माता के समस्त पालक गुण गंगा में विद्यमान होने के कारण ही गंगा को माता कहा गया है। यही कारण है प्रत्येक भारतीयों की यह कामना होती है कि वे अन्त समय में वे अपनी प्यारी गंगा माता की गोद में ही अपना चिर शयन करे और उसके शरीर के कण गंगा के ही जल-कण में विलीन हो जायें। गंगा की यह अगाध महिमा चिरकाल से भारतीय प्रतिभा को प्रेरणा देती रही है।
30 मई – गंगा दशहरा: भारतीय संस्कृति और सभ्यता के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली गंगा न केवल हमारे देश की सबसे महान और पवित्र नदी है, अपितु विश्व की सर्वश्रेष्ठ नदियों में अपने अनेक विशिष्ट गुणों के कारण सर्वप्रथम स्थान रखती है। प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृति को सर्वलोकोपकारिणी बनाने में गंगा की लहरों ने ही सर्वप्रथम मानव हृदय को मंगलमयी प्रेरणा दी थी। देश के पावन जीवन में गंगा की निर्मल धारा प्राचीनकाल से अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए तो यह घरती पर बहकर भी आकाशवासी देवताओं की नदी है। और इस लोक की सुख-समृद्धियों की विधान होकर भी परलोक का सम्पूर्ण लेखा-जोखा संवारने वाली है। कृषिकर्म में विशेष सहायक होने के कारण गंगा नदी हमारे देश भर में सबसे अधिक अन्न देने वाली अन्नपूर्णा है। हमारे देश में गंगा की घाटी में सर्वप्रथम कृषिकर्म का श्रीगणेश किया गयां था। यही कारण है कि कृषि प्रधान भारत भूमि में गंगा एक देवी के रूप में मान्य व पूज्य है। पुराणों तथा अन्य आचार ग्रन्थों में गंगा के साथ अनेक नदियों के सम्बन्ध में देवीरूप की अनेक कथाएँ अंकित हैं। परिमाण, जलराशि तथा अन्य विशेषताओं के कारण गंगा, यमुना, सिन्धु, गोदावरी, सरस्वती नमंदा तथा कावेरी आदि नदियों की गणना दिव्य श्रेणी में की गई है।
भारत की नदियों में पवित्रता एवं माहात्म्य की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान रखने वाली गंगा अपने अनेक गुणों के प्रभाव से विश्व की श्रेष्ठतम नदी है। गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक उसके सैकड़ों तीर्थों तथा अजस्रवाहिनी पावनधारा से जितने नर-नारी पशु-पक्षी तथा कीट-पतंग अपना ऐहिक और पारलौकिक कार्य चलाते हैं, उतनी संख्या विश्व की किसी महानदी को नहीं प्राप्त है। जो लोग नित्य गंगा में स्नान करने का पुण्यावसर नहीं निकाल पाते वे केवल दर्शन करने अथवा स्पर्श एवं आचमन करने के लिए थोड़ा सा गंगा का जल ले जाकर अपने घरों में रखते हैं। अनेक लोग स्नान-पूजनादि के समय गंगाजल के अभाव में केवल गंगा का नाम स्मरण करते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन इस विशाल देश में करोड़ों व्यक्तियों द्वारा संस्मृत, ध्यानावस्थित, पूजित, मज्जित और पीत गंगा की महिमा की समानता विश्व में कोई भी नदी नहीं कर सकती है।
यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर अधुनातन काल तक के भारतीय साहित्य गंगा की महिमा से भरे पड़े हैं। सहस्त्रों वर्षों की उसकी अपार महिमा देश के कण-कण में व्याप्त हो गई है। वैज्ञानिक गंगा जल में हिमालय की औषधियों का प्रभाव होने से उसके जल में कीटाणु नहीं पड़ने की सिद्धि में लगे हैं, तो धार्मिक लोगों के लिए वह प्रुण्यसलिला भगवान् विष्णु के पद से निकलने के कारण समस्त ऐहिक और पारलौकिक व्याधियों को हरनेवाली बनी हुई है। लौकिक व पौराणिक मान्यतानुसार गंगा का दर्शन करने, पान करने, तथा अवगाहन करने से मनुष्य तर जाता है। गंगा के जल में पापों एवं रोगों को नाश करने की अमोघ शक्ति है। उसकी पावन धारा की कलकलमयी स्वर लहरी को सुन कर भी मनुष्य थोड़ी देर के लिए किसी दूसरे भाव में मग्न हो जाता है। समस्त आनन्द मंगल की विघायिनी, सुख -समृद्धि की प्रदायिनी और समस्त ऐहिक- पारलौकिक विपदाओं की विनाशिनी गंगा के समान कोई अन्य नदी नहीं है। माता के समस्त पालक गुण गंगा में विद्यमान होने के कारण ही गंगा को माता कहा गया है। हैं। यही कारण है प्रत्येक भारतीयों की यह कामना होती है कि वे अन्त समय में वे अपनी प्यारी गंगा माता की गोद में ही अपना चिर शयन करे और उसके शरीर के कण गंगा के ही जल-कण में विलीन हो जायें। गंगा की यह अगाध महिमा चिरकाल से भारतीय प्रतिभा को प्रेरणा देती रही है।
