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जाबी लगे घोड़ों की चारागाह

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अज्ञेय ने डा. लोहिया की के शब्दों में आलोचना की थी, – “लोहिया की ठेठ भाषा में ऐसे बिंब उभारने की शक्ति है, जिन की छाप मन पर बनी रहे; पर तर्क में जब हम बिंबों और प्रतीकों का सहारा अधिक लेने लगते हैं तब सचाई के खो जाने का खतरा रहता है।”… दरअसलहिन्दू नेताओं में अज्ञान, आलस्य, और आडंबर की ऐसी लत लगी हुई है कि वे आँखों के सामने हो रही को भी अनदेखा करते रहते हैं। वे ‘बुरी बातें न देखने’ वाले गाँधीजी के बंदर बनना पसंद करते हैं। ताकि उन की विवेकहीनता, अकर्मण्यता छिपी रहे, और उपदेश देकर, निजी लटकों-झटकों से ही काम निकलता रहे। या कम से कम उन का अपना समय तो कटता रहे।

बहुत कम लोगों को मालूम है कि समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया और कवि-विचारक सच्चिदानन्द वात्स्यायन (अज्ञेय) इलाहाबाद के कॉफी हाउस में बैठ कर गपशप करते थे। दोनों के विचार भिन्न थे, पर दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। यह तो विदित ही है कि लोहिया की प्रशंसा और आलोचना, दोनों ही भरपूर होती रही थी। किन्तु साप्ताहिक ‘दिनमान’ के संपादक के रूप में वात्स्यायन जी द्वारा लोहिया की राजनीति और शैली की आलोचना बड़ी मूल्यवान है। वह आज भी प्रासंगिक है, जब हमारा देश तमाशों और लफ्फाजियों की राजनीति में डूबता जा रहा है।

लोहिया जी अपने भाषणों और टिप्पणियों में चित्र-विचित्र मुहावरों का प्रयोग बहुत अधिक करते थे। जैसे, ‘कुजात गाँधीवादी’, ‘वर्ण-संघर्ष’, आदि। चाहे ऐसे मुहावरों का कोई अर्थ अनुयायियों को भी समझ में नहीं आता था। पर केवल शब्दों के अनोखे या तीखेपन के कारण लोहिया के भक्त इसे बड़ी ऊँची बात मान कर प्रभावित रहते थे। बिना सिर-पैर समझे भी वे आश्वस्त रहते थे कि लोहिया जी महान विचारक हैं। अज्ञेय ने इसी चीज पर ऊँगली रखी थी, कि यह एक हानिकारक आदत है।

पहले देखें, लोहिया की आलोचना, अज्ञेय के शब्दों में – “लोहिया की ठेठ भाषा में ऐसे बिंब उभारने की शक्ति है, जिन की छाप मन पर बनी रहे; पर तर्क में जब हम बिंबों और प्रतीकों का सहारा अधिक लेने लगते हैं तब सचाई के खो जाने का खतरा रहता है।”  इसी क्रम में, अज्ञेय की एक अन्य टिप्पणी:  “अपने गंभीर अध्ययन और मौलिक चिंतन के बावजूद लोहिया बराबर अपने को ऐसा स्थिति में डालते (या रखते), जहाँ उन की नीतियों की बुनियाद एक सर्वथा नकारात्मक ‘हटाओ’-वाद के सिद्धांत पर कायम रही है।”

यह बड़ी मार्के की बात है। कि लिफाफे की शान पर अधिक ध्यान हो तो मजमून खो या छिप जाता है। जबकि असली चीज नेता के विचार या नीति है, लटके और भंगिमाएं नहीं। क्योंकि उस की नीतियाँ ही समाज को अच्छे या बुरे प्रभावित करेंगे। लेकिन यदि नाटक-तमाशे, जुमले-लफ्फाजियाँ, अनोखी अदाएं ही बार-बार प्रस्तुत हों, तो सचाई खो जाती है! सारी चर्चा, हंगामा, किन्हीं बिंबों प्रतीकों पर रह जाती है। लोहिया के उदाहरण से अज्ञेय ने मुहावरों, बिंबों के अतिप्रयोग की हानियों पर विस्तार से स्पष्ट किया है। वह अध्याय रमेशचंद्र शाह की पुस्तक “पत्रकारिता के युग-निर्माताः स. ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’” में पूरा पठनीय है।

