बोमन ईरानी अब अपने निर्देशन की पहली फ़िल्म, ‘द मेहता बॉयज़‘ लेकर आए हैं। अभिनय और लेखन में अपनी काबिलियत साबित करने के बाद, बोमन ईरानी ने निर्देशन में भी एक लम्बी लकीर खींची है।‘द मेहता बॉयज़‘ जटिल रिश्तों की ऐसी सूक्ष्म पड़ताल करती है कि आप अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करने को प्रेरित हो जाते हैं। फ़िल्म में केंद्रीय भूमिका में खुद बोमन हैं और उन्होंने अभिनेता के साथ-साथ डायरेक्शन की कमान भी बहुत ही खूबसूरती से संभाली है। यह फ़िल्म बाप और बेटे के जटिल और संवेदनशील रिश्ते को बेहद बारीक़ी से दर्शाती है।
सिने-सोहबत
क़िस्सागोई के अलग अलग आयाम साधने वाले कलाकारों की क़ाबिलियत का रस लेने के लिए सबसे ज़रूरी है ये समझना कि उन्हें किसी पारम्परिक नौकरीशुदा इंसान की तरह देखने से बचना होगा। स्टोरीटेलिंग इंडस्ट्री और इसमें प्रैक्टिस करने वाले स्टोरीटेलर्स निरंतर अपनी पसंद की विधा की साधना में लगे रहते हैं। जब जिस विधा का कौशल दिखाने का मौक़ा मिलता है, दर्शकों को उसका आनंद लेने का अवसर मिल जाता है। वैसे भी ये दौर किसी एक सपने में अटके रहने का कहां रहा? अगर किसी के व्यक्तित्व में वैविध्य है तो फिर उनकी आंखों में चमकते ड्रीम्स की डाइवर्सिटी से गुरेज़ कैसा? हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के संदर्भ में देखें तो चाहे गुरुदत्त हों, देवानंद, विजय आनंद या फिर राज कपूर से लेकर अब आमिर ख़ान और फरहान अख्तर तक सबने फिल्म निर्माण की अलग अलग विधाओं में न सिर्फ दिलचस्पी ली, बल्कि उन्हें साधा भी। इसी शृंखला में सबसे ताज़ा मामला सामने आया है बोमन ईरानी का। जो कभी सिर्फ फ़ोटोग्राफ़र थे, फिर मंझे हुए एक्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई, स्क्रिप्ट राइटिंग वर्कशॉप्स लेते रहे और हज़ारों लोगों को अपनी ऑनलाइन संस्था ‘बाउंड स्क्रिप्ट’ के माध्यम से स्क्रीन प्ले लेखन की बारीकियों से अवगत कराया और अब अपने निर्देशन की पहली फ़िल्म, ‘द मेहता बॉयज़’ लेकर आ गए हैं। अभिनय और लेखन में अपनी काबिलियत साबित करने के बाद, बोमन ईरानी ने निर्देशन में भी एक लम्बी लकीर खींची है।
दुनिया भर के प्रतिष्ठित फ़िल्म फेस्टिवल्स जैसे शिकागो, टोरंटो, साउथ एशियन, जर्मनी, बर्लिन, इफ्फी में सराही जाने के बाद ‘द मेहता बॉयज़’ अब ओटीटी पर स्ट्रीम हो रही है। ‘द मेहता बॉयज़’ जटिल रिश्तों की ऐसी सूक्ष्म पड़ताल करती है कि आप अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करने को प्रेरित हो जाते हैं। फ़िल्म में केंद्रीय भूमिका में खुद बोमन हैं और उन्होंने अभिनेता के साथ-साथ डायरेक्शन की कमान भी बहुत ही खूबसूरती से संभाली है। यह फ़िल्म बाप और बेटे के जटिल और संवेदनशील रिश्ते को बेहद बारीक़ी से दर्शाती है।
बोमन ने अपनी इस बेहद ज़रूरी फ़िल्म में अपने बेटे के किरदार के लिए अविनाश तिवारी का साथ लिया, जिन्होंने शानदार अभिनय किया है। अविनाश तिवारी की परफॉरमेंस की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। समकालीन हिंदी फ़िल्म उद्योग में उनकी पीढ़ी में ऐसे कलाकार बहुत कम हैं जो अपने किरदार में इस क़दर डूब जाते हैं कि उनकी अपनी वास्तविक पहचान का बैगेज कहीं पीछे, बहुत पीछे छूट जाता है। अविनाश अब तक निभाए अपने सभी किरदारों में लगातार ख़ुद को ख़ुद का बेहतर वर्शन साबित करने में समर्थ रहे हैं। इस कहानी में बाप-बेटे एक-दूसरे से बेहद प्यार करते हैं, लेकिन अपनी भावनाएं व्यक्त करने में हिचकते हैं। श्रेया चौधरी ने नायक की दोस्त के किरदार में काफी संतुलित अभिनय किया है। इससे पहले भी उन्हें ‘बंदिश बैंडिट्स’ में अपनी अदाकारी का कौशल निखाने का मौक़ा मिला, जिसे उन्होंने बख़ूबी निभाया।
