यदि आप इस फ्रेंकनस्टाइन या दानव के पास एक चेकलिस्ट लेकर जाएंगे तो वह किसी टेस्ट में फेल नहीं होगा। लोकतंत्र जिंदा मिलेगा। क्या चुनाव होते हैं? हां, बिलकुल होते हैं। क्या संसदीय व्यवस्था लागू है? हां, बिलकुल है। पर समस्या संयोजनों (combinations)में है। चुनाव तो स्वतंत्र हैं परंतु उन्हें लड़ने में पार्टियां असमर्थ है। संसद है मगर बहस नहीं, विपक्ष, मीडिया, आडिट एजेंसियां, ओमबड्समेन, पारदर्शिता नहीं। कुल मिलाकर फ्रेंकनस्टेट वह है जो दिखलाई देगा प्रजातांत्रिक परंतु उसमें प्रजातांत्रिक संस्थाओं के हिस्सों का ऐसा संयोजन होगा कि वह दरअसल गैर-प्रजातांत्रिक बनामनमाना शासन करते हुए होगा।
प्रेस को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इस चौथे स्तंभ की स्वतंत्रता के सूचकांक में 180 देशों में भारत का स्थान 150वां है। परंतु सूचना और प्रसारण मंत्री ने हमें भरोसा दिलाया है कि सरकार संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्ध है। इसे ही कहते है मिजाज-ए-फ्रेंकनस्टेट। ….सही कागज पर मीडिया आजाद है परंतु वह जनता का ब्रेनवॉश करने में जुटा हुआ है और सच से लोगों की आंखें बंद कराए हुए है।
अंग्रेजी का एक शब्द है-‘फ्रेंकनस्टेट’। इसे गढ़ा हैअमेरिका के प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के किम लेन शेपली ने। यही शब्द मेरी शैली के प्रसिद्ध उपन्यास ‘फ्रेंकनस्टाइन’ का बीज है।शेपली ने इस शब्द से समझाया है कि किसी देश का शासन कानूनों, संस्थाओं का दुरूपयोग करके, व्यवस्थाओं के ही हवाले दमनकारी राज्य बनाता है। ठीक उसी तरह जैसे अन्य प्राणियों के टुकड़ों को जोडकर फ्रेंकनस्टाइन बना था।फ्रेंकनस्टेट का हर हिस्सा, घटक पूर्णतः मान्य और वैध होते हैं। सबको सही लगेगा, सब सही मानेंगे।अपने आप में आपत्तिजनक नहीं। तब वह खौफनाक कैसे? इसलिए क्योंकि उसकी भयावहता, नितांत अहानिकर घटकों को विशेष ढंग से जोड़ने से उपजती है।(the horror emerges from the combinations)जैसे मानों भस्मासुर। उस राक्षश ने मानव रूप में तप, ध्यान से साधना की और भगवान भी उसके हाव- भाव, भक्ति, तपस्या से प्रभावित हो उसे वरदान देने से अपने को रोक नहीं पाएं। पर भस्मासुर को ज्योहि वरदान प्राप्त हुआ तो दुरूपयोग की भयावहता से छुटकारा पाना भगवान के लिए भी मुश्किल हुआ।
यदि आप इस फ्रेंकनस्टाइन या दानव के पास एक चेकलिस्ट लेकर जाएंगे तो वह किसी टेस्ट में फेल नहीं होगा। लोकतंत्र जिंदा मिलेगा। क्या चुनाव होते हैं? हां, बिलकुल होते हैं। क्या संसदीय व्यवस्था लागू है? हां, बिलकुल है।पर समस्या संयोजनों (combinations)में है। चुनाव तो स्वतंत्र हैं परंतु उन्हें लड़ने में पार्टियां असमर्थ है। पैसा नहीं हैं।उन्हे पैसे और सत्ता से बिखेर दिया जाता है, डरा दिया जाता है। संसद है मगर बहस नहीं, विपक्ष, मीडिया, आडिट एजेंसियां,ओमबड्समेन, पारदर्शिता नहीं। कुल मिलाकर फ्रेंकनस्टेट वह है जो प्रजातांत्रिक दिखलाई देगा परंतु उसमें प्रजातांत्रिक संस्थाओं के हिस्सों का ऐसा संयोजन होगा कि वह दरअसल गैर-प्रजातांत्रिक बनामनमाना शासन लिए हुए होगा।
