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चंद्रशेखर मजे में, नुपूर खतरे में – क्यों?

अच्छा हो, कि हमारे सर्वोच्च सांसद, मंत्री, और न्यायाधीश समाज के विवेकशील प्रतिनिधियों को साथ लेकर समरूप विचार-नीति और दंड-नीति बनाएं। जिस से शिक्षा और कानून, तथा राजनीतिक और धार्मिक व्यवहारों पर सभी समुदायों को एक समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। किसी भी बहाने किसी समुदाय को विशेष अधिकार, या किसी को विशेष उपेक्षा न मिले। विशेषाधिकारों का दावा अधिक दूर तक नहीं चल सकता। सब को निरपवाद रूप से मांनना होगा कि दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो अपने लिए नहीं चाहते।

स्वतंत्र भारत में यह आम दृश्य है कि हिन्दू धर्म, जाति, आदि पर कितने भी घटिया और गलत भाषण भी क्यों न दिए जाएं, उस पर सभी उच्च निकाय मौन रहते हैं। जबकि दूसरे धर्मों पर हल्की और सच्ची बातों पर भी सब नाराज व सक्रिय हो जाते हैं। बिहार में राजकीय पद से एक नेता महाकवि तुलसीदास की रामचरितमानस के लिए भद्दी-भद्दी बातें कहते रहे हैं। पर वे मजे में हैं। दूसरी ओर, नुपूर शर्मा ने शिव महादेव पर आक्षेप करने वाले को उस के प्रोफेट संबंधी प्रमाणिक बात भी कहने का संकेत किया, तो उन का जीना मुहाल हो गया।

क्या ऐसे दोहरे रुख से कभी न्याय या सौहार्द स्थापित हो सकता है?

इस प्रश्न पर विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तीनों मानो बैरागी-साधु बन जाते हैं। लेकिन दशकों से एक समुदाय विशेष के नेता दूसरे समुदाय के देवी-देवताओं, महान ज्ञान-ग्रंथों, आदि का खुला अपमान करते रहे हैं। जिन पर प्रशासन या न्यायपाल कभी ध्यान नहीं देते। आज यू-ट्यूब, सोशल-मीडिया, और इंटरनेट के कारण ऐसे दर्जनों भाषण सुने जा सकते हैं। आम सभा में सांसद और विधायक जैसे पदधारी तक भगवान राम, तथा माता कौशल्या पर गंदी छींटाकशी करते रहे हैं। वे एक समुदाय को कायर, दब्बू, नीच, आदि बता कर कहते हैं कि वह तो केवल पुलिस भरोसे बचा है, जिसे थोड़ी देर के लिए हटाते ही उस की दुर्गति कर दी जाएगी, आदि।

वैसे धमकी भरे, अपमानजनक, भड़काऊ भाषणों को दंडित करना रोकना तो दूर, शिकायत करने पर भी न्यायपाल और कार्यपाल सब अनसुना, रफा-दफा कर देते हैं। इस से वैसे दावों, लांछनों, दुस्साहसियों को प्रोत्साहन मिलता है। तभी तो वैसे बयान नियमित दुहराए जाते हैं। इस से एक समुदाय में अपने दबंग होने, और दूसरे में अपने अपमान व नेतृत्वविहीनता का दंश होता है। क्या यह शासन के रुतबे, या समाज के हित के लिए अच्छा है?

कुछ मतावलंबियों की मूल किताबों में ही दूसरे मत मानने वाले समुदायों के विरुद्ध तरह-तरह की घृणित बातें, और हिंसक आवाहन लिखे हुए हैं। तब वैसी बातों पर अन्य समुदायों को आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं? विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब शासन-सत्ता उन्हीं किताबों के पठन-पाठन समेत, संबंधित मतावलंबियों को विशेष शैक्षिक-तकनीकी स्वतंत्रता देती है। इस तरह, अन्य समुदायों के विरुद्ध घृणा फैलाने को किसी समुदाय की ‘शिक्षा’ का अंग मानकर राजकीय सहायता भी मिलती है। क्या इस पर देश के कर्णधारों को विचार नहीं करना चाहिए? क्या उन के अपने घर-परिवार का हित भी समाज के हित से भिन्न है?

यह सब बातें राई-रत्ती देखी-परखी जा सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं किया जाता। बल्कि करने वालों को रोका जाता है। इसे प्रमाणिक उदाहरणों के साथ विचार के लिए प्रस्तुत करने पर अब न्यायालय आवेदक को ही जुर्माना कर डालता है! दो साल पहले एक चर्चित प्रसंग में यही हुआ था। इस से यही संदेश गया कि उन उदाहरणों को गलत बता कर फैसला दे सकना न्यायाधीशों के बस से बाहर था। चूँकि वे ऐसे मामलों से कन्नी कटाना चाहते हैं, इसलिए आवेदक को दंडित करके सब को चेताया कि चुप रहें। इस का परिणाम सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अहितकर ही हो सकता है।

वस्तुतः धर्म, संप्रदाय, जाति संबंधी मामलों में, उच्च पदस्थ लोगों और निकायों द्वारा दोहरापन दिखाना ही तीखी प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है। गत वर्ष हरिद्वार में हुई धर्म-सभा के वक्तव्य इस के उदाहरण हैं। परन्तु उस का कारण यही है कि देश की जिम्मेदारी लिए हुए शासक, न्यायपाल, विधि-निर्माता, आदि लोग हिन्दू समुदाय के लिए न्याय और सम्मान के प्रति निर्विकार बने रहते हैं। एक सेक्यूलर शासन में नियमित दो-नेतिया व्यवहार उस की वकत पर भी सवाल खड़े करता है कि उस में कोई माद्दा, कोई कलेजा, या बुद्धि है या नहीं?

