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जनता के बीच जाइए

विपक्ष के पास एक ही रास्ता है कि वह राजनीति का तरीका बदले। सर्वसत्तावादी सरकारों पर लगाम सिर्फ जनता के बीच रहते हुए और उसे संगठित करते हुए ही लगाई जा सकती है। मगर विपक्ष इसके लिए तैयार नहीं दिखता।

अब यह लगभग दस साल का अनुभव है कि वर्तमान भाजपा सरकार संसदीय जवाबदेही को नहीं मानती। ना ही संसद की प्रक्रियाओं का आदर करती है। जिस थोक भाव में सांसदों का निलंबन अब हुआ है, उससे यह बात पुष्ट हुई है कि गुजरते वक्त के साथ सत्ता पक्ष का यह रुख और कठोर होता जा रहा है। सोमवार तक कुल 92 सांसदों को निलंबित किया जा चुका था। राज्यसभा के निलंबित हुए 46 सदस्यों में से 35 को पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित किया गया है। बाकी 11 सांसदों को उनके व्यवहार पर विशेषाधिकार समिति की रिपोर्ट आने तक निलंबित किया गया है। उधर लोकसभा में निलंबित 46 सांसदों में से तीन सांसदों को विशेषाधिकार समिति की रिपोर्ट आने तक निलंबित किया गया है। बाकी पूरे सत्र के लिए सस्पेंड किए गए हैँ। आखिर इन सांसदों का दोष क्या था? वे 13 दिसंबर को संसद की सुरक्षा में हुई चूक के मसले पर गृह मंत्री से बयान की मांग कर रहे थे। क्या यह मांग इतनी बड़ी थी, जिसको लेकर इतना बड़ा विवाद खड़ा होता? मगर ऐसा हुआ है, तो उसके निष्कर्ष स्पष्ट हैँ।

सरकार ने बता दिया है कि वह विपक्ष और विरोध को स्वीकार नहीं करती। तो अब प्रश्न विपक्ष के सामने है कि वह क्या करेगा? लोकतंत्र की हत्या हुई, जैसे जैसे बयान अब कोई प्रभाव पैदा नहीं करते। गौरतलब है कि सांसदों के निलंबन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि एक बार फिर मोदी सरकार ने संसद और लोकतंत्र पर हमला किया है। उन्होंने ये अंदेशा भी जताया कि विपक्ष की गैर-हाजिरी में सरकार कुछ महत्त्वपूर्ण बिल पास करा लेगी। ये बात भी बहुत दमदार नहीं है, क्योंकि सरकार विपक्ष की मौजूदगी में भी मनमाफिक ढंग से विधेयक पास कराती रही है। ऐसे में विपक्ष के पास एक ही रास्ता है कि वह राजनीति का तरीका बदले। सर्वसत्तावादी सरकारों पर लगाम सिर्फ जनता के बीच रहते हुए और उसे संगठित करते हुए ही लगाई जा सकती है। मगर विपक्ष इसके लिए तैयार नहीं दिखता। इसलिए वह अपनी जगह खोता चला गया है।

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By NI Editorial

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