मैंने पिछले सप्ताह लिखा था कि किस प्रकार लोग मूकदर्शक बने रहकर फ्रेंकनस्टेट के निर्माण में योगदान दे रहे हैं।उस लेख की मेरे शुभचिंतकों ने काफी तारीफ की। उसे ‘सटीक’, ‘बेबाक’, ‘विचारोत्तेजक’, ‘निर्मम सच्चाई’ आदि बताने वाले कई संदेश मैंने इनबॉक्स में देंखे। जाहिर है मुझे अच्छा लगा। परंतु एक तरह से यह निराशाजनक भी था। अधिकतर प्रतिक्रियाएं मेरे नए और पुराने साथी पत्रकारों की थीं। वे लेख में व्यक्त ‘निर्मम सच्चाई’ की सराहाना करते हुए थे परंतु मुझे मालूम है कि जब वे कैमरे के सामने होंगे या उनके हाथ में कलम होगी तब उनकी रीढ़ की हड्डी अचानक गायब हो जाएगी।उन्हेंभयावह सच्चाईयां दिखेंगी ही नहीं।
संयोगवश इस लेख को लिखते समय मेरी नजर अपने समय के लब्धप्रतिष्ठित फोटो पत्रकार रघु राय के एक इंटरव्यू पर पड़ी। इसमें उन्होंने कहा, “पहले जब एडीटर्स एडिटोरियल्स लिखते थे तो सरकार हिलने लगती थी।” वे भी क्या दिन थे! संपादकों में तब रीढ़ की हड्डी भी थी और अंतरात्मा भी। वे अपने रिपोर्टरों पर भरोसा करते थे और उन्हें लिखने की स्वतंत्रता देते थे।
मौजूदा सरकार आपातकाल के बारे में बहुत कुछ कहती है। रघु राय बताते है कि आपातकाल में प्रेस को कुचला गया, उसकी आवाज को दबाया गया और उसके मुंह पर टेप चिपका दिया गया। यह सही हो सकता है, परंतु यह भी सही है कि आपातकाल में भी बहुत से गुस्ताख संपादक थे जो सच को सच कहते थे और जिनमें अपने अखबार के मुखपृष्ठ को खाली छोड़ने का साहस था। अब तो “जब सरकार फोन करती है तो एडिटर हिल जाते हैं”। प्रेस कान्फ्रेंसों में मंत्री पत्रकारों की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, उन्हें लगभग अपमानित करते हैं परंतु किसी मीडिया संस्थान या संपादक में यह हिम्मत नहीं है जो वह ऐसे मंत्रियों और उनकी प्रेस कान्फ्रेंसों का बहिष्कार कर सके। देश एक एजेंडा पर चल रहा है और संपादक और उनके रिपोर्टर इस एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं। समाचारों में विश्लेषण का अभाव होता है और संपादकीय प्रश्न पूछते नहीं दिखते। मीडिया को ऐसे मुद्दों को उजागर करना चाहिए जो प्रजातंत्र के लिए असली खतरा हैं। इसके बजाए लोगों का ध्यान दूसरी ओर खींचा जा रहा है।
प्रेस को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इस चौथे स्तंभ की स्वतंत्रता के सूचकांक में 180 देशों में भारत का स्थान 150वां है। परंतु सूचना और प्रसारण मंत्री ने हमें भरोसा दिलाया है कि सरकार संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्ध है। इसे ही कहते है मिजाज-ए-फ्रेंकनस्टेट।
सही कागज पर मीडिया आजाद है परंतु वह जनता का ब्रेनवॉश करने में जुटा हुआ है और सच से लोगों की आंखें बंद कराए हुए है। भक्त और विभिन्न प्रकार के बाबा और संत लगातार झूठ बोल रहे हैं, जहर फैला रहे हैं और समाज में भय और आतंक का वातावरण निर्मित कर रहे हैं।बावजूद इसके मीडिया द्वारा वह न बताना जो वे दरअसल हैं, तो पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है।अधिकांश पत्रकार स्वयं भक्त और प्रचारक बन गए हैं लेकिन अपने आपको ‘संतुलित पत्रकार’ बताते हैं। जो सत्ता पर प्रश्न उठाते हैं और उसकी आलोचना करते हैं उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग और देशद्रोही कहा जाता है। क्या ‘संतुलित पत्रकारिता’ का अर्थ सच और झूठ से एक बराबर दूरी बनाना है?