सनातन वैदिक धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के अनन्तर घरती पर गंगा से बढ़कर कोई आराध्य नहीं है। बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों में भी गंगा की पवित्रता एवं आध्यात्मिक शक्ति की विचित्रता को स्वीकार किया गया है। गंगा केवल शारीरिक एवं भौतिक संतापों को शान्त करने वाली नहीं मानी गयी है, प्रत्युत आन्तरिक एवं आध्यात्मिक शान्ति का अविनाशी बीज भी उसकी चंचल तरंगों में बहता चला आ रहा है। यही कारण है कि कोई भी हिन्दू उसे नदी के रूप में न तो देखना पसंद करता है, और न दूसरों के मुख से सुनना ही चाहता है। उसकी अन्तिम कामना यही रहती है कि मृत्यु के समय उसके मुख में एक बूंद भी गंगा जल कहीं से पड़ जाय। गंगा की लहरों में ऐसा प्रभाव है कि कठोर नास्तिक भारतीय का हृदय भी गंगा तट पर पहुँच कर एक बार अपूर्व भावनाओं से भर जाता है।
पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि त्रिदेवों का गंगा से निकट सम्बन्ध बताया गया है। भगवान् विष्णु के पद नख से प्रसूत होकर वह ब्रह्मा के कमण्डलु और शिव की जटा में विराजमान हैं। यह सत्य है कि गंगा के साथ होने से किसी भी देवी-देवता की महत्ता में चार चाँद लग जाते हैं। हरिद्वार और प्रयाग का गंगाजल लें जाकर रामेश्वरम् के शिव लिंग पर चढ़ाने की पुरानी प्रथा आज भी अनवरत जारी है। ऋग्वेद में गंगा का उल्लेख केवल दो बार -ऋग्वेद 10/75/5, 6/45/31 आया है, परन्तु शतपथ ब्राह्मण के 13/5/4/11, जैमिनीय ब्राह्मण के 3/183 और तैत्तिरीय आरण्यक के 2/10 में गंगा का उल्लेख किया गया.है। वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों के साथ ही ब्रह्मपुराण अध्याय 8, 71, 72, 73, 74, 76,78, 90, 104, 107, 116, 172, 173, 174, 175, पद्यपुराण (स्बर्ग खंड 16, उ० खंड 23, विष्णुपुराण 8/4, – शिव पुराण ज्ञान संहिता अध्याय 53,54, मत्स्यपुराण अध्याय 105, श्रीमद्भागवत पुराण 16, 17, (१६, देवी भागवत के 2/ 54/ 7, 1/75/36, 7/11/31, वृहन्नारदीय पुराण 61/65/19, मार्केण्डेय पुराण 56, अग्नि पुराण 70, 71, 72, ब्रह्मवेवर्त पुराण प्रकृति खण्ड 6,10, 115, 12, गणेश .खण्ड, रेवा खण्ड 34, 35 ३४, लिग पुराण (पूर्व भाग 52), वराह पुराण 171, भविष्य पुराण प्रथम भाग 8 , द्वितीय भाग 17, स्कन्द पुराण देव काण्ड, दक्ष खण्ड, 21-25, षष्ठ सौर संहिता 6/20, अम्बिका खण्ड 196-197 १९६-१९८, काशी खण्ड 73, नागर खण्ड तीसरा परिच्छेद 22, 23, 15,56, प्रंभास खण्ड 166, 168, ब्रह्माण्ड पुराण 46 तथा वामन पुराण 34, वृहद्धर्म पुराण में गंगा सम्बन्धी कथाएं व विभिन्न विवरणी अंकित हैं।
उल्लेखनीय है कि वेद में सिन्धु व सरस्वती की महिमागान बारम्बार की गई है, परन्तु गंगा के बारे में यथेष्ट चर्चा नहीं की गई है। आरम्भिक काल में सिन्धु और सरस्वती प्रवहमान थीं, जिसके तट पर मनुष्यों का वास था। कालांतर में सरस्वती के लुप्तप्राय होने के समय उनका आगमन गंगा की घाटी में हुआ। और जब उनका परिचय गंगा की विशेषता, महिमा व उर्वरा घाटी से हुआ, तो वे गंगा की अपार महिमा से चमत्कृत हो गए। जिसका वर्णन पुराणों में हुआ है। यही कारण है कि पुराणों में गंगा के समान किसी अन्य नदी का वर्णन नहीं किया गया है। वाल्मीकि रामायण में गंगा को हिमवान की पुत्री माना गया है। उनकी माता का नाम मेनका है, जो पव॑तराज सुमेरु की कन्या थी। इस प्रकार भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी उमा गंगा की सहोदरा कनिष्ठ भगिनी थीं। हिमवान से गंगा को देवताओं ने माँग लिया था। हिमवान से गंगा को प्राप्त कर देवता लोग धन्य हो गए थे और उसे उन्होंने तीनों लोकों में प्रतिष्ठित किया था।
