लंबे समय तक हिंदी फिल्मों में फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की धूम रही।…नसीरुद्दीन शाह ने हद कर दी। उन्होंने अपने फॉर्महाउस के बाथरूम के दरवाजे में हैंडल की जगह वही प्रतिमाएं लगवा रखी हैं जो उन्हें इस पुरस्कार में मिली थीं।…किन्हीं भी पुरस्कारों के लिए सबसे मुश्किल काम अपनी साख बनाना और उसे बरकरार रखना है। ऐसी साख कि कोई उसे बाथरूम का हैंडल बनाने से पहले कई बार सोचे। सुभाष घई और अशोक पंडित को समझना चाहिए कि नसीरुद्दीन शाह को चुप करा देने से यह साख वापस नहीं आएगी। उसके लिए तो पुरस्कार देने वालों और सिनेमा उद्योग दोनों को जुटना पड़ेगा।
परदे से उलझती ज़िंदगी
फ़िल्मफ़ेयर पत्रिका शुरू होने के कुछ ही समय बाद मार्च 1954 में क्लेय़र अवॉर्ड्स शुरू हुए। यह क्लेयर शब्द फिल्म समीक्षक क्लेयर मेंडोनका के नाम से लिया गया था। तब ‘दो बीघा ज़मीन’ के लिए बिमल राय को बेस्ट डायरेक्टर, ‘दाग’ के लिए दिलीप कुमार को बेस्ट एक्टर और ‘बैजू बावरा’ के लिए मीना कुमारी को बेस्ट एक्ट्रेस का पुरस्कार दिया गया था। इन्हीं क्लेयर अवॉर्ड्स का नाम बाद में फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स हो गया। उसी साल, बमुश्किल सात महीने बाद, अपने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की भी शुरूआत हुई। कहा नहीं जा सकता कि क्लेयर अवॉर्ड्स शुरू होने के बाद सरकार को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार शुरू करने का ख्याल आया या फिर हमेशा की तरह सरकारी काम में देर हुई और तब तक फ़िल्मफ़ेयर ने अपने पुरस्कार शुरू कर दिए। पहली बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मुंबई के मेट्रो सिनेमा में आयोजित किए गए जिनमें हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता ग्रेगरी पैक को भी बुलाया गया था। यह अलग बात है कि देरी से भारत पहुंचने के कारण वे इस समारोह में शामिल नहीं हो सके थे। बहरहाल, लंबे समय तक हिंदी फिल्मों में फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की धूम रही। इनके वर्तमान से इनके इतिहास का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। ज्यादा प्रतिष्ठित तो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ही थे, मगर चर्चा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की ज्यादा होती थी। इनमें एक तरह का बंटवारा था। सार्थक या समानांतर या आर्ट सिनेमा राष्ट्रीय पुरस्कारों के खाते में चला गया जबकि लोकप्रिय सिनेमा को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों ने संभाल लिया।
बाद में जब दोनों तरह के सिनेमा की दूरी मिटने लगी तो लोकप्रिय सिनेमा को भी राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा जाने लगा। मगर फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की महत्ता और लोकप्रियता उससे पहले ही घटने लगी थी। इन्हें टक्कर देने को कई नए पुरस्कार मैदान में आ गए थे। सब एक जैसे, एक ही ढर्रे के। फूहड़ता की हद तक नाच-गाने और हंसी-मजाक की अनिवार्यता ने उन सब को एक घटिया ग्लैमरस ईवेंट में बदल दिया। आज भी वे उससे उबर नहीं पा रहे।
विवाद नाम की चीज़ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से शुरू से जुड़ी रही है। वैजयंती माला ने ‘देवदास” के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवॉर्ड इसलिए ठुकरा दिया कि उन्हें लगा कि असल में तो इस कहानी में वे हीरोइन हैं। मतलब, पारो नहीं चंद्रमुखी हीरोइन है। 1973 में प्राण ने ‘बेईमान’ फिल्म के लिए पुरस्कार नहीं लिया। उनका विरोध इस बात पर था कि उसी साल आई ‘पाक़ीज़ा’ के लिए न तो मीना कुमारी को अवॉर्ड दिया जा रहा था और न उसके बेहतरीन संगीत के लिए गुलाम मोहम्मद को। प्राण साहब ने इसे पक्षपात माना। इन पुरस्कारों में किसी प्रभावी अभिनय, संगीत, गायन या निर्देशन को अनदेखा करने के ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। दूसरी तरफ, ‘कभी अलविदा ना कहना’ को तेइस श्रेणियों में नॉमिनेट किया गया, ‘गली बॉय’ को उन्नीस में और ‘पद्मावत’ को अठारह श्रेणियों में। शाहरुख खान को ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे‘ के लिए बेस्ट एक्टर का पुरस्कार मिलने के बाद आमिर खान ने हमेशा के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स में जाना बंद कर दिया। उनका मानना था कि उसी साल आई ‘रंगीला’ की उनकी भूमिका के साथ भेदभाव हुआ है।
धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि जो बातें दबे-ढंके तरीके से कही जाती थीं वे खुल कर कही जाने लगीं। ‘एयरलिफ्ट’ के लिए नॉमिनेट नहीं होने पर अक्षय कुमार ने कहा कि इन पुरस्कारों का कोई मतलब नहीं है। कंगना रनौत के मुताबिक 2014 में जब वे अमेरिका में स्क्रीनप्ले राइटिंग का कोर्स कर रही थीं तब उन्हें फ़िल्मफ़ेयर से ‘कृष 3’ के लिए अवॉर्ड की सूचना मिली। उन्होंने इसे यह कह कर टाल दिया कि उनकी क्लासें छूट जाएंगी और बहुत खर्चा हो जाएगा। इस पर वही बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवॉर्ड ‘रामलीला’ के लिए सुप्रिया पाठक को दे दिया गया। मगर सबसे ज्यादा घातक बात 2017 में ऋषि कपूर ने कही। ऋषि ने दावा किया कि 1973 में ‘बॉबी’ के लिए उन्होंने तीस हजार रुपए में फ़िल्मफ़ेयर का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड खरीदा था। उनका कहना था कि उन दिनों वे जवानी और पैसे के खुमार में डूबे हुए थे और अपनी इस हरकत के लिए बहुत शर्मिंदा हैं। ध्यान रहे, यह वही साल था जब ‘पाकीज़ा’ के लिए मीना कुमारी और गुलाम मोहम्मद नॉमिनेट नहीं किए गए थे और विरोध स्वरूप प्राण ने पुरस्कार नहीं लिया था। कुछ और भी कलाकार ऐसा कह चुके हैं कि उनके पास पुरस्कार की पेशकश लेकर कोई आया था।
लेकिन नसीरुद्दीन शाह ने तो हद ही कर दी। उन्होंने अपने फॉर्महाउस के बाथरूम के दरवाजे में हैंडल की जगह वही प्रतिमाएं लगवा रखी हैं जो उन्हें इस पुरस्कार में मिली थीं। हाल में उन्होंने कहा कि पद्म पुरस्कार लेने जब वे राष्ट्रपति भवन गए तो उन्हें गर्व की अनुभूति हुई। पहली बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार लेते हुए भी अच्छा लगा। लेकिन फिर धड़ाधड़ पुरस्कार मिलने लगे और पता चला कि ये पुरस्कार तो लॉबिंग का नतीजा हैं। यानी ज़रूरी नहीं कि ये आपको मेरिट पर मिल रहे हों। तब उनका मोहभंग हो गया और आखिरी दो पुरस्कार तो वे लेने भी नहीं गए। नसीर का यह कथन हमारे बहुत से कलाकारों और फिल्मकारों को नागवार गुजरा है। जैसे सुभाष घई ने कहा कि ‘हमें पुरस्कारों का अपमान नहीं करना चाहिए। ये तो सम्मान में दिए जाते हैं। मैं कई बार इन अवॉर्ड्स के लिए नॉमिनेट हुआ, लेकिन तीन बार ही जीत पाया।’ इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन डायरेक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक पंडित मानते हैं कि नसीरुद्दीन शाह ने जो कुछ कहा वह शाहरुख खान और दिलीप कुमार और सुभाष घई जैसे लोगों के चाहने वालों को गाली देने की तरह है। पंडित ने यह भी कहा कि आपको इस वक्त अवॉर्ड नहीं मिल रहे, इसका मतलब यह नहीं है कि आप फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों को उल्टा-सीधा कहें।
नहीं, नसीर फ़िल्मफ़ेयर जैसे पुरस्कारों के पार जा चुके हैं। उन्हें इनकी ज़रूरत नहीं। लेकिन लगता है कि नसीर ने अब ये अवॉर्ड शो देखने भी बंद कर दिए हैं। फ़िल्मफ़ेयर या किसी भी अवॉर्ड शो में जब किसी नए कलाकार को पुरस्कार मिलता है तो देखिए वह कैसा निहाल होता है। किस तरह अपना नाम पुकारे जाने पर अपनी पत्नी या दोस्तों से गले मिलने के बाद स्टेज पर जाता है। कई लोगों के मुंह से तो आवाज़ तक नहीं निकलती। नसीर के बेटे या बेटी को यह पुरस्कार मिले तो क्या उन्हें खुशी नहीं होगी? ऐसे सैकड़ों नए कलाकार हैं जो किसी जाने-माने अवॉर्ड शो की स्टेज पर चढ़ने के सपने देखते हैं। और आखिर वे क्या करें? हमने अपनी तमाम संस्थाओं को जिस नीचाई पर जाने दिया है, नए लोगों को तो उन्हीं से काम चलाना है। वे इसमें कुछ नहीं कर सकते कि उन्हीं के बीच वे लोग भी छुपे हुए हैं जिन्होंने पुरस्कार के लिए भारी लॉबिंग की है या उसके लिए पैसे दिए हैं। असल में, किन्हीं भी पुरस्कारों के लिए सबसे मुश्किल काम अपनी साख बनाना और उसे बरकरार रखना है। ऐसी साख कि कोई उसे बाथरूम का हैंडल बनाने से पहले कई बार सोचे। सुभाष घई और अशोक पंडित को समझना चाहिए कि नसीरुद्दीन शाह को चुप करा देने से यह साख वापस नहीं आएगी। उसके लिए तो पुरस्कार देने वालों और सिनेमा उद्योग दोनों को जुटना पड़ेगा।