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जुलूसो की राजनीति की आड़ में धर्म के नाम पर हुड़दंग

भोपाल। आज से तीस वर्ष पहले तक धार्मिक जुलूसों का माहौल नहीं हुआ करता था। हकीकत तो यह है कि सत्तर और अस्सी के दशक में उत्तर भारत में राम बारात निकलती थी और महाराष्ट्र में गणपती की जयंती में पंडालों में दर्शनार्थियों की भीड़ होती थी। मैसूर में दशहरे की दिन सवारी निकलती थी। बंगाल में तो बस दुर्गा पूजा के दौरान विसर्जन का जुलूस निकलता था। जिसमें कुछ इंतजामिया कमेटी के लोग और थोड़े से भक्त ही होते थे। हाल ही में बंगाल और बिहार तथा महाराष्ट्र में जुलूसों के दौरान हुई हिंसात्मक घटनाओं को मोदी सरकार ने गंभीरता से लिया हैं। इसीलिए राज्यों सलाह दी गयी है।

आजकल तो हाल यह हैं कि इलाके के कुछ बेरोजगार नौजवानों तो कोई पर्व हो तो मूर्ति बिठाने और -पंडाल निर्माण तथा भंडारे के इंतजाम के लिए चंदे की रसीद लेकर निकाल पड़ते हैं। फिर घरो और दुकानों से होती है वसूली। अधिकतर यह देखा गया हैं कि टीन की चादरों के पंडाल में मूर्ति के अलावा बड़े ऊंचे आवाज़ में बजता लाउड स्पीकर ही होता है। कुछ ऐसा ही धर्म के नाम पर निकालने वाले जुलूसों कोई धार्मिक व्यक्ति दो कार्य ही होते हैं। बाकी भीड़ उन बेरोजगारों की होती है जीने पैसा देकर लाया जाता हैं। फिर शुरू होता है नेताओं का खेल। हमारी श्रद्धा है कि हमारे जुलूस को किसी भी रास्ते से निकलने की आज़ादी दे। अक्सर उन रास्तों पर मस्जिद और गिरिजाघर होते हैं। जिनको अपमानित करने के लिए नारे और धूम धड़का होता है।

जुलूसों में केवल बीजेपी विश्व हिंदु परिषद और बजरंग दल के नेता और कार्यकर्ता ही पाये जाते हैं। जो सक्रिय भूमिका निभाते हैं। फिर होता है हिंसक मुठभेड़! कोई भी समुदाय अपने पूजनीय लोगों के प्रति अपशब्द नहीं सुन सकता।

विगत चार – पाँच सालों से शहरों में सड़क के किनारे शिव और शनि तथा बजरंगबली के कुटीय नुमा मंदिरों की बाढ़ सी आ गयी है। नगर निगम की भूमि पर अतिक्रमण कर बने इन उपासना स्थलों में, मंदिर के कर्मकांड और उपयुक्त पुजारियों का सर्वथा अभाव हैं। परंपरागत मंदिरों में आज भी भीड़ होती हैं। उनमें ना तो लाउड स्पीकर का कान फोड़ू शोर होता है और बाकायदा चढ़ावा और प्रसाद की व्यवस्था भी होती हैं। जगह – जगह इन तथाकथित मंदिरों की कानूनी हाईसीयत और मालिकाना हक़ का कोई सबूत नहीं होता। सिवाय इसके कि किसी नगर निगम या विधायक की शह पर इनका निर्माण हो जाता हैं। फिर सिलसिला शुरू होता है चंदा उगाही का !

भोपाल में एक विधायक की व्यापारियों से चंदा वसूली के इतने किस्से हैं कि उनका नाम ही चंदा मामा हो गया हैं। वैसे जमीन को कब्जा कर मूर्ति बिठाने में नेता जी की दहौंस पट्टी ही काम आती है। अफसर और कर्मचारी भी अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में आँख मूँद लेते हैं। मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालया ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कोई तीन साल पहले की वह राज्य में मंदिरों की संख्या और उनकी वैधता के बारे में एक रिपोर्ट पेश करे। परंतु आज तक प्रदेश सरकार ने ना तो इन मंदिरों की गिनती कराई है और नहीं यह परीक्षण किया हैं की उनका निर्माण नियमानुसार हुआ है अथवा नहीं। अकेले भोपाल में ही ऐसे कुटिया नुमा मंदिरों की संख्या हज़ार से अधिक की हैं।

अभी हाल में रामनवमी के दिन इंदौर में एक मंदिर की बावड़ी के धंस जाने से 39 लोगों की मौत हो गयी। मामले के तूल पकड़ने पर जांच हुई तो उसका निर्माण गैर कानूनी पाया गया। कहा जाता हैं कि सांसद भी मंदिर के ट्रस्ट में थे। उन्होंने सफाई दी की वे किसी भी बैठक में नहीं गए। बाद में मंदिर के निर्माण को बुलडोजर चला कर बराबर कर दिया गया। यह तो एक उदाहरण हैं।

एक ओर प्रदेश की जनता को मंहगाई और स्वास्थ्य की सुविधाओं की उपलब्धता नहीं हो रही। शिशुओं और बालको की शिक्षा के लिए किताब कापियो की कालाबाजारी की जा रही हैं| परंतु सरकार चुनावी वर्ष में 4000 करोड़ की विशाल राशि तीर्थ यात्रा और मंदिरों और पुजारियों के मानदेय पर खर्च करने वाली हैं। चुनाव में बाबाओं और साधु -महंतों से ज्यादा नेता और मंत्री अपने -अपने इलाकों में “लखटकीय” कथा वाचकों के सहारे भीड़ इकठा कर रहे हैं। अभी कुछ समय पूर्व रुद्राक्ष बांटने के आयोजन के चलते भोपाल – इंदौर राजमार्ग पर ट्राफिक जाम हो गया था, जो अनेकों घंटे तक चला ! इसी आयोजन में एक युवती गायब हो गयी और अनेकों लोग अपने परिवार से बिछड़ गए। जिला प्रशासन ने धार्मिक आयोजन और ऊपर के आदेश से इस कार्यक्रम को नियंत्रित नहीं किया। पंजाब में सिखों और निरंकारियों तथा राम गडि़या समुदाय की बड़ी – बड़ी संगत होती है जिनमे बीस -बीस हजार तक श्रद्धालु आते हैं। परंतु आयोजक सारे बंदोबस्त रखते हैं। परंतु यहां तो कथा स्थल पर ना तो पेय जल की व्यापक व्यवस्था ना ही नीति क्रिया के लिए कोई इंतेजाम। चिकित्सा सुविधा तो नाम मात्र को नहीं।

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