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फ़िल्मों के यादगार दौर की फ़िल्म

सभी चरित्र और घटनाएं काल्पनिक हैं’ वाले डिस्क्लेमर के बावजूद प्राइम वीडियो पर शुरू हुई वेब सीरीज़ ‘जुबली’ में श्रीकांत राय बने प्रोसेनजीत और सुमित्रा कुमारी बनीं अदिति राव हैदरी उन्हीं वास्तविक पात्रों का आभास देते हैं। दोनों का व्यक्तित्व वैसा ही बनाया गया है और देविका की तरह सुमित्रा अपने पति की फिल्म के हीरो जमशेद खान के साथ भाग भी जाती हैं। वेब सीरीज़ में बॉम्बे टॉकीज़ की जगह स्टूडियो का नाम रॉय टॉकीज़ है और घटनाक्रम का समय भी बदल कर आजादी से कुछ महीने पहले का बताया गया है जबकि मूल घटनाएं इससे एक दशक पहले की थीं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

पुराने अभिनेता विश्वजीत के बेटे प्रोसेनजीत बांग्ला फिल्मों के स्टार हैं। हिंदी फिल्मों में क्षेत्रीय कलाकारों को ज्यादा नहीं पूछा जाता, इसलिए हिंदी में काम करने की प्रोसेनजीत की ज्यादा ख्वाहिश नहीं रहती। उनकी पिछली हिंदी फिल्म ‘शंघाई’ थी। जाहिर है, हिंदी फिल्मों का पुराना दौर दिखाने वाली ‘जुबली’ के लिए वे काफी सोच-विचार कर तैयार हुए होंगे, लेकिन लगता है कि हिंदी के दर्शक उन्हें सबसे ज्यादा इसी के लिए याद रखेंगे। अदिति राव हैदरी, अपाऱशक्ति खुराना और राम कपूर को भी इस वेब सीरीज़ से मजबूती मिलेगी। बल्कि ‘जुबली’ फिल्मकार विक्रमादित्य मोटवानी की भी उपलब्धि गिनी जाएगी जो ‘सैक्रेड गेम्स’ वेब सीरीज़ और ‘उड़ान’, ‘लुटेरा’, ‘क्वीन’, ‘मसान’, ‘उड़ता पंजाब’, ‘ट्रैप्ड’ और ‘एके वर्सेज़ एके’ आदि फिल्में बना चुके हैं। उनके दादा हरनाम मोटवानी फिल्मों में फाइनेंस किया करते थे। खुद भी उन्होंने किशोर कुमार को लेकर 1951 में ‘आंदोलन’ नाम की फिल्म बनाई थी। यह फिल्म चली नहीं, लेकिन विक्रमादित्य ‘जुबली’ बनाने को प्रेरित हुए, इसके पीछे उनके दादा का फिल्मों के उस दौर का हिस्सा होना भी एक कारण था।

देविका रानी और हिमांशु राय आज़ादी से पहले सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिल्मी हस्तिय़ों में थे। वैसे हिमांशु एक वकील थे, लेकिन वकालत की बजाय फिल्में उन्हें अपनी तरफ खींच रही थीं। अपने समान रुझानों के कारण अंग्रेज़ीदां परिवार की और इंग्लैंड की पढ़ी देविका रानी से उनका विवाह हुआ। विवाह के बाद दोनों ने एक साथ जर्मनी जाकर फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण लिया। फिर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में ‘कर्मा’ बनाई। इंग्लैंड में इसकी बहुत तारीफ हुई, मगर भारत में पिट गई। इसमें हिमांशु और देविका का अत्यधिक लंबा चुंबन दृश्य जरूर चर्चित हुआ। भारत लौट कर हिमांशु राय ने कुछ लोगों की मदद से बॉम्बे टॉकीज़ नाम से प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियो शुरू किया। इन पति-पत्नी ने कई नए कलाकारों को मौका दिया। इनमें अशोक कुमार और दिलीप कुमार भी थे। और इन्हीं में एक नजम-उल हसन थे जिनके साथ देविका रानी ने ‘जवानी की हवा’ में काम किया था। हिमांशु की अगली फिल्म ‘जीवन नैया’ में भी नजम-उल हसन हीरो थे, लेकिन शूटिंग के बीच ही देविका उनके साथ गायब हो गईं। शशधर मुखर्जी जो बॉम्बे ट़ॉकीज़ में साउंड रिकॉर्डिस्ट थे, उनकी देविका से अच्छी बनती थी। वही देविका को समझा-बुझा कर वापस लाए। हिमांशु और देविका का समझौता कराया। उनके कहने पर फिल्म का हीरो भी बदल दिया गया जिसके कारण ‘जीवन नैया’ अशोक कुमार की पहली फिल्म बनी। शशधर मुखर्जी असल में अशोक कुमार के बहनोई थे। नजम-उल हसन का करियर वहीं समाप्त हो गया, क्योंकि इस घटना के बाद किसी और कंपनी ने भी उन्हें काम नहीं दिया। 1940 में हिमांशु राय के निधन के बाद देविका खुद बॉम्बे टॉकीज़ की मालकिन हो गईं, मगर उसे ठीक से चला नहीं पाईं। पांच साल बाद फिल्मों को छोड़ रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रोरिक से शादी करके वे बेंगलुरु जा बसीं। 1969 में पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार देविका रानी को ही मिला था। 1994 में उनका निधन हो गया।