हालाँकि, कहना चाहिए कि भारतीय राजनीति में यह हानिकारक चलन गाँधीजी ने आरंभ किया था। उन्होंने यहाँ की राजनीति में प्रवेश करते ही तिलक, एनी बेंसेट, जिन्ना, मालवीय, आदि की कामकाजी, विचारवान, सामूहिक, सहज नेतृत्वशैली को कतई छोड़ दिया। बदले में आडंबरी वेश, नाटकीय उपदेश, आकस्मिक और तानाशाही निर्णय, महत्वाकांक्षी पर निरे काल्पनिक कार्यक्रमों, विचित्र निजी आदतों, आदि से हिन्दू जनता को प्रभावित करने में वे सफल रहे। नतीजन, कांग्रेस के बड़े नेता भी उन के विचित्र फैसले मानने को मजबूर हो जाते, या उसी को आसान रास्ता मानते थे। परन्तु वास्तविक परिणाम क्या हुआ? सन् 1919 के ‘खलीफत जिहाद’ से लेकर ‘भारत छोड़ो’ और ‘देश-विभाजन मेरी लाश पर होगा’, की अंतिम परिणति तक कभी भी गाँधीजी के किसी घोषित उद्देश्य को नहीं पाया जा सका। बल्कि हर महत्वपूर्ण मोड़ और मुद्दे पर उलटा ही हुआ!

यह सब आडंबर-तमाशे को मुख्य, और विचार-विवेक को गौण मानने का ही सीधा परिणाम था। यह इस से भी दिखेगा कि गाँधी जी की मनमानी धारणाओं, कल्पनाओं, और जिद-नाटकों की तात्कालीन मनीषियों, और कुछ नेताओं ने सधी आलोचनाएं की थीं। गोखले, एनी बेसेंट, जिन्ना, टैगोर, श्रीअरविन्द, निराला, आदि ने। किन्तु सब को सदा अनसुना किया गया। क्योंकि गाँधी के आडंबर, नाटकीय दावों, और तमाशा-राजनीति से जनता उन्हें चमत्कारी मानने लगी थी। ऊपर से अंग्रेजों ने गाँधीजी को ‘अपना आदमी’ के रूप में नियमित प्रचार और अवसर दिया।

सो, वही हुआ जो अज्ञेय ने लोहिया के लिए कहा कि आडंबरी बातों, रेटरिक, का नियमित प्रयोग ‘‘भीड़ में भले ही काम दिखा जाए; सत्य के शोध में काम नहीं देता।’’ गाँधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस अंधानुकरण में ही लगी रह गई, सत्य को देखा विचारा ही नहीं। जबकि सत्य थी: इस्लामी राजनीति की सर्वग्रासी धारणाएं, कम्युनिस्टों की कुटिल योजनाएं, हिटलर-स्तालिन की साम्राज्यवादी नीतियाँ, और ब्रिटिश शासकों के हित एवं तुलनात्मक स्थिति। परन्तु हिन्दुओं के सर्वोच्च नेता गाँधीजी इन सब ठोस सत्यों से सिफर या ऊपर रहते हुए अपने आडंबर पर स्वयं मोहित रहते थे। मानो जो नाटकीयता आम हिन्दू जनता को प्रभावित करती है, वह इर्विन, जिन्ना, हिटलर, आदि को भी कुछ न कुछ करेगी ही। आखिर गाँधी ‘महात्मा’ और ‘दूसरे जीसस’ हैं, आदि।

