समझेंगे, हक-बक रह जाएंगे। ढोल की पोल सामने आने पर वे छाती पीटेंगे, दीदे बहाएंगे और सन्निपाती हो जाएंगे। तब तक उनके लिए बहुत देर भी हो चुकी होगी। लेकिन वे समय से पहले नहीं जागंगे, क्योंकि यही उनकी नियति है।

सो, सिंहासन पर जो हैं, उनकी अवसान-तिथि तो बहुत नज़दीक आ गई है। लेकिन मुसीबत तो यह है कि ताजपोशी किस की करें? बचपन से सुनते आए हैं कि सरकारें बदलने से क्या हो जाएगा? व्यवस्था बदले बिना सरकार बदलना बेमानी होता है। एक शासक-मंडली को हम विदा करते हैं और दूसरी तक़रीबन वैसी को ही अपने सिर पर बिठा लेते हैं। चेहरे बदलते हैं, तौर-तरीक़े तो बदलते नहीं। एक विचारधारा जाती है, दूसरी आ जाती है, मगर सत्ता का चरित्र तो मूलतः वही रहता है। वैकल्पिक राजनीति के बड़े-बड़े पुरोधाओं को सियासी पतनाले के जल का आचमन करने के बाद बेतरह सड़ांध मारते क्या हमने-आपने नहीं देखा है? सो, जब हम छोटे थे तो बहुतों को यह कहते सुनते थे कि सरकारों में नहीं, व्यवस्था में बदलाव लाना है, हमारा संघर्ष व्यवस्था बदलने के लिए है। कहने वाले कहते रहे, कहते-कहते चले भी गए, व्यवस्था वहीं की वहीं रही, वैसी की वैसी रही।

तो साल भर बाद अब सरकार बदल भी जाए तो क्या व्यवस्था बदल जाएगी? मुझे लगता है कि अब तो व्यवस्था बदलने का पहला कदम ही यह है कि मौजूदा सरकार बदले। बदल गई तो आधी व्यवस्था अपने आप ही बदल जाएगी। बाकी आधी को नए सूरमा न भी बदल पाएं तो आधी के बदलाव से भी देश चैन की सांस लेने लगेगा। देश को थोड़ी-सी सांस भर मिल जाए तो वह फिर अपने शाश्वत पथ पर चल पड़ेगा। अभी उसे जिस रास्ते पर धकेल दिया गया है, वह तो कांकड़ाखोह की तरफ़ जाता है। उस खाई में गिरने के बाद तो मुल्क़ की हड्डी-पसली एक हो जाएगी। मगर इस पतन-यात्रा को रोकने वाले कहां हैं? समूचा दृश्य इतना गड्डमड्ड है कि किसी की कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।

सियासी चलचित्र के एक दृश्य में चालीस चोरों की टोली के साथ अर्रा रहा एक अलीबाबा है। जितना प्रतिबद्ध, कटिबद्ध और वचनबद्ध अलीबाबा है, उतने ही प्रतिबद्ध, कटिबद्ध और वचनबद्ध उसके हमजोली हैं। वे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ख़ज़ाना लूटने के काम में दिन-रात पूरी लगन से लगे हुए हैं। चालीसों चोर स्वयं की इच्छाएं-आकांक्षाएं पूरी तरह तिरोहित कर एकाग्र भाव से अपने अलीबाबा के प्रक्षेपण का हवन करते रहते हैं। वे अपने कदर्थ लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अविचल भाव से कर्मरत हैं। उनकी यंत्रवत कदमताल ने अलीबाबा को वलीबाबा बना दिया है।

चित्रपट के दूसरे दृश्य में प्रेम और अनुराग बांटने पर उतारू एक ऋषिवर हैं। वे अपने मक़सद को ले कर जितने सन्नद्ध, संकल्पबंद्ध और प्रतिज्ञाबद्ध हैं; उनकी टोली के मुनिवरों, क्षुल्लकों और ऐलकों में से ज़्यादातर में अपने ऋषिवर की आचार-संहिता का दूर-दूर तक कोई छींटा भी नहीं है। वे अपने सामाजिक-सांस्कृतिक आधार के क्षरण को थामे रहने में असहाय नज़र आ रहे हैं। ऋषिवर के ऐलक-क्षुल्लक अपनी-अपनी ख़्वाहिशों, तमन्नाओं और ओछे इरादों को पूरा करने की होड़ में एक-दूसरे का चीरहरण करने में ही लगे रहते हैं। वे ऋषिवर की निर्मल छवि का निर्माण करने के बजाय ख़ुद की काली परछाईं को महाकाय बनाने के हथकंडे ईज़ाद करने में सारे संस्थागत संसाधन झौंक रहे हैं। उनकी इन तदबीरों ने ऋषि-वर को द्वंद्व-वर बना दिया है।

अब आप ही बताइए कि हम-आप क्या करें? इस जनम तो क्या, अगले सात जनम भी, अलीबाबा के अनुचर तो बन नहीं सकते। सो, सिर मुंडा कर ऋषिवर के आश्रम के बाहर ही बैठे रहें। ऋषिवर के दर्शनों के लिए द्वारपालों से भिड़ते रहें। प्रतिपक्ष के उत्तरी गोलार्द्ध में सप्तऋषियों के तारामंडल की सामूहिकता के लिए कामना करते हुए माला फेरें। इस इत्तहाद का बिना पलक झपकाए इंतज़ार करते रहें। अपने दधीचि-मन को कभी मरने न दें। अपनी यह आस ज़िंदा रखें कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। बावजूद इसके ठीक हो जाएगा कि हम दो पाटों के बीच फंसे हुए हैं। एक पाट दूसरों को घेर कर तालठोकू अंदाज़ में सब-कुछ चला रहा है। दूसरा पाट दूसरों से घिर कर विवश-मुद्रा में जैसे-तैसे ख़ुद चल रहा है। सो, आइए, दोनों के बीच, हम-आप किसी-न-किसी तरह अपने को साबुत बचाए रखें।

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By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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