कहना मुश्किल है कि मीडिया ने क्या अपने लाभ के लिए स्वयं अपने ऊपर सेंसरशिप लागू कर ली है? परंतु इतना निश्चित तौर पर है कि अब स्वतंत्र पत्रकारिता जैसी कोई चीज देश में बची नहीं है। जो मुठ्ठीभर लोग स्वतंत्र लेखन करते भी हैं वे या तो आर्थिक बदहाली में धकेल दिए गए है या फंसाए हुए हैं। सरकार की हां में हां मिलाते-मिलाते आज मीडिया भी भक्त बन बैठा है और उसे सर्वाधिक मजा विपक्ष का मजाक उड़ाने में आता है। विपक्ष की अनवरत निंदा की जाती है और उस पर प्रश्न उठाए जाते हैं। आज जो कुछ भी गलत है उसके लिए नेहरू को दोषी ठहराया जाता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि विपक्ष सरकार है और नेहरू देश के प्रधानमंत्री हैं!
यह तो हुआ मजाक। मगर असल गंभीर नतीजा सच्चाई से जनता की बेखबरी है और देश की दशा-दिशा चुपचाप बिगड़ते जानाहै। जनता को बेसुधी में न तो विपक्ष दिखता है और न यह समझ में आता है कि प्रजातंत्र खतरे में है। क्या इसका मतलब यह है कि हम अंधकार की ओर जा रहे हैं? इतिहास का अनुभव और किताबें हमें बताती हैं कि प्रजातंत्र खतरे में तब होता है जब राजनैतिक यथास्थिति से लोगों का मोहभंग हो जाता है। यह अक्सर तब होता है जब सरकारें आर्थिक मोर्चे पर विफल रहती हैं, अपनी अक्षमता और अयोग्यता से जनता को पूरी तरह परिचित करा देती हैं और जब राजनैतिक और आर्थिक प्रणाली में न्याय और निष्पक्षता के लिए कोई स्थान नहीं बचता।
भारत इसी ओर जा रहा है। परंतु हम हैं कि एक आभासी दुनिया में जी रहे हैं।लोग प्रजातंत्र या विपक्ष के अभाव से परेशान क्यों होंगे जब नाटू-नाटू को ऑस्कर मिलने को शासन की उपलब्धि मान रहे है। इस साल के खत्म होते-होते विपक्ष या तो जेल में होगा या घुटने टेक चुका होगा।पूरी तरह बिखर चुका होगा। वह सत्ताधारी दल का विकल्प बनने की स्थिति में ही नहीं रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि मीडिया तब भी यह कहेगा कि यह सब प्रजातंत्र को बेहतर और मजबूत बनाने, भ्रष्टाचार से लड़ने और चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए किया गया है। न्यायपालिका भी यह सब होते देखती रहेगी क्योंकि वह भी ‘स्वतंत्र’ है।
जो लोग अनकहे को सुन सकते हैं और जो लिखा नहीं जा रहा है उसे पढ़ सकते हैं, वे सब जानते हैं कि प्रजातंत्र खतरे में है। वे अपने ड्राईंग रूमों में रोएंगे-बिसूरेंगे मगर उनके लिए 2024 का चुनाव कोई महत्व नहीं रखेगा। वे कहेंगे हम अपना वोट क्यों वेस्ट करें।
मैं कह सकती हूं कि एक बार फिर मोदी सत्ता में आएंगे और हम प्रजातंत्र के ‘फ्रेंकनस्टेट’ बन जाएंगे। एक ही स्थिति में ऐसा नहीं होगा। और वह तब जब चौथा स्तंभ वह करेगा जो उसे करना चाहिए – जब वह उन चीजों के बारे में बताएगा जो प्रजातंत्र को कुचल रही हैं, जब वह लोगों की आंखें खोलने वाले विश्लेषण करेगा, जब वह केवल सरकारी ट्वीटों और ‘न्यूज ऑफ द डे’ पर फोकस नहीं करेगा।लोगों को केवल यह बताने से काम नहीं चलेगा कि कल क्या हुआ था। मीडिया को वह बताना चाहिए जो आज है। वह सत्य दिखलाना चाहिए जो है और जो उन्हें सोचने पर विवश करे। जब तक यह नहीं होता तब तक देश और देश के करोड़ों लोग इसी भ्रम में जीते रहेंगे कि वे एक प्रजातांत्रिक देश में रह रहे हैं।