कन्याकुमारी से कश्मीर तक जिस तरह लोगों का स्वतःस्फूर्त जुड़ाव इस यात्रा से बना, उससे यह साफ संकेत मिला कि देश को जिस दिशा में ले जाया गया है, उससे भारतीय जनमत का बहुत बड़ा हिस्सा असंतुष्ट है। …राहुल गांधी को श्रेय दिया जाएगा कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान नफरत की राजनीति के साथ-साथ संपदा हड़पे जाने की परिघटना को भी उन्होंने अपने निशाने पर रखा। लेकिन फिलहाल यह बात भावनाओं के दायरे में सिमटी हुई है। अब अगर वे कोई अगला अभियान शुरू करते हैं, तो लोग उस दौरान इन दोनों परिघटनाओं से मुकाबले की उनकी साझा नीति और कार्यक्रम की झलक देखना चाहेंगे।
राहुल गांधी के नेतृत्व में हुई भारत जोड़ो यात्रा इस बात को जताने में ठोस रूप से कामयाब रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी भारत को जैसी नई पहचान देने की कोशिश कर रहे हैं, देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा उससे सहमत नहीं है। वह हिस्सा भारत को उसी रूप में देखना चाहता है, जिसकी परिकल्पना स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में सामने आई थी। राहुल गांधी ने सभी समुदायों के लोगों को उनकी अपनी खास पहचान के साथ यात्रा में जोड़ कर भारत की बहुलतावादी अस्मिता को एक विचारधारात्मक और राजनीतिक वक्तव्य के रूप में फिर से देश- बल्कि दुनिया- के सामने रखा है।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक जिस तरह लोगों का स्वतःस्फूर्त जुड़ाव इस यात्रा से बना, उससे यह साफ संकेत मिला कि देश को जिस दिशा में ले जाया गया है, उससे भारतीय जनमत का बहुत बड़ा हिस्सा असंतुष्ट है। यह वो हिस्सा है, जो उस भारत की उस पहचान को फिर से स्थापित करने के लिए व्यग्र है, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई है। भारत जोड़ो यात्रा ऐसे तमाम लोगों के लिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक मौका बनी। इनमें से लाखों लोगों ने सीधे यात्रा से शामिल होकर और उससे भी ज्यादा बड़ी संख्या में लोगों ने इससे मनोवैज्ञानिक से जुड़ कर या वैचारिक रूप से यात्रा का पक्ष लेकर आज की राजसत्ता के काउंटर नैरेटिव को गढ़ने की प्रक्रिया में अपने को शामिल किया है।
राहुल गांधी ने लगभग चार हजार किलोमीटर की पद यात्रा शुरू करने से पहले इसके जो कारण बताए थे, उसे उन्होंने यात्रा के दौरान कई बार दोहराया। उसके साथ ही उन्होंने यात्रा के मकसदों का भी उल्लेख किया। इस क्रम में लगभग पांच महीनों की यात्रा के दौरान समझ और उद्देश्य का उल्लेखनीय विस्तार होने के कुछ संकेत भी मिले।
- राहुल गांधी ने यात्रा शुरू करने का कारण यह बताया था कि अब चूंकि पारंपरिक रूप से विपक्ष की भूमिका निभाने की स्थितियां नहीं बची हैं, इसलिए सीधे जनता के बीच जाने के अलावा कोई और चारा नहीं है।
- वर्तमान सरकार के तहत जिस तरह से संवैधानिक संस्थानों और मीडिया पर पूरा नियंत्रण कर लिया गया है, जिस तरह अब संसद तक में सरकार के लिए असहज बातों को कहने की अनुमति नहीं है, और जिस तरह चुनावों में अब सभी पक्षों के लिए समान धरातल नहीं बचा है, उसके बीच अब राजनीति करने का तरीका बदलना होगा।
ये दोनों ऐसी बातें हैं, जिनसे आज की स्थिति को समझने वाला कोई विवेकशील विश्लेषक असहमत नहीं होगा। चूंकि तमाम सत्ता केंद्रों पर संघ परिवार की विचारधारा का कब्जा हो गया है और जिस तरह सत्ताधारी जमात और इजारेदार पूंजीपतियों का एक फिलहाल अभेद्य-सा दिखने वाला गठजोड़ उभर आया है, उसके बीच परंपरागत चुनावी राजनीति से परिवर्तन की उम्मीद लगातार घटती चली गई है। चूंकि यही ख्याल देश के जनमत के एक बड़े हिस्से में भी गहराता चला गया है, इसलिए ऐसे तमाम समूहों को भारत जोड़ो यात्रा एक ताजा हवा की तरह महसूस हुई है। यही बात जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कश्मीर के संदर्भ में कही। दरअसल, कश्मीर में जिस तरह यात्रा का अप्रत्याशित स्वागत हुआ, उसका भी यही संकेत है कि भारत जोड़ो यात्रा ने आम राजनीति में बनी गतिरोध की स्थिति के बीच एक उम्मीद पैदा की है।
इस यात्रा के दौरान मुख्य रूप से दो बातों पर राहुल गांधी का जोर नजर आया:
- उन्होंने भाजपा-संघ की नफरत और डर फैलाने पर आधारित राजनीति के जवाब में सबको जोड़ने की पहल की। इसे उन्होंने ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ खोलने की अपनी पहल के रूप में पेश किया। जैसे-जैसे यात्रा का कारवां आगे बढ़ा, वे इसका जिक्र करते रहे कि ऐसी ‘लाखों दुकानें’ लोग खोलते जा रहे हैं।