कहानी की बात करें त गुजरात के नवसारी में सेट यह फिल्म शिव मेहता (बोमन ईरानी) और उसके बेटे अमय (अविनाश तिवारी) की है। शिव मेहता एक रिटायर हो चुका बुजुर्ग है। हाल ही में उसकी पत्नी का निधन हुआ है। शिव के आर्किटेक्ट बेटे अमय और अमेरिका से बेटी अनु (पूजा सरूप) पिता से मिलने आते हैं। अपने पिता शिव के साथ अमय का रिश्ता काफी जटिल है। दोनों ही दो विपरीत ध्रुवों की तरह हैं। बेटी अनु, शिव को अपने साथ अमेरिका ले जाने की तैयारी करती है, मगर हालात ऐसे बनते हैं कि शिव बेटी के साथ तत्काल अमेरिका नहीं जा पाते। उन्हें 48 घंटों के लिए अपने उस बेटे के साथ रहना पड़ता है, जिससे उनकी ज़रा भी नहीं बनती। अगले 48 घंटों की कहानी, बाप-बेटे के उलझे हुए रिश्ते के लिए ही नहीं, बल्कि उनकी जिंदगी के लिए भी निर्णायक साबित होती है। यह 48 घंटे उनके रिश्ते की उलझन को सुलझाने में मददगार साबित होते हैं।
यह भी कम कमाल की बात नहीं है कि 41 साल की उम्र में जब बोमन ने फिल्मों में एक्टिंग की शुरुआत की थी, तब भी, पहली ही फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ से खुद को साबित किया था, और आज 65 साल की उम्र में, जब उन्होंने निर्देशन की बागडोर संभाली है, तब भी उन्होंने पिता-पुत्र के रिश्तों को खंगालने का बेहतरीन काम किया। निर्देशक के रूप में बोमन कहानी और पात्रों को स्थापित करने में थोड़ा वक्त लगाते हैं, मगर एक बार ये चीजें सेट हो जाने के बाद आप उन किरदारों के साथ जीने लगते हैं।
कहानी की भावनात्मक गहराई आपको अपने आस-पास के रिश्तों या घटनाओं की याद दिलाती हैं। पिता और बेटे का तनावपूर्ण रिश्ता हो या भाई-बहन का परवाह भरा सहज संबंध, आपको लगता है, ऐसे चरित्र आपके अपने जीवन में भी हैं। फिल्म जितनी मार्मिक है, उतनी ही मनोरंजक भी। पहले घंटे के बाद कहानी और भी रवानगी के साथ आगे बढ़ती है और क्लाइमैक्स में आंसू निकल आते हैं।
फ़िल्म के निर्देशन के साथ-साथ बोमन ने ऑस्कर जीत चुकी फ़िल्म ‘बर्डमैन’ के स्क्रीनप्ले राइटर ‘अलेक्जेंडर डिनेलारिस’ के साथ मिलकर इसके स्क्रीनप्ले को करीने से सजाया है। फ़िल्म में कई प्रतीकों का शानदार सांकेतिक इस्तेमाल हुआ है जो कहानी और इसके प्रस्तुतीकरण को काफ़ी गहराई प्रदान करते हैं। मसलन, अमय (अविनाश तिवारी) मुंबई में जिस बरसाती में रहता है वहां की छत और दीवारों की उखड़ती पपड़ियां उसकी ज़िंदगी के ट्रैक को रिफ्लेक्ट करती हैं और जैसे जैसे उसकी ज़िन्दगी में उतार चढ़ाव और फिर सुधार आते हैं उन दीवारों की दशा में भी नई दिशा आती जाती है। दिलचस्प है।
बोमन ने निर्माण, निर्देशन और लेखन के अलावा अभिनय जैसी चार नावों की सवारी की है। अभिनय के मामले में भी उनसे कहीं भी कोई चूक नहीं हुई है। अक्सर, जब अभिनेता निर्देशन और अभिनय एक साथ करते हैं तो किसी न किसी एक रोल में कमज़ोर दिखते हैं, लेकिन बोमन ने ऐसा नहीं होने दिया। अपने बेटे को प्रेम करना, मगर कह न पाने के अंतर्द्वंद्व और पीड़ा को वो प्रभावी तरीके से साकार करते हैं। इस फ़िल्म में विचित्रताओं से भरे अपने किरदार को वे बहुत ही सहजता से जी गए हैं।
बेटे अमय के रूप में अविनाश तिवारी ने शानदार और संयमित अभिनय किया है। पिता को खोजने और बारिश में कार के एक्सीडेंट जैसे कई दृश्यों में उन्होंने दिल को छूने वाला काम किया है। इस जटिल कहानी में ज़ारा के किरदार में श्रेया राहत देने का काम करती हैं। उन्होंने अपने किरदार को यादगार बनाया है। बहन की छोटी-सी भूमिका में पूजा सरूप अपनी छाप छोड़ जाती हैं। मशहूर क्विज मास्टर सिद्धार्थ बासु भी अमय के बॉस की भूमिका में काफ़ी जमते हैं।
बाप-बेटे का रिश्ता शायद दुनिया का सबसे क्लिष्ट रिश्ता होता है। जैसा बाप अपने बेटे को बनाना चाहता है, बेटा अक्सर वही बनना भी चाहता है। लेकिन इस प्रक्रिया में दोनों के तरीके में इतनी ग़हरी खाई है जिसे लेकर दोनों में अंत तक मन और मत दोनों का भेद बना रहता है। पिता हमेशा इस गुमान में रहता है कि उसे सब पता है। बेटों को अक्सर पिता का गाहे-ब-गाहे, हर समय ‘ज्ञान’ बांटते रहना अच्छा नहीं लगता। हां, भाई-बहन की तकरार भी फिल्म ‘द मेहता बॉयज़’ में है। दोनों एक दूसरे से टॉम एंड जेरी की तरह लड़ते हैं, लेकिन साथ भी इन्हीं दोनों की तरह बने रहना चाहते हैं। फ़िल्म अमेज़न प्राइम पर है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)