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यह कैसा विमर्श है!

देश की हर सफलता और विफलता को किसी एक व्यक्ति की किस्मत से जोड़ा जाने लगे, तो यह समझना चाहिए कि देश विवेकहीनता का शिकार हो चुका है। व्यवस्था अगर सचमुच ‘लोकतंत्र है’, तो वहां चुनाव वास्तविक मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए।

नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने और तभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि कच्चे तेल की असामान्य रूप से गिर गई। सोशल मीडिया पर इसे मोदी की अच्छी किस्मत बताया गया। तब खुद प्रधानमंत्री ने इसे राजनीतिक चर्चा का हिस्सा बना दिया। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि अगर उनकी अच्छी किस्मत से देश को फायदा होता है, तो बदनसीबों को वोट देने की जरूरत क्या है। संभवतः तभी से उनके विरोधी उनके इस दावे की काट ढूंढने में लग गए! धीरे-धीरे यह चर्चा होने लगी कि मोदी जहां जाते हैं, वहां काम बिगड़ जाता है। ट्रंप, नेतन्याहू, बोल्सोनारो आदि नेताओं से उनकी कथित दोस्ती का हवाला देकर कहा गया कि ये सभी चुनाव हार गए। एक बार चंद्रयान की विफलता का ठीकरा भी उनके माथे फोड़ा गया। इस चर्चा में उनके लिए आंचलिक शब्द पनौती (अपशकुल या मनहूस) का इस्तेमाल होने लगा।

रविवार को जब प्रधानमंत्री की उपस्थिति में भारत विश्व कप क्रिकेट का फाइनल हार गया, तो सोशल मीडिया पर ये शब्द फिर उछल आया। मंगलवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक चुनाव सभा में क्रिकेट में भारत की हार का दोष मोदी पर थोपते हुए इस शब्द को राजनीतिक चर्चा का हिस्सा बना दिया। इससे सियासत में तू तू-मैं मैं का माहौल गरमाया है। लेकिन क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं है? अगर देश की हर सफलता और विफलता को किसी एक व्यक्ति की किस्मत या बदकिस्मती से जोड़ा जाने लगे, तो यह समझना चाहिए कि संबंधित देश अंधविश्वास और विवेकहीनता के गड्ढे में गिरता जा रहा है। यह इसका संकेत भी है कि ऐसे विमर्श के आधार पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में जुटी ताकतों की कोई वास्तविक दिलचस्पी आम जन की समस्याओं और मुसीबतों को हल करने में नहीं है। असल में वे जहां जो चल जाए, वैसी बात से लोगों को भरमाने की होड़ में शामिल हैं। इसीलिए ऐसी बात चाहे जो भी करे, उसे बेनकाब करने की जरूरत है। व्यवस्था अगर सचमुच ‘लोकतंत्र है’, तो वहां चुनाव वास्तविक मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए, ना कि व्यक्ति-केंद्रित प्रशंसा या निंदा के आधार पर।

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By NI Editorial

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