- बेरोजगारी और महंगाई कई वर्षों से उनके राजनीतिक कथानक का थीम रहा है। इन समस्याओं को नोटबंदी और दोषपूर्ण जीएसटी के साथ जोड़ कर इसके लिए वे मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे हैँ। इस कथानक को इस यात्रा के दौरान वे जनता के बीच अधिक प्रभावशाली ढंग से ले गए।
- ‘हम दो हमारे दो’ को नारे के जरिए उन्होंने दो पूंजीपति घरानों के साथ वर्तमान सरकार के अंतःसंबंधों को भी अपने पॉलिटिकल नैरेटिव का हिस्सा बनाए रखा है। यात्रा के दौरान भी यह मुद्दा उनके भाषणों के केंद्र में रहा।
- इसके साथ उन्होंने इस चर्चा में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी के सवाल को भी जोड़ कर इस नैरेटिव का विस्तार किया। यह एक महत्त्वपूर्ण पहल है।
- बीच-बीच में वे आदिवासी बनाम वनवासी जैसे मुद्दों को उठाते हुए दमित अस्मिता के प्रश्नों को भी चर्चा में लाते रहे।
इन सब बातों से यात्रा का नैरेटिव समृद्ध हुआ। इससे बहुत से ऐसे लोगों की इसमें दिलचस्पी और भागीदारी बनी, जो अतीत में- खास कर 1991 के बाद से- कांग्रेस ने जो की नीतियां अपनाईं, उस कारण उसके आलोचक रहे हैँ। यह राहुल गांधी की एक सफलता है। लेकिन अब बड़े संदर्भ को ध्यान में रखें, तो इसे सफलता के बजाय महज एक शुरुआत के रूप में देखा जाएगा। यह अब भी संभव है कि यह शुरुआत निष्फल हो जाए। इसलिए कि राहुल गांधी ने अभी यह नहीं बताया है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद उनका क्या एजेंडा है।
गौरतलब है कि भारत जोड़ो यात्रा को आयोजकों की तरफ से एक अ-राजनीतिक गतिविधि बताया गया है। इसलिए कांग्रेस के ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान को उसका अगला चरण कम-से-कम वे लोग नहीं मानेंगे, जो कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन जिन्होंने इस यात्रा को अपना समर्थन दिया है। ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान स्पष्टतः कांग्रेस की एक ऐसी गतिविधि है, जिसे अगले चुनावों को ध्यान में रख कर चलाया जा रहा है।
गौरतलब है कि कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा को चुनावी राजनीति से असंबंधित होने की बात बार-बार कही है। साथ ही यह कहते हुए कि इस यात्रा से तुरंत किसी बदलाव या सकारात्मक राजनीतिक परिणाम की आशा नहीं रखी जानी चाहिए, यात्रा के आयोजकों ने इसे सही रूप में पेश किया था।
इसीलिए अब सवाल है कि अब आगे क्या? इसलिए कि अगर तुरंत किसी परिणाम की उम्मीद नहीं रखी गई थी, तो परिणाम हासिल होने तक इसे जारी रखने के अलावा कोई और चारा नहीं है। इसलिए यह उम्मीद रखी जाएगी कि इस यात्रा का अब कोई नया संस्करण जरूर शुरू किया जाएगा- भले वह ऐसी ही यात्रा के रूप में ना हो। और उस नए संस्करण में लोग राहुल गांधी और उनके सहकर्मियों से उन प्रश्नों पर उनके उत्तर चाहेंगे, जो उन्होंने इस यात्रा के दौरान उठाए हैं। मसलन, लोग जानना चाहेंगे कि
- आर्थिक गैर-बराबरी की खाई पाटने का उनके पास व्यावहारिक कार्यक्रम क्या है?
- कुछ पूंजीपति घरानों का अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में जो एकाधिकार कायम हो गया है, उसे तोड़ने का उनके पास क्या एजेंडा है?
- क्या शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों के निजीकरण की नीति को गुणात्मक ढंग से पलटने का इरादा वे रखते हैं?
- नव-उदारवादी आर्थिकी के तहत आने वाली ‘न्याय’ जैसी योजनाओं पर भरोसा करने के बजाय क्या वे राज्य नियोजित अर्थव्यवस्था की तरफ लौटने को तैयार हैं?
- क्या वे सचमुच सोचते हैं कि इस तरह के बुनियादी दिशा परिवर्तन के बिना भी बेरोजगारी और महंगाई जैसी समस्याओं का हल हो सकता है?
इन प्रश्नों का सीधा संबंध नफरत की राजनीति से भी है। दरअसल, पूरी अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने को आतुर पूंजीपतियों ने अपना पूरा दांव इसीलिए भाजपा पर लगा रखा है, क्योंकि भाजपा-संघ की राजनीति उनके इस इरादे पर से लोगों का ध्यान हटाए रखने में सबसे ज्यादा कारगर है। इस राजनीति ने लोगों को अपनी सामुदायिक पहचान जताने और दूसरे सामुदायिक पहचानों से नफरत करने में इस तरह उलझा रखा है कि देश की संपदा किस तरह कुछ हाथों में केंद्रीकृत होती जा रही है, यह बात चर्चा में ही नहीं आती।
तो यह स्पष्ट है कि नफरत की राजनीति का मुकाबला बिना इजारेदार सरमायादारी विरोधी आर्थिकी का एजेंडा पेश किए करना लगभग असंभव है। राहुल गांधी को श्रेय दिया जाएगा कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान नफरत की राजनीति के साथ-साथ संपदा हड़पे जाने की परिघटना को भी उन्होंने अपने निशाने पर रखा। लेकिन फिलहाल यह बात भावनाओं के दायरे में सिमटी हुई है। अब अगर वे कोई अगला अभियान शुरू करते हैं, तो लोग उस दौरान इन दोनों परिघटनाओं से मुकाबले की उनकी साझा नीति और कार्यक्रम की झलक देखना चाहेंगे।