पर सचाई यह थी कि बेचारी भेड़-बकरी नुमा सीधी हिन्दू जनता ही ‘महात्मा’ पर लट्टू होती रही। जबकि ठोस राजनीतिक जमीन पर शक्ति-संतुलन, बुद्धि-संघर्ष, और ठंढे हिसाब-किताब ने परिणाम तय किया। फलतः हिन्दू समाज चोट पर चोट खाता रहा, इस्लामी राजनीति होशियारी से बैठे-बेठे मोटी होती गई, अंग्रेज शासक वामपंथियों को हीरो बनाकर और गाँधी-नेहरू के भोलेपन का फायदा उठाते रहे। अंततः तीस वर्षों की एकाधिकारी, महात्माई, तमाशाई राजनीति का फल यही हुआ कि मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन कर देश के सब से समृद्ध और विशाल पंजाब, बंगाल के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं को बेमौत मौत और लंबी तबाही के रास्ते पर डाल दिया।

दुर्भाग्यवश, उस से कोई सीख न लेकर बचे हुए भारत में फिर वही कहानी दुहराई जाती रही। गाँधीजी की हत्या से उन की राजनीति के ठोस मूल्यांकन के बदले नए सिरे से महानता का सतत, राजकीय आडंबर स्थापित कर उनके उत्तराधिकारी ने प्रतिद्वदियों को बदनाम किया। साथ ही, कबूतर उड़ाकर और वामपंथी भाषण दे-देकर, पूरे विश्व में शान्ति स्थापित किए रहने वाले ‘वैश्विक-नेता’ होने का अहंकार पाल लिया। नतीजन फिर चीन, पाकिस्तान, और अंदर से भी तिहरी चोटें भारत को बार-बार खानी पड़ी।

इस पूरे अनुभव से शायद ही कुछ सीखा गया है। हिन्दू नेताओं में अज्ञान, आलस्य, और आडंबर की ऐसी लत लगी हुई है कि वे आँखों के सामने हो रही को भी अनदेखा करते रहते हैं। वे ‘बुरी बातें न देखने’ वाले गाँधीजी के बंदर बनना पसंद करते हैं। ताकि उन की विवेकहीनता, अकर्मण्यता छिपी रहे, और उपदेश देकर, निजी लटकों-झटकों से ही काम निकलता रहे। या कम से कम उन का अपना समय तो कटता रहे। वही सब होता रहता है।

आखिर, जिन घोड़ों के मुँह पर स्थाई जाबी लगी हो, तो उन्हें नई-नई चरागाहों में ले जाकर बसाने से बेचारों को क्या हासिल होना है! यदि आम नेता लोग अपने-अपने पार्टी आकाओं के सामने मौन झुके रहें, तो वे देश तो क्या, अपना भी प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। किसी घटना, नीति, समस्या पर वे अपने मन की बात नहीं बोल सकते। उन्हें केवल और केवल वही बोलना है जो पार्टी के आला निर्देश दें। ऐसी बातें प्रकृति से ही सीमित और प्रायः नकली भी होती हैं। वह सीमित, झूठी बात बोलने, और मुख्यतः चुप रहने के लिए, लकड़ी का डेयस मिले या सोने का – उस से क्या अंतर पड़ता है!

लोकतंत्र को वैसे भी ‘मूर्खों का शासन’ कहा गया है। उस में भी भारत में भक्ति-तमाशा राजनीति की परंपरा ने उसे और कर्महीन बना डाला है। यूरोपीय, अमेरिकी लोकतंत्रों में जनप्रतिनिधियों पर पार्टी की तानाशाही नहीं है। वहाँ सीनेट, एसेंबली, आदि के सदस्य बेखटके अपने विचार रखते हैं। सदैव पार्टी नेता की हाँ में हाँ मिलाना उन का कर्तव्य नहीं है। वे देश समाज के हित में जो वस्तुतः सोचते हैं, वही बोलते करते हैं। परन्तु भारत में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भेड़-बकरियों समान हाँकने की परंपरा बनी हुई है। यहाँ तमाशा और लफ्फाजी नेताओं के वैचारिक आलस्य, विवेकहीनता और नैतिक दुर्बलता ढँकने की आड़ बनी हुई है।

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By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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