माना जाता है कि इक्कसवीं सदी में दुनिया पुरातन जीवन शैली के साथ-साथ पुरातन मान्यताओं को पीछे छोड़ चुकी है। लेकिन अगर महिलाओं के प्रति भेदभाव की मानसिकता पर ध्यान दें, तो यह राय कतई सच नहीं है।
बीसवीं सदी में ही दुनिया के प्रगति के अभूतपूर्व मुकाम पर पहुंच जाने का दावा किया गया था। 21वीं सदी में तो माना जाता है कि दुनिया के अधिकांश हिस्से पुरातन जीवन शैली के साथ-साथ पुरातन मान्यताओं को पीछे छोड़ चुके हैँ। लेकिन अगर महिलाओं के प्रति भेदभाव की मानसिकता पर ध्यान दें, तो यह राय सच नहीं है। हकीकत यह है कि लैंगिक पूर्वाग्रह महिलाओं और पुरुषों दोनों में बड़े पैमाने पर मौजूद है। यह महिलाओं और पुरुषों को समान रूप से प्रभावित करता है। मसलन दुनिया की 69 प्रतिशत आबादी को अभी भी लगता है कि पुरुष महिलाओं की तुलना में बेहतर नेता बनेंगे। संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह आज भी समाज में बहुत गहराई तक पैठ बनाए हुए है। ‘#मीटू’ जैसे अभियानों के बावजूद पिछले दशक में महिलाओं को लेकर धारणा में कोई बदलाव नहीं आया है।
सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने इस अध्ययन में जिन लोगों को शामिल किया, उनमें से 90 फीसदी ने कम से कम एक लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने की बात स्वीकार की। और ऐसा पूर्वाग्रह केवल पुरुषों में ही नहीं, बल्कि महिलाओं में भी सामान्य बात है। जाहिर है, ये पूर्वाग्रह काफी अंदर तक घुसे हुए हैं। कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिएः सिर्फ 27 प्रतिशत लोगों का मानना है कि महिलाओं के लिए बराबरी का अधिकार लोकतंत्र के लिए जरूरी है। इसी तरह लगभग 46 प्रतिशत लोगों को लगता है कि पुरुषों का नौकरी पर ज्यादा अधिकार है। 43 प्रतिशत लोग सोचते हैं कि पुरुष बेहतर कारोबारी बनेंगे। एक चौथाई जनसंख्या पत्नी पर पति के हाथ उठाने को जायज मानती है। 28 प्रतिशत लोग मानते हैं कि विश्वविद्यालय जाना पुरुषों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। जबकि यह निर्विवाद है कि ऐसी सोच से छुटकारा पाए बिना मानव समाज लैंगिक समानता या टिकाऊ सामाजिक विकास का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकता। ऐसी ही सोच का नतीजा है कि जिन 57 देशों में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं, वहां भी आमदनी में दोनों के बीच औसतन 39 प्रतिशत का अंतर है। ऐसा विकसित देशों में भी होना खास चिंता की वजह है।