कृतिवास नामक बंगला रामायण के अनुसार देवताओं ने शिव से व्याहं करने के लिए हिमवान से गंगा की याचना की थी। जब गंगा मेनका के घर से बिना पूछे ही देवताओं के साथ चली गयीं तो मेनका ने उन्हें अपने घर में न देख जड़ अर्थात् जलमयी हो जाने का शाप दे दिया। उसके बाद गंगा जल रूप ब्रह्मा के कमण्डलु में रहने लगीं। राजा सगर के पुत्रों के कपिल मुनि के शाप से भस्म हो जाने पर उनके उद्धार के लिए गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु से बाहर निकल कर घरती तल पर अवतीर्ण हुई। सगर के वंशज राजा भगीरथ द्वारा गंगा अर्थात भागीरथी के धरती पर अवतरण होने की यह कथा जगप्रसिद्ध है। कुछ पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया को गंगा धरती पर अवतीर्ण हुई और कुछ उसे कात्तिकी प्रणिमाजाता अर्थात कार्तिक की पूर्णिमा को अवतीर्ण मानते हैं। किन्तु लोक प्रसिद्ध एवं अनेक पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी अर्थात गंगा दशहरा ही गंगा के अवतीर्ण होने की पुण्य तिथि है-
दशमी शुकलपक्षे त ज्येष्ठ मासि कुजेडहनि ।
अवतीर्णा यतः स्वर्गात् हस्तक्षे च सरिद्वरा । ।
अर्थात -ज़्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मंगलवार एवं हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतीर्ण हुई।
महाभारत, रामायण, विष्णुपुराण के अनुसार भगवान विष्णु के अंगुठे से निकलने के कारण भागीरथी का दूसरा सुविख्यात नाम जाह्नवी पड़ा। कथा के अनुसार स्वर्ग से धरती पर अवतरित गंगा रथारूढ़ रांजा भगीरथ के पीछे- पीछे चल पड़ी। ग्राम, नगर, वन, उपवन को बहाते हुए भागीरथी का प्रबल प्रवाह बह रहा था। संयोगवशात भगीरथ के मध्य मार्ग में ही महामुनि जहनु की यज्ञ स्थली एवं आश्रम पड़ गया, जहनु उस समय अपने अनुष्ठानों में इस प्रकार लीन थे, कि भगीरथ के मार्ग को छोड़कर दूर हटने की उन्हें तनिक भी सुविधा नहीं थी। फलत: भागीरथी के प्रबल प्रवाह में जहनु का यज्ञ मण्डप एवं आश्रम तथा सब सामग्री विलीन हो गयी। यह देख जहनु का प्रचण्ड कोप उदबुद्ध हो गया और वे भागीरथी के उस भीषण प्रवाह को राजा भगीरथ की निराश आँखों के सामने ही क्षण भर में पान कर गये। ब्रह्मा के कमण्डलु तथा शिव की जटा से उतार लाने के बाद भगीरथ के लिए यह नयी विपदा थी। अन्तत: देवताओं, मुनियों और गन्धर्वों ने मिलकर जब भगीरथ के साथ ही विशेष प्रार्थना की तब जहनु का कोप कुछ शान्त हुआ और उन्होंने अपने कान के छिद्र से गंगा को फिर घरती पर गिरा दिया।
इस प्रकार जह्नु के क़ान से उत्पन्न गंगा का नाम जाहनवी पड़ गया और वे जह्नु की कन्या के रूप में भी विख्यात हुई। देवी भागवत पुराण के अनुसार किसी घटना से अभिशप्त गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी त्रिदेवियों को स्वर्ग से च्युत होकर धरती पर अवतीर्ण होना पड़ा। गंगा और सरस्वती का नदी रूप तो विख्यात ही है, लक्ष्मी का नदी रूप पद्मावती के नाम से विख्यात है। ब्रह्मपुराण के गौतमी खण्ड के अनुसार जब स्वर्ग से च्युत होकर गंगा शिव की जटा में समा गई तो उसके अनन्तर उसके दो रूप हुए। प्रथम रूप गौतम ऋषि द्वारा पृथ्वी पर अवतरित होने के कारण गौतमी नाम से तथा दूसरा क्षत्रिय राजा भगीरथ द्वारा अवतरित होने के कारण भागीरथी नाम से विख्यात हुआ। गौतमी का वर्तमान नाम गोदावरी है। गंगा से गोदावरी के ज्येष्ठ होने एवं गंगा के अवतारक क्षत्रिय भगीरथ की अपेक्षा गोदावरी के अवतारक गौतम के ब्राह्मण होने के कारण कुछ क्षेत्रों में गौतमी को आदिगंगा के नाम से पुकारा जाता है।