अपनी ही फिल्म के हीरो के साथ देविका रानी के लापता हो जाने की स्थिति पर गौर कीजिए। हिमांशु राय बुरी तरह नाराज़ और परेशान थे। एक तो देविका उनकी पत्नी थीं। दूसरे, फिल्म के हीरो और हीरोइन दोनों भाग गए थे और फाइनेंसर लोग हिमांशु राय पर दबिश दे रहे थे। स्टूडियो में काम करने वालों के बीच अलग राजनीति चल रही थी। इनमें जो लोग परदे पर आने को आतुर थे वे एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए तरह-तरह की तिकड़में कर रहे थे। किसी फिल्म य़ा वेब सीरीज़ के लिए यह एक बेहतरीन कहानी है।

‘सभी चरित्र और घटनाएं काल्पनिक हैं’ वाले डिस्क्लेमर के बावजूद प्राइम वीडियो पर शुरू हुई वेब सीरीज़ ‘जुबली’ में श्रीकांत राय बने प्रोसेनजीत और सुमित्रा कुमारी बनीं अदिति राव हैदरी उन्हीं वास्तविक पात्रों का आभास देते हैं। दोनों का व्यक्तित्व वैसा ही बनाया गया है और देविका की तरह सुमित्रा अपने पति की फिल्म के हीरो जमशेद खान के साथ भाग भी जाती हैं। वेब सीरीज़ में बॉम्बे टॉकीज़ की जगह स्टूडियो का नाम रॉय टॉकीज़ है और घटनाक्रम का समय भी बदल कर आजादी से कुछ महीने पहले का बताया गया है जबकि मूल घटनाएं इससे एक दशक पहले की थीं। आज के हिसाब से कहानी गढ़ने के लिए उस समय की अलग-अलग घटनाओं को जोड़ दिया गया है जो आपको अलग-अलग लोगों की याद दिलाती हैं। मगर उस समय का परिवेश, फ़ैशन, पहनावा और धीमापन आपको सबसे ज्यादा छूते हैं।

‘जुबली’ यानी जयंती। वह सिल्वर जुबली भी हो सकती है और गोल्डन या डायमंड भी। चार दशक पहले तक ये जुबलियां हुआ करती थीं। इसीलिए इस वेब सीरीज़ का यह नाम रखा गया। आपके भीतर छुपीं पुराने फिल्मी दौर की यादों को कुरेदने के लिए। हिंदी सिनेमा के स्वर्ण काल की यादें। मगर उस काल को तो सैकड़ों फिल्मकारों, हज़ारों कलाकारों, दर्जनों संगीतकारों, गीतकारों और लेखकों ने मिल कर रचा था। उसकी अनगिनत घटनाएं और बेहिसाब किस्से हैं। कोई एक स्टूडियो या कोई एक फिल्मी परिवार, उसमें पनप रहे लालच व साजिशों का अतिरेक भरा बखान और कुछ कलाकारों के उभार का वर्णन उस पूरे काल को समेट नहीं सकता। मगर क्या यह संभव है कि जिसे हम हिंदी सिनेमा का स्वर्ण काल मानते हैं वह कैसे अस्तित्व में आया और फिर कैसे छीजता चला गया, इसकी पूरी गाथा परदे पर लाई जा सके? लगभग तीन दशक तक चले उस विशाल अनुभव में केवल अभिनय और फिल्मकारी ही नहीं, संगीत भी शामिल है। उस पर बंटवारे का भी असर पड़ा। हमारे कितने फिल्मकार, लेखक, संगीतकार और नूरजहां जैसी गायिका पाकिस्तान चले गए। ‘मुगले आज़म’ के फाइनेंसर भी इनमें शामिल थे जिसकी वजह से आसिफ़ साहब को कई साल और इंतज़ार करना पड़ा था। इसी तरह पाकिस्तान से कई फिल्मकार और संगीतकार भारत आ गए क्योंकि वे हिंदू थे। उनके यहां आने से हमारी फिल्मों और फिल्म संगीत में काफी कुछ इजाफ़ा हुआ। और लाहौर की बात क्यों भूल जाएं। वहां जो छह-सात स्टूडियो चल रहे थे वे लगभग सभी हिंदुओं के थे। उनमें तो काम ही बंद हो गया। बाद में वे अलग-अलग लोगों को अलॉट हुए। जैसे मलिका पुखराज को भी एक स्टूडियो मिला। मगर लंबे समय तक पाकिस्तान में फिल्मों का कारोबार अपनी रफ्तार नहीं पकड़ सका जबकि भारत में वह बहुत तेजी से परवान चढ़ा। यह सब इसलिए जरूरी है कि जिसे हम अपने सिनेमा का स्वर्ण काल कहते हैं वह कोई आज़ादी का इंतज़ार नहीं कर रहा था। वह तो उससे पहले ही शुरू हो गया था।

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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