महिला आरक्षण के साथ कुछ बड़े सवाल भी जुड़े हुए हैं। जाहिरा तौर पर यह कदम जड़ पर मौजूद समस्या को नजरअंदाज कर फुनगियों को सजा लेने की सोच का संकेत है। महिलाएं राजनीति में कम संख्या में हैं, तो उसकी वजहें समाज में मौजूद हैं।
नरेंद्र मोदी सरकार ने विधायिकाओं में महिला आरक्षण के लिए विधेयक कई अगर और मगर के साथ पेश किया है। जाहिर है, शुरुआत में इस बिल को लाने के बारे में आई खबर से पैदा हुआ उत्साह इन शर्तों को देखने के बाद ठंडा हो गया। कहा गया है कि महिला आरक्षण का प्रावधान दशकीय जनगणना होने के बाद संसदीय और विधानसभाई सीटों के होने वाले परिसीमन के उपरांत लागू किया जाएगा। दशकीय जनगणना के अब तक संपन्न ना होने के लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार जिम्मेदार है। कोरोना महामारी इसमें सिर्फ एक साल की देर का कारण बनी थी। उसके बाद पाकिस्तान सहित दुनिया के तमाम देश जनगणना करवा चुके हैं। भारत में इसे प्राथमिकता नहीं दी गई, तो यह ठोस आंकड़ों के प्रति वर्तमान सरकार के अपमान भाव का सबूत है। संसदीय सीटों का परिसीमन वैसे भी एक विवादास्पद मुद्दा बनने वाला है। परिवार नियोजन नीतियों पर जनसंख्या नियंत्रित करने वाले दक्षिणी राज्य इसका पुरजोर विरोध करेंगे, यह तय है।
चूंकि आनुपातिक रूप से उनकी जनसंख्या कम बढ़ी है, इसलिए अगर आबादी के अलावा कोई और फॉर्मूला नहीं अपनाया गया, तो लोकसभा में उनकी अपेक्षाकृत कम हो जाना निश्चित ही है। और जब तक ये दोनों प्रक्रियाएं पूरी नहीं की हो जातीं, महिला आरक्षण अधर में लटका रहेगा। इसीलिए इस मौके पर इस बिल लाने को सरकार की सुर्खियां प्रबंधित कर अपने अनुकूल जन-धारणा बना लेने की रणनीति का हिस्सा बताया गया है। बहरहाल, महिला आरक्षण के साथ कुछ बड़े सवाल भी जुड़े हुए हैं। जाहिरा तौर पर यह कदम जड़ पर मौजूद समस्या को नजरअंदाज कर फुनगियों को सजा लेने की सोच का संकेत है। महिलाएं राजनीति में आकर अपने दम पर नहीं उभर पातीं, तो उसकी वजहें भारत की सामाजिक, और आर्थिक और सांस्कृतिक माहौल में छिपी हैं। उन्हें दूर करने की योजना बनाए बगैर ऊपरी तौर पर संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधितव बढ़ाने के उपाय करना सिर्फ दिखावटी और सजावटी ही होगा। अगर साथ-साथ दोनों जगहों पर ऐसी पहल हो, भारतीय समाज में प्रगतिशील बदलाव देखने को मिल सकते हैं। वरना, महिला प्रतिनिधि जारी सियासत के घेरे में ही कैद रहेंगी।