यह हमारे राजनीतिक, बौद्धिक वर्गों में आई घोर मानसिक गिरावट है। वह अपनी आँखों के सामने घटते घटनाक्रम का आकलन करने में भी असमर्थ, अयोग्य साबित हो रहा है। अनेक बड़ी-बड़ी घटनाओं में दिखता रहा कि अपने समुदायिक हितों, धर्म, संस्कृति के प्रति विषम व्यवहार पर हेठी झेलने वाले समूह में असंतोष जमा होता है। उस से द्वेष, झगड़े बढ़ते, और हिंसा-विध्वंस तक होता है। वह चुनावी उथल-पुथल में भी व्यक्त होता है। फिर भी, हमारे राजनीतिक दल, शासक, बौद्धिक, तथा न्यायपाल वही दोहरापन जारी रखते हैं। कानूनी रूप से, और कानून की उपेक्षा करके, दोनों रूपों में। आखिर, हेट-स्पीच पर दो-रुखापन, मनमानापन क्या दर्शाता है?  वे हेट-स्पीच को सत्यनिष्ठा से, कानूनी रूप में परिभाषित क्यों नहीं करते, जिस से किसी भी बयान, व्यक्ति, किताब, या कार्य को समान तराजू से तौला जा सके?

ध्यान रहे कि असुविधाजनक बातों, फैसलों, भंगिमाओं को दबा-छिपाकर लोक-स्मृति से गायब कर देने की संभावना अब पहले से घट गई है। नए मीडिया ने सभी सेंसरशिप को अंतर्राष्ट्रीय रूप से निष्फल कर दिया है। हर उचित-अनुचित बात, चाहे वह जिस ने भी कही हो या की हो, वह बिना किसी खर्च के घर-घर पहुँचाई जा सकती है। अतः अन्यायपूर्ण, अपमानजनक कथनी-करनी पर शासन को पक्की समानता बनानी ही होगी। वे इस से बच नहीं सकते। ऐसा न करने की कीमत समाज में निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ रही है। हरेक वर्ग, समूह, जाति, संप्रदाय के निर्दोष लोगों को नेताओं की बयानबाजी या उपेक्षा के कारण दूसरों के संदेह/द्वेष का शिकार होना पड़ता है। इसे केवल शासन की समदर्शिता ही रोक सकती है, क्योंकि उसी के पास सारे अधिकार और मशीनरी है। इस के बदले, जब-तब उपदेश देना और अपने उत्तरदायित्व से बचना कोई उपाय नहीं है।

आवश्यक तो यह है कि सांसद, विधायक, और बड़े नेताओं के द्वेषपूर्ण सांप्रदायिक या जातिवादी बयानों पर अधिक कड़ाई एवं तेजी से कार्रवाई हो। उस से समाज के सभी वर्गों में भरोसा पैदा होगा। विवेकशील लोग किसी भी समुदाय के नेताओं को समान न्यायदृष्टि से देखते हैं। अतः जब अनुचित बोलने वाले, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के क्यों न हों, समान रूप से दंडित होंगे, तब विभिन्न समुदायों में आपसी संदेह न होगा। इस के अभाव में, मुँह देख-देख कर मामले उठाने, दबाने के कारण सामुदायिक दूरियाँ बढ़ती हैं। उस से राजनीतिक दल भले लाभ उठाते रहें, किन्तु समाज की निश्चित हानि होती है।

अच्छा हो, कि हमारे सर्वोच्च सांसद, मंत्री, और न्यायाधीश समाज के विवेकशील प्रतिनिधियों को साथ लेकर समरूप विचार-नीति और दंड-नीति बनाएं। जिस से शिक्षा और कानून, तथा राजनीतिक और धार्मिक व्यवहारों पर सभी समुदायों को एक समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। किसी भी बहाने किसी समुदाय को विशेष अधिकार, या किसी को विशेष उपेक्षा न मिले। विशेषाधिकारों का दावा अधिक दूर तक नहीं चल सकता। सब को निरपवाद रूप से मांनना होगा कि ‘दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो अपने लिए नहीं चाहते।’ कोई भी अपने धर्म, जाति, संप्रदाय के लिए ऐसे अधिकार नहीं ले सकता, जो वह दूसरों को न देना चाहे। यह व्यवस्था आज न कल करनी ही होगी। अतएव, शुभस्य शीघ्रम्।

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By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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